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Monday, 23 December, 2024
होममत-विमतकाश, अमित शाह युधिष्ठिर की तरह जवाब देते और यक्ष की भूमिका विपक्ष के लिए ही रहने देते

काश, अमित शाह युधिष्ठिर की तरह जवाब देते और यक्ष की भूमिका विपक्ष के लिए ही रहने देते

सोचिये जरा कि विपक्ष के काम में इतने रोड़े अटकाने के बाद गृहमंत्री पूछ रहे हैं कि उसने क्या किया! जैसे उन्हें कुछ भी याद न हो.

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इस विडंबना को भी जैसे कोरोनाकाल का ही इंतजार था! प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बार-बार कह रहे हैं कि कठिन कोरोनाकाल देश को नई ऊंचाइयों पर ले जाने के लिए संकट को अवसर में बदलने के साथ कड़े निर्णयों व साहसिक निवेश की जरूरत है. लेकिन उनकी पार्टी इस संकट से जुड़ी सारी चिंताओं को दरकिनार कर जिस तरह राज्यसभा व विधानसभाओं के चुनावों से जुड़ी गतिविधियों में ‘व्यस्त’ हो गई है. उससे लगता है कि देश की जरूरत कुछ भी हो, उसकी एकमात्र जरूरत अपनी चुनावी संभावनाएं उजली रखना है. फिलहाल, वह इसी एक लक्ष्य के लिए अपने सारे शरों का संधान कर रही है और कोरोना को इस एक अर्थ में ही अवसर में बदल रही है कि जब जनता की तकलीफों के मद्देनजर विपक्ष को चुनावी मोड में आते भी संकोच हो रहा है, वह अपने विजय अभियान पर निकल पड़ी है. संकटकाल में राजनीति न करने का उसका उपदेश दूसरों के लिए होकर रह गया है.

एक ओर कोरोना संक्रमण के दिन प्रति दिन नये रिकार्ड बनने से देश हतप्रभ है और दूसरी ओर भाजपा के पूर्व अध्यक्ष अमित शाह, जो गृहमंत्री के तौर पर अपनी जिम्मेदारियों को ठीक से निभाते तो दलीय राजनीति करने का अवकाश ही न पाते, ताबड़तोड़ वर्चुअल रैलियां कर रहे हैं. बिहार, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल के मतदाताओं को संबोधित उनकी ये रैलियां सार्थक हो सकती थीं, अगर वे उनमें उन सवालों को संबोधित करते, आम लोगों को जिनके जवाबों की दरकार है.

मसलन, अगर मार्च में कोरोना के कुछ सौ संक्रमण लाॅकडाउन के नाम पर सारे देश को अव्यवस्थित व हलकान कर देने का समुचित आधार थे, तो उसके तीसरे महीने तक हो चुकी आठ हजार से ज्यादा मौतें और कोई तीन लाख संक्रमण अनलाॅक 1.0 का उचित कारण क्यों हो सकते हैं? खासकर, जब इक्कीस दिनों में संक्रमण की चेन तोड़ डालने का सरकारी दावा दावा भर रह गया है, सामुदायिक संक्रमण का अंदेशा सिर पर सवार है और सरकार को महामारी की कम मृत्यु दर और 0.73 प्रतिशत आबादी के ही संक्रमित होने जैसे बेहिस ‘तर्कों’ की शरण लेनी पड़ रही है?


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लेकिन, जब देश के प्रधानमंत्री को ही असुविधाजनक सवालों का नोटिस लेने की आदत नहीं है. गृहमंत्री उनकी झंझट क्यों पालते? सो, ‘उलटे बांस बरेली को’ की तर्ज पर उड़ीसा की रैली में उन्होंने विपक्ष से ही पूछ लिया कि इस दौर में उसने क्या किया? देश के संसदीय इतिहास में इससे पहले शायद ही किसी गृहमंत्री ने विपक्ष से ऐसा सवाल पूछा हो. क्योंकि आमतौर पर सवाल पूछना विपक्षी दलों का ही काम माना जाता है, सरकार और उसके मंत्रियों का नहीं. मंत्रियों से तो देश में जो कुछ भी हो रहा है, उसकी जिम्मेदारी लेने की अपेक्षा की जाती है. अकारण नहीं कि कहने वाले कह रहे हैं कि शाह सत्तापक्ष व विपक्ष में सवाल-जवाब की नई परम्परा बनाना चाहते हैं, जिसमें सत्ता पक्ष जब चाहे, विपक्ष पर अपना गुस्सा उतार सके. उसके सवालों व सलाहों की अनसुनी तो खैर वह करता ही रहता है.

गनीमत है कि इस ‘नई परम्परा’ के निर्माण के क्रम में अमित शाह ने अपनी सरकार की कुछ विफलताओं को स्वीकारने की ‘सदाशयता’ भी दिखाई कहा कि कोरोना की महामारी से निपटने और प्रवासी मजदूरों के मुद्दे पर हमसे गलती हुई होगी, कुछ कमी रह गई होगी. लेकिन हमारी निष्ठा साफ थी, हम कहीं कम पड़ गए होंगे. कुछ नहीं कर पाए होंगे. मगर विपक्ष बताये कि उसने क्या किया?

सवाल है कि गृहमंत्री अपनी जिम्मेदारी का हिसाब विपक्ष से लेने पर आमादा हों तो वह पलटकर उन्हें कैसे बताये कि फैसले लेने के सारे हक तो उनके और उनकी सरकार के पास है और देश के लोगों ने इस हक के समुचित इस्तेमाल के लिए ही उन्हें सत्ता में बिठा रखा है? और न बताये तो कैसे पूछे कि जब तक वे सिंहासन खाली नहीं करते, वह उस पर बैठकर उनका काम भला कैसे कर सकता है? हां, चाहे तो उन्हें याद दिला सकता है कि जब उनकी सरकार प्रवासी मजदूरों की घरवापसी के लिए चलाई जा रही स्पेशल ट्रेनों के किराये को लेकर राज्य सरकारों के साथ 85 व 15 प्रतिशत के विवाद में उलझी थी, विपक्षी कांग्रेस पार्टी ने सारा किराया खुद देने का प्रस्ताव किया था, जो सरकार के गले नहीं उतरा. उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार द्वारा भी एक हजार बसें चलाने के कांग्रेस के प्रस्ताव को दुर्भावना के साथ ही लिया गया.


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थोड़ा और पीछे लौटकर देखें तो कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने फरवरी में ही कोरोना के संक्रमण के खतरे और अर्थव्यवस्था पर उसके दुष्प्रभावों से सचेत किया था, बाद में लॉकडाउन को लेकर भी कि यह केवल पॉज बटन है और कोरोना की टेस्टिंग बढ़ाने की बहुत जरूरत है. लेकिन सरकार ने उनकी किसी भी बात को गम्भीरता से नहीं लिया, उन्हें किसी भी तरह का क्रेडिट देना उसे बर्दाश्त नहीं होता. राहुल के बाद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी लॉकडाउन के बाद की रणनीति को लेकर सरकार से संवाद की कोशिश की, लेकिन सरकार ने उसमें रुचि नहीं ली.

सोचिये जरा कि विपक्ष के काम में इतने रोड़े अटकाने के बाद गृहमंत्री पूछ रहे हैं कि उसने क्या किया! जैसे उन्हें कुछ भी याद न हो. शायद विपक्ष उन्हें तभी कुछ करता दिखता, जब सरकार से सवाल पूछने का कोई मुहूर्त न ढूंढ़ पाता या मुंह पर पट्टी लगाकर आत्मनिर्भर भारत का प्रचार करता रहता. मगर जब तक देश में लोकतंत्र है, ऐसा कैसे हो सकता है?

गृहमंत्री का विपक्ष से यह पूछना तो वैसे ही है जैसे प्रवासी मजदूरों के मुद्दे पर सुनवाई के वक्त केंद्र की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने मजदूरों की ओर से सर्वोच्च न्यायालय गये याचियों से पूछ लिया था कि सरकार ने नहीं तो उन्होंने खुद श्रमिकों के लिए क्या किया? इतना ही नहीं, उन्होंने मजदूरों की दुर्दशा उजागर करने वालों की गिद्ध से तुलना कर डाली थी!

हैरत की बात है कि सवालों से चिढ़ने, उनका जवाब देने से बचने और उन्हें बेतुके प्रतिप्रश्नों व घृणाओं में उलझाने वाले ये लोग खुद को भारतीय संस्कृति का पैरोकार भी बताते हैं. काश, वे समझते कि भारत उन युधिष्ठिर का देश है, जिन्होंने जवाब देने में विफल रहे अपने छोटे भाइयों को बेहोश कर चुके यक्ष को भी उसके सवालों को लेकर झिड़का नहीं था. उसने जो भी पूछा, उसका सांगोपांग जवाब दिया था. नचिकेता ने यमराज से आत्मा के बारे में सवाल किये तो उसे भी यमराज के जवाब ही मिले थे,झिड़कियां नहीं. मंडन मिश्र और शंकराचार्य के बीच का वह शास्त्रार्थ तो बहुचर्चित ही है, जिसमें मंडन मिश्र की पत्नी उभय भारती के आखिरी सवाल के आगे शंकराचार्य को पराजय भले स्वीकारनी पड़ी थी, वे उससे भागे नहीं थे. ईमानदारी से मान लिया था कि उन्हें गृहस्थ जीवन में स्त्रीपुरुष सम्बन्धों के व्यावहारिक पक्ष का ज्ञान नहीं है.

इन मिसालों के आलोक में, यह जानते हुए भी कि जवाब नहीं ही मिलेगा, पूछना ही होगा कि क्या हमारे वर्तमान सत्ताधीशों ने खुद को शंकराचार्य से भी बड़ा और इस कारण सारे सवालों, तर्कों व आलोचनाओं से ऊपर मान लिया है? अगर हां, तो क्या वे मूढ़ता की परंपरा को मजबूत नहीं कर रहे? अगर नहीं तो वे और उनकी सत्ता के लाभार्थी अप्रिय सवालों से सामना होते ही इस कदर विवेक खोकर विपक्ष को सत्तापक्ष क्यों समझने लगते हैं?

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, इस लेख में उनके विचार निजी हैं)

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