लॉकडाउन के वक़्त एक कारोबारी किसी दूसरे शहर से नई दिल्ली स्टेशन के नज़दीक एक होटल में था. उनके पास न तो रहने का इंतेज़ाम था और न अपने घर लौटने का. शुरू में इस कारोबारी को लगा कि कोई रास्ता निकल ही आएगा, पर कुछ होता नहीं दिखलाई दिया. उसने कई दोस्तों को फ़ोन किया. बहुत मशक़्क़त, हाथ पांव जोड़ने के बाद जब उसे दिल्ली में ही किसी परिचित के यहां पनाह मिली, तब वह दो दिन से भूखा था. उसके जैसे लाखों हिंदुस्तानी काम के सिलसिले में दूसरे शहरों और प्रदेशों में थे.
ऐसे हालात में इन लाखों लोगों के लिए इस तरह की तकलीफ़देह अनिश्चितता में इतने दिन काटना मुश्किल ही था. ये कारोबारी तो फिर भी साधन सम्पन्न थे, हालांकि चेहरे पर तो उसके भी हवाइयां उड़ी हुई थीं. जब हम लोग अपनी छतों, बालकनियों और दरवाज़ों पर निकल कर घंटा बजाने की राष्ट्रीय क़वायद कर रहे थे, तब ये लोग, उनके साथ के बच्चे, औरतें और बूढ़े भूख से बिलबिला रहे थे. महात्मा गांधी की भाषा में कहें तो ये लोग क़तार के आख़िरी लोग थे, जिन्हें अगर आप अपने ध्यान में रखते हैं, तो आप कोई ग़लत फैसला नहीं कर सकते. देश, उसकी सरकार, उसके एम्पलॉयर्स ने उनके बारे में सोचा ही नहीं था. सरकार के ज़हन में लॉकडाउन के असली ऑडियेंस मकानों में रहने वाले वे लोग थे, जो लॉकडाउन के दौरान अपनी बोरियत घटाने और श्रद्धा बढ़ाने के लिए रामायण और महाभारत जैसे धारावाहिक सुबह शाम देख सकते थे.
घर नहीं जाते तो कहां जाते
कोई भी इंसान जब मुसीबत में फंस जाए, पूरी तरह उसकी पीठ दीवार से लग गई हो, तो वह क्या सोचेगा? सब घर जाना चाहते हैं ऐसे में. दर्द में हम अपनी मां को याद करते हैं. चाहे वह पहाड़गंज में फंसा कारोबारी था, या दिल्ली की लाखों जगहों पर दिहाड़ी करने वाले मजदूर. गांव में क्या है जो उन्हें बचा लेता ? गांव में उनका राशन कार्ड है, गांव में शायद उसे कम पैसे पर ही मज़दूरी मिल जाती और रोने के लिए कंधे भी मिलते. पहला मौका मिलते ही ये लोग अपने घर, गांव, देश लौटना चाह रहे थे. ये ख़बर सरकार को लॉकडाउन लगाते वक़्त भी नहीं थी और उसके पंद्रह दिन बाद जब बांद्रा में लोग इकट्ठे हुए तब भी नहीं. तारतम्य की कमी केंद्र और राज्य सरकारों में सरकार की अपनी एजेंसियों के बीच हर जगह दिखलाई पड़ी. कई सारे मंत्री-गण अजीबोग़रीब संदेश ट्विटर पर जारी कर मिटाते रहे. कई झूठ सच बनकर तैरते रहे. कई बातें सरकारी स्तर पर ऐसी कही गईं, जो सच नहीं थी.
इस कारोबारी और इन सारे लोगों को ये समझने में देर नहीं लगी कि उनके साथ कोई नहीं है. इंडिया में उनकी गिनती कहीं नहीं थी, न छत, न रोज़गार, न रोटी और घर जाने के लिए कोई रेल या बस भी नहीं थी. बस्तों के पास एक ही चारा था. पैदल जाने का. कुछ के पास साइकल भी थी और रिक्शे भी.
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ये तकलीफ़ कितनी अधिक रही होगी, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि देश ने पहली बार प्रधानमंत्री को देश के नाम संदेश में माफ़ी मांगते देखा. इसके पहले चाहे लोगों को जितनी भी तकलीफ़ हुई हो, भले ही वह नोटबंदी के समय हो या कश्मीर का शटडाउन या एनआरसी या फिर दिल्ली दंगों का वक्त, किसी ने न खेद जताया था, न कोई सहानुभूति दिखलाई थी. इसके पीछे ये अदम्य भरोसा काम करता है कि डंडा दिखाकर, डराकर, आप लोगों से कुछ भी करवा सकते हैं. लॉकडाउन तो पूरी दुनिया में हुआ था. सिर्फ़ भारत में तीन घंटे के नोटिस में ऐसा हुआ था. इतना कड़क बनने से कोई समाधान होता तो अच्छी बात थी, पर उससे समस्या बढ़ी ही.
भारतीय जनता को लेकर सरकारी एजेंसियों का रवैया अंग्रेजों के समय से ही ऐसा है कि वह सौतेली है और जो लाट साहब या कोतवाल कहेगा, उसी की तामील होगी. सत्ता ऊपर से फ़ैसला सुनाएगी और वही लागू करवा दिया जाएगा. लोगों को इसमें सशक्त नहीं किया जा रहा है, उन्हें भरोसे में भी नहीं लिया जा रहा है. उनसे संवाद क़ायम करके एक तरह की साझेदारी नहीं स्थापित की जा रही है. सरकार खुलेआम एक के ख़िलाफ़ दूसरे को जासूसी करने के लिए प्रोत्साहित कर रही है. सरकार के दरबार में जनता शक के कठघरे में है, जिससे बाहर आने के लिए उसे तरह-तरह के हलफ़नामे पेश करने होंगे कि हांका लगाकर जनता के साथ जो चाहे किया जा सकता है. ख़ास तौर पर अगर वह हाशिये पर खड़े हों.
ज़मीन से उठती प्रजा, आसमान से आता तंत्र
वर्तमान सरकार सप्लाई साइड अर्थशास्त्र की मानसिकता से प्रेरित है. सप्लाई साइड मानसिकता प्रतिक्रियावादी होती है ना कि जवाबदेही और दूरदर्शिता वाली. सरकार को लगा कि एक हांका लगाने और लाठी घुमाने से सारे समाधान निकल आएंगे और शायद अपने आप ही, पर बहुत सारे लोग इंडिया और भारत के बीच की चक्की में फंस गये. उनके तमाम हित नज़रअंदाज़ किये जाते रहे, चाहे सेहत को लेकर हो, शरण को लेकर, आश्वस्ति को लेकर. वे अभी तक इस देश और इसके नीति-निर्माताओं के लिए अदृश्य आबादी थी. पता नहीं कैसे एक साथ सबके सामने आ गये.
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प्रजातंत्र में सरकार जनता के लिए होती है ना कि जनता सरकार के लिए. टॉप डाउन और हांका मानसिकता से ग्रस्त सरकार ये ख़्याल नहीं रख सकी. जो सरकार अभी तक शौचालयों की वास्तविक और काल्पनिक संख्याओं को लेकर ख़ुद को शाबाशी दे रही थी, वह सरकार देश के उन करोड़ों लोगों के बारे में नहीं सोच सकी, जो भूखे हैं और जो इस गड्ढे में जाती अर्थव्यवस्था के सबसे पहले और सबसे ज़्यादा शिकार हो रहे हैं. जब देश और दुनिया में ठीकठाक जगहंसाई होने लगी, तो तबलीगी जमात के नाम पर उसको साम्प्रदायिक जामा पहना दिया. भले ही इसी दौरान प्रधानमंत्री के निर्देशों की अवहेलना करते हुए एक मुख्यमंत्री ने अयोध्या में समारोह किया और दूसरे ने सत्ता हथियाने के बाद विजय जुलूस निकाला.
सबसे ज़्यादा लॉकडाउन का उल्लंघन भारत में उन्हीं लोगों ने किया जो रसूखदार समझे जाते रहे हैं. कुछ फंसे हुए लोगों के लिए लग्ज़री बसों के इंतज़ाम किये गये, कहीं पुलिस उनपर लाठियां बरसाती नज़र आईं, कहीं स्वास्थ्य कर्मियों को भारी असुरक्षा के बीच कोरोना से लड़ने कि लिए झोंक दिया गया.
जंग के समय हमारा जनरल कैसा हो
ये साफ़ देखा जा सकता है कि जहां एक बड़ी रणनीति की ज़रूरत थी. सरकार वहां पंक्चर की दुकान की तरह बर्ताव करती नज़र आई, न समन्वय दिखा, न संवाद, न पारदर्शिता, न जवाबदेही, न गंभीरता. फ़ैसले बदलते चले गये, पारदर्शिता से बचा गया, राज्यों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया.
यहां तक कि राहत का चंदा किस तरह से कहां दिया जाए, उसमें भी बंदरबांट का आभास पैदा होता रहा. केरल जैसे राज्य से, जहां सबसे अधिक तत्परता के साथ कोरोना के संक्रमण पर अंकुश कसा, बाक़ी राज्य या केंद्र कोई सीख लेते नहीं दिखलाई दिये.
अगर भारत कोरोना के ख़िलाफ़ जंग लड़ रहा है, तो हमें देखना होगा कि हमारा जनरल कैसा है? क्योंकि ये जंग बहुत सारे देश लड़ रहे हैं, इसलिए हम देख सकते हैं कि उनके जनरल इस जंग को कैसे लड़ रहे हैं. वे कैसे लोगों को आश्वस्त कर रहे हैं, किस तरह के पैकेज दे रहे हैं, किस तरह संवाद कर रहे हैं, किस तरह समन्वय कर रहे हैं. भारत ये जंग बहुत बेमन से लड़ रहा दिखलाई देता हो तो शायद इसलिए कि वह इसके लिए तैयार ही नहीं है, या उसे लगता है कि बिना सबको शामिल किये बिना उनका यक़ीन जीते ऐसा किया जा सकता है. इस जंग को लड़ते हुए देश बहुत बंटा हुआ है और गुस्से, नफ़रत, कट्टरता और अपने-पराये की समस्या से जूझ रहा है. इस आग को बुझाने की कोशिश तो दूर, ख़ुद सत्तारूढ़ पार्टी के लोग, सरकारी एजेंसियों के ज़िम्मेदार ओहदेदार इसे हवा देते दिखलाई दे रहे हैं.
इंडिया से निकलकर भारत की तरफ़ हो रहा ये लांग मार्च अभी भी जारी है. चाहे दिल्ली से हो या मुम्बई से या सूरत से. कोरोना तो चला जाएगा, पर इंडिया और भारत के बीच का फ़ासला और दुरूह, थकाऊ, कंटीला और तकलीफ़देह होता चला जाएगा.
(निधीश त्यागी वरिष्ठ पत्रकार हैं और अजय ब्रमहे सुप्रीम कोर्ट में वकील हैं. यह लेख इनका निजी विचार है)
बाहर देशो से जो लोग कारोबार के लिए आते है , वह ज्यादातर मुम्बई दिल्ली बेंगलोर शहर आते है । कोरोना का ज्यादा असर इन्ही शहरों में दिख रहा है । देश के मजदूर भी इन्ही शहरों में ज्यादा है । उन्हें लॉक्डडाउन की सूचना दी जाती तो भगदड़ मच जाती और किसी की टेस्ट की सुविधा न होने के कारण ये मजदूर गांव गांव करोना पहुंचा देते , फिर और ज्यादा जाने जाती । मोदी से नफरत के कारण आपको इन गरीबो की और गांव के लोगो के जान जोखिम की कोई चिंता नही दिख रही है ।