‘बीमार पड़ने के लिए तुम्हें किसी बीमार आदमी के संपर्क में आना पड़ेगा…. लेकिन दहशत में आने के लिए बस एक अफवाह या टेलीविज़न या फिर इंटरनेट के संपर्क में आना ही काफी होगा.’ यह डायलॉग है 2011 की हॉलीवुड फिल्म ‘कंटेजियन’ के एक किरदार, अमेरिकी ‘सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल ऐंड प्रिवेंसन’ के डिप्टी डाइरेक्टर डॉ. एलिस शीवर का, जिसकी भूमिका लॉरेंस फिशबर्न ने निभाई थी. इस एक डायलॉग के कारण भी आप इसे आज कोरोनावायरस के संदर्भ में एक भविष्यदर्शी फिल्म कह सकते हैं.
इस फिल्म के निर्देशक स्टीवन सॉडरबर्ग आज अगर इसकी अगली कड़ी बनाते तो डॉ. शीवर का डायलॉग कुछ इस तरह होता— ‘कोरोनावायरस को डराकर भगाना है तो टीवी पर या इंटरनेट पर किसी भाजपा नेता के संपर्क में आओ.’
डॉ. शीवर के लिए ऐसा डायलॉग बोलने की वजह भी होगी. भाजपा हमें यह एहसास करा रही है कि कोरोनावायरस को उसके मंत्रियों और नेताओं द्वारा गिनाए जा रहे आंकड़ों के बोझ से कुचला जा चुका है—20 लाख करोड़ का (आर्थिक/राजनीतिक/मनोवैज्ञानिक) पैकेज; 80 करोड़ लोगों के लिए अनाज; 1.25 करोड़ प्रवासी मजदूरों को सुरक्षित उनके घर पहुंचाया गया जिसका ‘80 प्रतिशत ट्रेन भाड़ा केंद्र सरकार ने दिया’; 130 करोड़ लोगों ने वायरस को भगाने के लिए ताली-थाली बजाई.
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ये तो नादान लोग हैं जो ‘दुनियावी’ किस्म के आंकड़ों को लेकर क्षुब्ध हो रहे हैं कि मौतों का आंकड़ा 10,000 को छू रहा है, कि रोज 12,000 के करीब लोग कोरोना पॉजिटिव निकल रहे हैं, कि बेरोजगारी दर 23 प्रतिशत पर पहुंच रही है, कि ऋणात्मक आर्थिक वृद्धि की भविष्यवाणी की जा रही है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बयानों-भाषणों में, या स्थिति सामान्य दिखाने के लिए की जा रही वर्चुअल रैलियों में भाजपा नेताओं के भाषणों में क्या आपने कभी इन आंकड़ों की कोई चर्चा सुनी?
उनके भाषणों में तो सीमा पार किए जा रहे सर्जिकल स्ट्राइक, नागरिकता संशोधन कानून (सीएए), अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के ही जिक्र होते हैं. कोविड-19 का चलताऊ जिक्र हुआ लेकिन वह भी यह बताने के लिए कि इस मामले में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कितना मजबूत, और निर्णायक नेतृत्व दिया है. एक वायरस दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी को राजनीति करने से भला कैसे रोक सकता है?
भाजपा: सच से पहले, सच के बाद की राजनीति
मोदी सरकार के 6 साल पूरे होने पर 30 मई को गृहमंत्री अमित शाह ने एक अखबार में अपने एक लेख में लिखा— ‘भारत सही समय पर लॉकडाउन लगाकर कोरोना को फैलने से रोकने में काफी हद तक सफल रहा है.’ यह ‘सच से पहले की राजनीति’ का मंत्र है. ‘सच से पहले का सच’ क्या होता है, यह जानने के लिए अगर आप गूगल सर्च करेंगे तो आपको बताया जाएगा कि यह एक झूठ होता है जो अंततः सच बन जाता है’. यह अधिक जटिल मामला है क्योंकि सच व्यक्ति-सापेक्ष हो सकता है, खासकर राजनीति के मामले में. इसे मैं ‘म’ और ‘स’ नाम के दो सरकारी कर्मचारियों की काल्पनिक बातचीत के जरिए समझाने की कोशिश करता हूं—
म : ये मीडिया वाले प्रवासी मजदूरों पर बहुत शोर मचा रहे हैं. इस समस्या का पहले से अनुमान लगाने में आप फेल कैसे कर गए? वे सड़कों, रेल पटरियों पर मर रहे हैं. सरकार की बदनामी हो रही है.
स: साहब, लॉकडाउन को सख्ती से लागू करना चाहिए, चाहे जो हो. इसी से तो पता चलता है कि नेता कितना मजबूत और निर्णायक है. जो भी हो, मैंने नड्डा जी से कहा है कि वे उन्हें सड़क पर पैदल चलने के लिए चप्पल दें और साबुन भी दें ताकि रात में जब वे किसी होटल में रुकें तो नहा सकें.
म : लेकिन ये मजदूर कह सकते हैं कि हम उनसे हमदर्दी नहीं रखते.
स : वे यह सब जल्दी ही भूल जाएंगे. राहुल गांधी ने उन्हें क्या दिया है?
(जून के पहले सप्ताह में एक टीवी इंटरव्यू)
टीवी एंकर : सर, आप बुरा ना मानें तो क्या मैं पूछ सकता हूं कि विपक्षी दल मजदूरों के नाम पर राजनीति खेलने में क्यों लगे हैं?
स: हां, यह दुर्भाग्यपूर्ण है. विपक्षी दल इतने असंवेदनशील हैं. वे प्रोपेगेंडा करके कोरोनावायरस से हमारी लड़ाई से लोगों का ध्यान भटका रहे हैं. हमने प्रवासी मजदूरों को उनकी सुरक्षा के लिए ही शहरों में रोके रखा. हमने उन्हें खाना, और दूसरी सुविधाएं दी, जब तक कि हमने उनके अपने राज्य में स्वास्थ्य सुविधाएं ठीक नहीं कर दी. इसके बाद हमने 1.25 करोड़ मजदूरों को उनके घर पहुंचाया और उसका 80 फीसदी खर्च उठाया. हमारी सरकार गरीबों और दबे-कुचलों के प्रति प्रतिबद्ध है.
यह है ‘सच से पहले की राजनीति’
अब जरा देखें कि ‘सच के बाद का सच’ क्या होता है. इसे समझना आसान है क्योंकि ऑक्सफोर्ड शब्दकोशों ने इसे 2016 में ही ‘वर्ष का शब्द’ घोषित करके एक बहस की शुरुआत कर दी थी. शब्दकोशों ने इसे इस तरह परिभाषित किया था- ‘सच के बाद का सच’ वह स्थिति है जब खंडन या ‘तथ्य नहीं’ बल्कि भावनाएं और व्यक्तिगत मान्यताएं जनमत को प्रभावित करती हैं.
हम नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) की उन रिपोर्टों पर गौर करें, जिनमें कहा गया है कि 2017-18 में बेरोजगारी दर पिछले 45 वर्षों में सबसे अधिक रही. इस आंकड़े को कभी मान्यता नहीं मिली क्योंकि सरकार ने इसे लोकसभा चुनावों से पहले जारी नहीं किया. केवल यह बताया गया कि मोदी सरकार के हुनर विकास एवं उद्यमिता मंत्रालय के कार्यक्रमों के तहत 70 लाख ‘हुनरमंद’ बनाए गए और उन्हें रोजगार दिया गया. इस मंत्रालय के मुखिया महेंद्र नाथ पांडे का मुख्य काम हर सप्ताह के अंत में किसी-ना-किसी बहाने प्रधानमंत्री के चुनाव क्षेत्र वाराणसी का दौरा करना रहा है. इन 70 लाख ‘हुनरमंदों’ तथा रोजगार पाने वाले लोगों का नाम-पता ढूंढ़ने की कोशिश कीजिए, आपकी उम्र बीत जाएगी. वे केवल सरकारी रेकॉर्ड में हैं, बाहर कहीं नहीं. यह मोदी सरकार के प्रथम कार्यकाल के ’सच के बाद का सच’ है, जो उसके दूसरे कार्यकाल का ‘सच के पहले का सच’ बन गया है जबकि भाजपा दावे कर रही है कि ‘स्किल इंडिया प्रोग्राम’ के अंतर्गत रोजगार के लाखों अवसर पैदा हुए हैं.
अगली बार जब आप ‘फाइव ट्रिलियन’ वाली अर्थव्यवस्था की बात सुनें, इससे पहले यह समझ लें कि ‘सच के पहले की राजनीति’ क्या होती है. मोदी, शाह, और सरकार एवं पार्टी में उनके साथी इस ‘फाइव ट्रिलियन’ वाली अर्थव्यवस्था का ढोल पीटते रहते हैं, भले ही आपका, हमारा या अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों का विचार कुछ भी हो.
लद्दाख में चीनी घुसपैठ की हकीकत बताने की मांग करने वालों का भाजपा नेता मज़ाक उड़ाते हैं. रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह कहते हैं कि उन्हें जो कहना है वह वे संसद में ही कहेंगे. अब सोशल डिस्टेंसिंग की मांग के मुताबिक संसद का अगला सत्र अगस्त से पहले शायद ही शुरू होगा. देश की जनता से कहने के लिए रक्षामंत्री के पास सिर्फ यह है कि भारत अब कोई कमजोर देश नहीं रह गया है. इसलिए इस पर गर्व कीजिए, और कोई सवाल मत पूछिए.
मोदी-शाह की ‘सच के पहले की राजनीति’ का महत्व
इन दिनों शाह के बयानों को सुनिए, आप समझ जाएंगे कि कोरोना पॉज़िटिव लोगों या इससे हुई मौतों के आंकड़े कितने बेमानी हैं. शाह इनके बारे में कुछ नहीं बोलते. भाजपा के मुखपत्र ‘कमल संदेश’ ने ‘मोदी सरकार-2.0 के एक साल’ पर 100 पेज का जो विशेषांक निकाला है उसे पढ़ जाइए, आपको इन आंकड़ों की निरर्थकता का एहसास हो जाएगा. इस पत्रिका में ‘मोदी’ शब्द अगर 467 बार, ‘आत्मनिर्भर भारत’ शब्द 85 बार आया है, तो यह अपेक्षित ही था. आश्चर्य करने वाली बात यह है कि इसमें ऐसी अज्ञात कहानियां भी हैं जो यह बताती हैं कि भारत ने पिछले छह वर्षों में कितनी तरक्की की है कि उसने स्वास्थ्य सेवा के इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास करने के मामले में अपने उपनिवेशवादी शासकों को भी कितना पीछे छोड़ दिया है.
मसलन, ‘वंदे भारत मिशन’ के तहत एअर इंडिया ने 11 मई को एक विमान में 50 ‘गर्भवती’ महिलाओं को लंदन से हैदराबाद पहुंचाया. ‘कमल संदेश’ का कहना है कि ‘लंदन में कोरोना महामारी के कारण स्त्रीरोग डॉक्टर गर्भवती महिलाओं की जांच नहीं कर रही थीं. इसलिए ये गर्भवती महिलाएं भारत लौटने को मजबूर हुईं.’ गनीमत है कि वहां के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन को एक स्त्रीरोग डॉक्टर मिल गई और उनकी भावी पत्नी ने अप्रैल में महामारी के दौरान लंदन के एक अस्पताल में एक बच्चे को जन्म दिया.
अल्पसंख्यकों के मामलों के मंत्री मुख्तार अब्बास नक़वी ने हाल के दिल्ली दंगों को एक नया रंग दिया है. इस पत्रिका में उन्होंने लिखा है— ‘गौरतलब है कि हाल के दिल्ली दंगों से पहले शाहीनबाग के धरने में यह संदेश फैलाया जा रहा था कि ‘मोदी यह जो दावा कर रहे हैं कि उनके शासन में एक भी दंगा नहीं हुआ, उस घमंड को हम चूर-चूर कर देंगे’. अगर आप उनसे या उनके निष्कर्षों से सहमत नहीं हैं, तो देखिए कि वे अपने इसी लेख में वे किन-किन नामों का जिक्र करते हैं— ‘मोदी फोबिया क्लब’, ‘मोदी निंदा क्लब’, ‘भारत निंदा ब्रिगेड’, ‘गुमराही गैंग’, ‘बोगस बैशिंग ब्रिगेड’, ‘साजिश संघ’, ‘सूडो सेकुलर सिंडीकेट’, ‘साइबर षड्यंत्रकारी’, ‘हॉरर हेट हब्बब’, वगैरह वगैरह.
नक़वी जैसे समझदार नेता को भी अगर आप यह सब करते देखेंगे, तो आप आज की भारतीय राजनीति में ‘सच से पहले’ और ‘सच के बाद’ के घालमेल में उलझने से खुद को रोक नहीं पाएंगे.
विपक्ष शासित राज्यों के खिलाफ मोदी की ‘सच से पहले की राजनीति’
सोमवार और मंगलवार को मुख्यमंत्रियों के साथ बैठकों में आप प्रधानमंत्री को केंद्र-राज्य सहयोग की जरूरत पर ज़ोर देते सुन सकते हैं. मोदी ने उनसे सलाह करके लॉकडाउन नहीं घोषित किया था लेकिन महामारी जाने का नाम नहीं ले रही है, तो राज्यों को जिम्मेवारी लेनी होगी, और दोष भी कबूलना होगा.
जहां तक मोदी की जिम्मेवारी की बात है, इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आइसीएमआर) ने फटाफट एक ‘एंटीबडीज़ सर्वे’ का नतीजा घोषित करके यह साबित कर दिया कि ‘लॉकडाउन सफल रहा’. यह, भाजपा की ‘सच से पहले की राजनीति’ के मुताबिक कोरोनावायरस से लड़ाई में मोदी सरकार की जीत है.
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अब वायरस को फैलने से रोकने में विफलता के लिए राज्यों को फटकार लगानी ही होगी. इसलिए आप देखेंगे कि दिल्ली के उपराज्यपाल अनिल बैजल ने अरविंद केजरीवाल सरकार की विफलता साबित कर दी तब मजदूरों वाले संकट और भ्रामक निर्देशों के लिए जिम्मेदार अमित शाह दिल्ली के मुख्यमंत्री की मदद के लिए दौड़ पड़े. याद कीजिए कि केंद्र की टीमों ने कोविड संकट में पश्चिम बंगाल की ममता सरकार की कुव्यवस्था के बारे में जो पत्र लिखे थे वे किस तरह टीवी चैनलों तक पहुंच गए थे, जबकि इन टीमों को गुजरात और मध्य प्रदेश के भाजपा मुख्यमंत्रियों की कुव्यवस्था नज़र नहीं आई. केंद्र ने कम टेस्ट कराने के लिए तेलंगाना की सरकार को तुरंत फटकार लगाई मगर इसी कमजोरी के लिए उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार को कुछ कहने की जरूरत नहीं समझी.
लेकिन ये सब तो ‘सच से पहले की राजनीति’ के लिए बेमानी हैं,
राजनीति के तहत मोदी सरकार को सख्त देशव्यापी लॉकडाउन के लिए श्रेय देना ही चाहिए, भले ही यह कितनी भी अनियोजित क्यों ना रहा हो. इस राजनीति का तकाजा तो यही है कि अब ‘अनलॉकिंग’ के जो नतीजे निकलें उनके लिए खास तौर से विपक्ष-शासित राज्यों को दोषी ठहराया जाए.
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(व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं.)