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Wednesday, 20 November, 2024
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कोविड भारत में अभी वायरल नहीं हुआ पर देश और दुनिया में कुछ लोग सच्चाई को स्वीकार नहीं कर पा रहे

भारत कोई पिकनिक नहीं मना रहा है मगर ऐसा भी नहीं है कि यहां लाशों के ढेर लग रहे हैं, अस्पतालों में मरीजों को बिस्तर की कमी पड़ रही है, श्मशानों में लकड़ी की या कब्रिस्तानों में जगह की कमी पड़ रही है.

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कोरोना के इस दौर में हम फिल्मों की बात क्यों करने लगे हैं, विशेष रूप से न तो आउटब्रेक न ही कंटेजियन है ? हां, हम 1992 की क्लासिक फिल्म ‘अ फ़्यू गुड मेन’ को याद कर सकते हैं. इस फिल्म के कुछ यादगार संवादों में एक यह भी था- ‘आप सच का सामना नहीं कर पाएंगे!’ यह संवाद अदालत में जिस पात्र (जैक निकोल्सन द्वारा अभिनीत) के लिए बोला गया था वह टॉम क्रूज़ द्वारा अभिनीत पात्र से किसी बदनुमा और असुविधाजनक सच को छिपाने की कोशिश कर रहा था और क्रूज़ के सवालों के जवाब में उसने यह संवाद बोला था, जो काफी मशहूर हो गया था.

इस सप्ताह हम इस सवाल को अलग तरह से उठा रहे हैं. क्या हम यह सवाल उठा सकते हैं कि भारत में कोरोना संकट के जितना गंभीर रूप लेने की आशंका की थी वैसा नहीं हुआ है, इसलिए आप इस सच का सामना नहीं कर पा रहे हैं?
बेशक, भारत कोई पिकनिक नहीं मना रहा है. पूरा देश लॉकडाउन में बंद है, जिसे यहां दूसरे देशों के मुक़ाबले कहीं ज्यादा सख्ती से लागू किया जा रहा है, भले ही उसके अपने नतीजे भी सामने आ रहे हैं. अर्थव्यवस्था ठप है, रोजगार खत्म हो रहे हैं, कई क्षेत्रों में लोग भूख और गरीबी से त्रस्त हैं.

फिर भी, जो सच दुनिया भर के पंडितों को पच नहीं रहा है वह यह है कि नामी-गिरामी विश्वविद्यालयों से फ़ैन्सी डिग्रियां ले चुके कई ज्ञानियों ने जो दावे किए थे उसके विपरीत कोरोना से भारत में अब तक करोड़ों-लाखों तो क्या हजारों की तादाद में भी लोग नहीं मरे हैं. उन सबको झूठा ठहराने के लिए क्षमायाचना!

हमारे यहां लाशों के ढेर नहीं लगे. हमारे अस्पतालों में मरीजों के लिए बिस्तर की कमी नहीं हुई. हमारे श्मशानों में लकड़ी या कब्रिस्तानों में जगह की कमी नहीं पड़ी. क्रिकेट के मैदान जितना बड़ा भी भारत का कोई टुकड़ा नहीं है जिसकी तुलना आप 1918 की भयानक स्पेनिश फ्लू महामारी से ग्रस्त हुए क्षेत्र से कर सकें. 2020 के भारत को आप बेशक ‘परफेक्ट’ नहीं कह सकते, लेकिन वह बीते दिनों वाले भारत से कोसों आगे निकल चुका है.

इस अच्छी खबर का होना और अपेक्षित बुरी खबर का न होना ही वह सच है जो विश्व समुदाय और खुद भारत के अंदर के कई लोगों के गले नहीं उतर रहा है.

एक बार फिर हम एनआर नारायणमूर्ति के इस शाश्वत ज्ञान का सहारा लेते हैं- ‘हम ईश्वर में विश्वास रखते हैं. बाकी आप लोग आंकड़ों में.’

कोविड-19 संकट पर भारत सरकार की दैनिक ब्रीफिंग की अक्सर इस बात के लिए आलोचना की जाती है कि उसमें अस्पष्टता होती है, जानकारियों की कमी होती है और एस मिनिस्टर वाले अंदाज में नौकरशाही बहाने किए जाते हैं और घालमेल होती है. जो भी हो, यह एक तरह के आंकड़े तो देती ही है. आप उन पर संदेह कर सकते हैं लेकिन उनका खंडन करने के लिए आपको कहीं से तथ्य तो लाने ही पड़ेंगे.

लेकिन ब्रूकिंग्स इन्स्टीट्यूशन की शामिका रवि इन आंकड़ों पर रोज नज़र रखती हैं और बेहद सूचनाप्रद चार्ट जारी करती हैं, जिन्हें आप यहां उनके ट्वीटर हैंडल पर देख सकते हैं. उनका एक मुख्य चार्ट दिखाता है कि भारत में कोरोना संक्रमण 23 मार्च तक किस तेजी से बढ़ा और इसके बाद घटने लगा, खासकर तब जब कि तबलीगी जमात के कारण बढ़े मामलों का हिसाब अप्रैल के प्रारम्भ होने तक लगा लिया गया था. कोरोना के मामले पहले तीन दिन में दोगुने हो रहे थे, फिर पांच दिन में दोगुने होने लगे, फिर चार दिन में दोगुने होने लगे (जमात के कारण), और अब वे आठ दिन में दोगुने होने लगे हैं. रवि के चार्ट यह भी बताते हैं कि अगर लॉकडाउन न किया जाता तो संक्रमण के मामले आज जितने हैं उससे नौ गुना ज्यादा होते. यह हिसाब आप मौतों और पॉज़िटिव टेस्ट के मामलों पर भी लागू कर सकते हैं. मौतों का प्रतिशत 3.4 रहा है, तो पॉज़िटिव टेस्ट के मामलों का प्रतिशत 4.1 है.


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आप सवाल उठा सकते हैं कि यह कैसे हो सकता है? क्या सरकारी आंकड़ों पर भरोसा किया जा सकता है? तो दूसरे स्रोतों को खंगालिए, जैसा हमने किया है.

सार्वजनिक स्वास्थ्य समुदाय के चहेते विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) ने जो आंकड़े दिए हैं उनके मुताबिक भारत में आज कोविड के मामले सात दिनों में दोगुने हो रहे हैं. यूरोपियन सेंटर फॉर डीजीज़ कंट्रोल ने भी यही आंकड़ा बताया है. और खुशी की बात यह है कि कयामत की भविष्यवाणी करने वालों की चहेती जॉन्स हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी भी कह रही है कि भारत में आज मामले आठ दिनों में दोगुने हो रहे हैं. गौरतलब है कि इन भविष्यवक्ताओं ने इस यूनिवर्सिटी का ‘लोगो’ इस्तेमाल करते हुए कहा था कि भारत में इस महामारी से लाखों लोग मरेंगे, और उस ‘लोगो’ का दुरुपयोग करने के लिए उनकी निंदा की गई थी.

इसके बाद भी आप कह सकते हैं कि यह आंकड़ा इतना अच्छा है कि यह सच नहीं हो सकता कि संयुक्त राष्ट्र के आला संगठन से लेकर अग्रणी यूरोपियन संस्था और दुनिया भर में सम्मानित यूनिवर्सिटी तक सब-के-सब मोदी सरकार से मिले हुए हैं. आप शायद सही भी हो सकते हैं, लेकिन हम फिर से नारायणमूर्ति के शाश्वत ज्ञान का सहारा लेते हैं- अगर आप खुद को ईश्वर नहीं मानते, तो आंकड़े लाइए.

मैं अपने ज़्यादातर समय में, खासकर लॉकडाउन के दौरान, कोरोनावायरस के बारे में दुनिया भर में उपलब्ध सामग्री को पढ़ता-देखता रहा हूं. प्रायः हर दो दिन पर कोई-न-कोई ऐसी खबर या लेख सामने आते हैं जो तीन बातों को रेखांकित करते हैं या तोहमत लगाते हैं- एक तो यह कि भारत आंकड़ों को जरूर छिपा रहा है. इस तरह की ओछी टिप्पणी कभी कभार टीवी पर चर्चाओं के बीच सुनी जाती है. दूसरे, यह कि इस वायरस से सबसे ज्यादा नुकसान भारत को होगा और वहां जल्दी ही लाखों लोग निश्चित ही मारे जाएंगे. तीसरे यह कि भारत के मीडिया वालों और मोदी सरकार में मिलीभगत है या हम मीडिया वालों को इतना डरा दिया गया है कि हम सच नहीं बोलेंगे.

हकीकत तो यह भी है कि हमारे सारे रिपोर्टर आंकड़ों के उन स्रोतों को काफी संदेह से देखते रहे हैं, ताकि यह साबित किया जा सके कि सरकारी आंकड़े सच से बहुत दूर हैं या उनके साथ चीन/उत्तर कोरिया शैली में घालमेल किया जाता है, लेकिन हमें गैर-भाजपा शासित तमाम राज्यों में भी अस्पतालों, निगरानी तंत्र से प्राप्त आंकड़ों में ऐसे तथ्य नहीं मिलते. भारत में स्वास्थ्य सेवा राज्य का विषय है.

एक आसान रास्ता वह है जिसे बीबीसी ने अपनाया. उसने इस सप्ताह के शुरू में एक खबर चलाई जिसमें मुंबई के एक अनाम अस्पताल के अनाम डॉक्टरों के हवाले से दावा किया गया कि बड़ी संख्या में लोग श्वास तंत्र की विफलता के कारण मर रहे हैं लेकिन न तो उनकी कोविड जांच की गई और न ही उन्हें इसका शिकार बताया गया. क्या बीबीसी ऐसी खबर ब्रिटेन या ऐसे किसी देश के बारे में दे सकता है, जहां मनुष्य के जीवन के साथ चलताऊ ढंग से नहीं बल्कि ज्यादा सम्मानजनक व्यवहार किया जाता है ? लेकिन भारत तो ‘भूखा-नंगा’ देश है, उसके बारे में वह खबर खबर क्या हुई जिसमें लाखों लोगों के मरने की बात नहीं की गई, खासकर तब जबकि ब्रिटेन, इटली, स्पेन अमेरिका में मौत के आंकड़े हजारों में पहुंच चुके हों? बशर्ते आप एक जमाने के हमारे महान राष्ट्रीय लेखाकार सरीखे न हों, जो काल्पनिक नुक़सानों को भी अधिकृत गिनती में शामिल कर लेते थे.

किस्मत से, अब तक की सच्चाई यह है कि यह उस तरह का ‘खेल’ नहीं है. मैं इस खबर को लेकर कोई शर्त नहीं लगा रहा कि यह संकट कल को और गंभीर हो सकता है, खासकर लॉकडाउन खत्म होने के बाद. लेकिन हम अभी से ही यह मान कर नहीं चल सकते.

दुनिया के इतिहास में किसी और महामारी ने इतना ध्रुवीकरण नहीं किया था जितना कोरोना ने किया है. पहले तो इसने दुनिया को इस मुद्दे पर ध्रुवीकृत किया कि इस वायरस का स्रोत चीन है और यह डिप्टी सुपरपावर कतई नहीं चाहता कि कोई यह बात कहे. दूसरे, यह कि उदारवादी समुदाय जिन दो ग्लोबल लीडरों, डोनाल्ड ट्रंप और बोरिस जॉनसन से नफरत करता है उन्होंने इस संकट का सामना करने में कमजोरी दिखाई. तीसरे, अपने यहां इसलिए कि नरेंद्र मोदी को भी उन्हीं अक्खड़ बंधुओं में शामिल माना जाता है. इस रोग ने हमारा इस कदर राजनीतिकरण कर दिया है कि 80 साल पुरानी क्लोरोक्वीन जैसी दवा भी झगड़े की जड़ बन गई क्योंकि ट्रंप ने इसकी मांग की और मोदी ने उनकी मांग मान ली.


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जरूरी नहीं कि सभी खबरें उतनी ही रसीली हों जितनी आप उम्मीद करते हैं. वह ज़माना बीत चुका जब गरीब देशों में हुई जन त्रासदी को बढ़ाचढ़ाकर, कथा-कहानी बनाकर पेश करना आसान था. भारत बेशक गरीब है, मगर 2014 के बाद ऐसा नहीं हो गया है कि उसका मीडिया, उसकी सिविल सोसाइटी और सबसे अहम उसके नागरिक मानसिक और आध्यात्मिक रूप से उत्तर कोरिया या चीन वाली हालत में पहुंच गए हैं कि वे अपने चारों ओर देशवासियों की मौतों से बेखबर बने रहें या उनकी सरकार पर विश्वास कर लें, जो यह दावा करती है कि कोरोना ने किसी को शिकार नहीं बनाया, या कि मौतों के आंकड़े में बस थोड़ी सी गलती हुई है, मसलन वह वुहान में हुई मौतों से 50 प्रतिशत कम है.

किस्मत से, भारत को विश्व जनमत को प्रभावित करने वालों, खासकर फाउंडेशनों के असर में रहने वाले हेल्थ माफिया की इस तरह की क्रूर एवं आपराधिक ज़्यादतियों से हाल में ही सामना हुआ है. ये कड़े बोल हैं, लेकिन जिन लोगों ने एकमत होकर यह घोषणा कर दी थी कि भारत में एचआइवी के मरीजों की संख्या 57 लाख है और बढ़ती जा रही है, उनके लिए लल्लोचप्पो वाली भाषा क्यों इस्तेमाल की जाए? 2007 की गर्मियों तक, जब ‘लैंसेट’ में प्रकाशित एक शोध ने उथलपुथल कर दिया. तब यूएनएड्स से लेकर डब्लूएचओ तक तमाम अमीर फाउंडेशन ने अपनी आंकड़े सुधारे और इसे 25 लाख बताया. यानी भारत के मामले में 128 प्रतिशत की अतिशयोक्ति की गई थी. इसके बाद से भारत के इन आंकड़ों में गिरावट आती गई है. आप प्रतिष्ठित ‘न्यू यॉर्क टाइम्स’ में दो खबरें पढ़ सकते हैं कि इस कारगुजारी में शामिल हरेक शख्स ने किस तरह चुपचाप कदम वापस खींचे और आंकड़ों को बदला. लेकिन किसी ने खेद तक नहीं जताया.

कुछ सम्मानित भारतीयों ने शिकायत की. राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन ‘नाको’ के मुखिया रहे एसवाइ कुरेशी ने 2005 में, और उनसे पहले 2002 में स्वास्थ्य मंत्री रहे शत्रुघ्न सिन्हा ने तब शिकायत की थी जब बिल गेट्स एड्स नियंत्रण के लिए 10 करोड़ डॉलर के अनुदान के साथ भारत आए थे और यह आशंका जताई थी कि 2010 तक भारत में एड्स के 2-2.5 करोड़ मामले हो सकते हैं. उन दोनों की शिकायतों की अनदेखी कर दी गई.

उस अनुदान का लाभ तमाम लोगों ने उठाया जिनमें हमारे नौकरशाह, सामाजिक कार्यकर्ता, स्वास्थ्य सेवा से जुड़े तमाम एनजीओ शामिल थे, जो ‘सेव’ इंडिया की ‘शराब-चीज़ मिश्रित’ मुहिम में शामिल हो गए थे. वे सब पीछे हट गए. लेकिन उन्होंने जो नुकसान पहुंचाया वह केवल दार्शनिक नहीं बल्कि वास्तविक था. भारत में एड्स के हॉलीवुडीकरण ने ज्यादा वास्तविक मसलों से ध्यान को भी भटकाया और संसाधनों को भी दूर किया. उदाहरण के लिए टीबी जैसे रोग से.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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5 टिप्पणी

  1. Sir apko Salam..sir aapse isi trah ke lekh ki ummiid hai…or apne is ummid ko pura kiya….bhut hi achi jankari di…..sir ap isi trah se sahi jamkari logo ko dijiy…..Meri nazro Mai aapke liy samman badta ja Raha hai…ap ab Jake Bharat desh ke bare Mai reporting Kar rahe hai….iske liy thanks

  2. लड़ाई अभी लम्बी हैं और आपको इतनी जल्दी नतीजे निकाल पीठ थपथपाने की जल्दी क्यों ?
    आप पत्रकार कम सरकारी प्रवक्ता की तरह जनता पर राय थोपना चाह रहे हैं.
    क्षमा चाहूँगा लेकिन आपके 2-3 article यही कहानी बयां कर रहे हैं

  3. It probably first article which i liked and found perfectly balanced views.
    Congratulations the print.

  4. काफी रोचक और तथ्यपरक जानकारियाँ प्रस्तुत की गई हैं ।
    बहुत बहुत धन्यवाद

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