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Thursday, 19 December, 2024
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राहुल गांधी की तीन गलतियां

राहुल गांधी अपनी गलतियों से वे सारे सबक भूल रहे हैं, जो उन्होंने अब तक सीखे थे. लेकिन भूलने की यह गति क्या थोड़ी धीमी है? और, नहीं लोकतंत्र में सत्ता कोई जहर नहीं है.

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राहुल गांधी 2013 के शुरू में जब लगातार सार्वजनिक मंच पर नमूदार हो रहे थे और सीआइआइ तक में भाषण देकर यह संकेत दे रहे थे कि राजनीतिक अर्थव्यवस्था को लेकर उनके विचार विकसित हो रहे हैं, तब मैंने अपने स्तंभ ‘नेशनल इंटरेस्ट’ में 6 अप्रैल 2013 को इसके बारे में लिखा था.

इस सप्ताह सार्वजनिक मंचों पर राहुल गांधी पहली बार जिस तरह प्रकट हुए, उसके बारे में आपके चाहे जो भी विचार हों, आप यह जरूर मानेंगे कि उन्होंने अपने व्यक्तित्व के आकर्षक आत्म-निंदक चेहरे को प्रस्तुत किया. सो, अगर वे अपने ऊपर हंसने का साहस रखते हैं, तो अब जबकि वे सांसद के तौर पर दस साल पूरे करने जा रहे हैं, क्या वे अपनी अब तक की राजनीति पर मनन करने को भी तैयार हैं? अगर वे ऐसा करते तो उन्हें वे गलतियां दिख जातीं, जो उन्होंने की हैं.

चूंकि हम अभी यह नहीं समझ पाए हैं कि उनके दिमाग में क्या चल रहा है, यहां हम वह सूची प्रस्तुत कर रहें हैं जिन्हें संभवतः उनके राजनीतिक जीवन की तीन गलतियां (चेतन भगत माफ करेंगे) कहा जा सकता है. सो, पहले उनकी पहली दो गलतियों का ज़िक्र, और बाद में तीसरी का.

पहली तो यह कि 2010 में बिहार विधानसभा के चुनाव में वे एक स्पष्ट संदेश लेकर प्रचार करने गए थे, जिसका मैं यहां विवरण प्रस्तुत करने की छूट ले रहा हूं- दशकों से भारत दो हिस्सों में बंटता गया है. एक तो चमकता भारत है और दूसरा फिसलता भारत है. इस फर्क को मिटाने का अब समय आ गया है. राहुल का यह संदेश कारगर नहीं रहा, यह इस तथ्य से जाहिर है कि 243 में से 221 सीटों पर कांग्रेस अपनी ज़मानत भी नहीं बचा पाई और मात्र चार सीटें जीत पाई. तभी तो उसे नैनो-कार पार्टी तक कहा जाने लगा था. उसकी यह बदहाली क्यों हुई, यह समझना हो तो राहुल की एक रैली में आए एक गरीब, मगर राजनीति के जानकार (जैसे कि बिहार में खूब पाए जाते हैं) किसान की बातें सुनिए.

अपनी लाठी के सहारे जमीन पर उकड़ूं बैठे उस किसान का कहना था, ‘‘वे कहते हैं कि दुइ भारत बन गया है.’’ मैंने उससे पूछा, ‘‘इस पर आप क्या सोचते हैं?’’ उसका जवाब था, ‘‘हम तो कहते हैं साहब, कि आजादी के बाद 60 साल बीत चुके हैं, जिसमें 53 साल तो आपने ही राज किया और दो भारत बना दिया.’’ इसके बाद उसके आंखों में वह चमक उभरी, जो गरीब भारतीयों में केवल चुनावों के दौरान उभरती है, और उसने आगे कहा, ‘‘हम तो कहते हैं साहब, कि अगर हमने आपको पांच साल और दे दिए तो क्या पता आप तीन भारत भी बना डालें.’’

इसके बाद राहुल ने अगली गलती 2012 में उत्तर प्रदेश के चुनाव में बेहद आशावादी लहजे में अभियान शुरू करते हुए यह की कि उन्होंने अपेक्षा और आकांक्षा के मतलब ठीक से समझने में भूल कर दी. उन्होंने बयान दे दिया कि यह बेहद दुर्भाग्य की बात है कि इस राज्य के लोगों को मामूली रोज़गार के लिए मुंबई-दिल्ली जैसे बड़े शहरों में जाना पड़ता है. इसे स्पष्ट करने के लिए उन्होंने दिल्ली मेट्रो में काम कर रहे उत्तर प्रदेश के एक प्रवासी का उदाहरण प्रस्तुत किया, जिसे कठोर जीवन जीना पड़ता है क्योंकि अपने राज्य में उसे रोज़गार नहीं मिलता. उनके द्वारा प्रस्तुत समाधान यह था कि नरेगा का दायरा बढ़ाया जाए और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बेहतर बनाया जाए तो यही लोग अपने गांव-घर से पलायन नहीं करेंगे. फिर से ज़रा सुनिए कि उनकी जनसभा में आया एक व्यक्ति क्या कह रहा है- ‘‘हम लोगों को दिल्ली मेट्रो में मजदूरी करने पर रोज़ाना 300-400 रुपये के बीच मजदूरी मिलती है. आप यहां रोज़ाना 150 रुपये में जीवन गुजार सकते हैं, बाकी पैसा अपने घर भेज सकते हैं ताकि आपके बच्चे अच्छे स्कूल में पढ़ सकें. इसलिए हम लोग तो दिल्ली-मुंबई जाकर काम करना ही पसंद करेंगे. कांग्रेस वालों से ही कहिए कि वे 365 दिन गांव में रहकर नरेगा में काम करें.’’ उसकी इन बातों की पुष्टि बाद में राज्य के चुनाव परिणाम ने कर दी.

हो सकता है कि उत्तर प्रदेश में भारी विफलता ने कांग्रेस के भीतर ईमानदार मूल्यांकन की प्रेरणा दी हो. इसी झटके ने उसे खुदरा कारोबार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) का जनसभा में खुलकर समर्थन करने को मजबूर किया हो. यह पहला मौका था जब उसने मुक्त बाज़ार या (अतीत में सोवियत खेमे के सिवा) किसी विदेशी चीज का समर्थन किया. निश्चित रूप से इसी के चलते प्रधानमंत्री अर्थव्यवस्था पर फिर से ध्यान देने को मजबूर हुए. और, हम अभी कह नहीं सकते कि इस झटके के असर को समाप्त करने की कोशिश करने में बहुत देर हो चुकी है या नहीं. बहरहाल, महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि कांग्रेस पार्टी की आर्थिक-राजनीति की भावी दिशा तय की जा रही है. और उसके गहरे गुलाबी रंग को कुछ हल्का किया गया है.

राहुल ने सीआइआइ में जो 70 मिनट बिताए उससे हमें क्या उनमें आ रहे स्वागतयोग्य बदलव की झलक मिलती है?

हिंदी हृदय-प्रदेश में तो वे गलती कर बैठे. पहली गलती उन्होंने यह कि अपेक्षाओं में वृद्धि की गहराई को वे नाप नहीं सके, न ही उसके अर्थ और भावी परिणामों को समझ सके. इस दशक में, इस निराशाजनक हृदय-प्रदेश में भी अपेक्षाएं सिर्फ तीन जून का खाना या रोज सौ-दो सौ कमा लेने तक सीमित नहीं रह गई हैं. बिजली, स्कूल, रोज़गार, गरिमापूर्ण जीवन, भौतिक सुख-सुविधाएं, मोबाइल फोन, केबल टीवी तक अपेक्षाओं में शामिल हो गई हैं. बुंदेलखंड के किसी गांव बिना रोजी-रोटी के जीने की जद्दोजहद में जुटे व्यक्ति के लिए दरबान तक की नौकरी करने के लिए बड़े शहर में पलायन भी कुछ सीढ़ी ऊपर चढ़ने जैसा है. यह कोई शर्म की बात नहीं है. तेजी से विकास कर रहे भारत में पसीने की कमाई खाने वालों को भी अपेक्षाएं रखने का अधिकार है.

ऐसा लगता है कि राहुल अब इस बौद्धिक खाई को पार कर चुके हैं. उनके भाषण में सबको साथ लेकर चलने का जुमला तो था ही, अधिकार-केंद्रित न्यूनतम रोज़गार गारंटी कार्यक्रम का गुणगान भी था लेकिन उनका मुख्य जोर लोगों को सक्षम बनाने और उनमें उद्यमशीलता बढ़ाने पर था. जब उन्होंने यह कहा कि कि रोज़गार तो आंकांक्षा और क्षमता के बीच का सेतु होता है और यह कि उद्यमशील भारत ही इस तरह के रोज़गार पैदा कर सकता है, तब यह उनका अब तक का सबसे महत्त्वपूर्ण, सबसे स्वागतयोग्य और याद रह जाने वाला बयान था. यही प्रगति है.

अप्रैल 2013 में राहुल जब यह कहते हैं कि जब ज्वार आएगा तब सारी नावें ऊपर उठ जाएंगी, लेकिन उद्योग जगत सहित किसी-न-किसी को तो निर्धनतम भारतीयों को वह अवसर प्रदान करने के लिए एक नाव देनी पड़ेगी. यह बयान चमकता बनाम फिसलता भारत या पसीना बहाता बनाम आकांक्षा पाले भारत वाले उनके बयान से एकदम अलग था. जब वे यह कहते हैं कि आइआइटी के प्रोफेसर अपने ज्ञान का मोल नहीं समझते, कि उस ज्ञान को बाज़ार से जोड़ने की जरूरत है; या जब राहुल कॉरपोरेट जगत पर कटाक्ष करते हुए सवाल उठाते हैं कि मोंटेक के अच्छे मित्र तो वे होंगे लेकिन क्या निर्णय प्रक्रिया में उनकी कोई भूमिका है और वे यह भी सुझाते हैं कि शासन में अपनी बात रखने का वे क्या संस्थागत उपाय कर सकते हैं, तब वे प्रगति का संकेत देते हैं. लेकिन क्या इतना काफी है? या यह जो नई समझदारी बनी है उसमें काफी देर हो चुकी है?

संदेह इसलिए पैदा होता है कि भविष्य के बारे में, खुद अपनी तथा अपनी पार्टी की राजनीति और नीतियों के बारे में बात करने से वे अभी भी काफी हिचकते हैं. क्या यह झिझक उनकी ही, या अपने परिवार तथा पार्टी की राजनीति के आंतरिक विरोधाभासों के कारण है? यह हमें अभी नहीं मालूम है.

यहां पर आकर हमें उनकी तीसरी गलती का पता चलता है. जयपुर में अपने जिस भाषण से उन्होंने अपनी पार्टी में अपने चहेतों को बेचैन कर दिया था, उसमें उन्होंने कहा था कि ‘‘हर कोई’’ जिस ‘‘सत्ता’’ के पीछे भागता है, वह एक ‘‘जहर’’ है. ऐसे विचारों पर मनन करना उन्हें भले अच्छा लगता हो, मगर लोकतंत्र में तो सत्ता को एक चमत्कारी वरदान, एक सम्मान और वह विशेषाधिकार माना जाता है जो मतदाताओं की कृपा से प्राप्त होता है. अच्छे नेता इसे खुशी, अनुग्रह और विनम्रता से स्वीकार करते हैं. सार्वजनिक पद को सबके भरोसे की थाती ही मानना चाहिए. लेकिन, ‘‘सत्ता एक जहर है’’ यह कहना दुर्भाग्य से सामंती सोच को उजागर करता है, लोकतांत्रिक सोच को नहीं. सत्ता, सार्वजनिक पद, मतदाताओं का भरोसा, वोट बैंक तक को इन दो में से एक नजरिए से ही देखा जा सकता है- या तो यह कि यह डीएनए की बदौलत हासिल वसीयत है, या एक ऐसी जिम्मेदारी है जिसे आप प्रयत्न से हासिल करते हैं और उसे पूरा करते हैं. अगर इस ‘‘सत्ता’’ को आप जहर मानते हैं, तो फिर अच्छे लोगों को राजनीति में उतरने के लिए कैसे कह पाएंगे?

हो सकता है कि इस दुविधा को खत्म होने में समय लगे. आप इस देश को एक हाथी भी मान सकते हैं या एक बाघ भी मान सकते हैं या मधुमक्खी का छत्ता या बर्र का छत्ता भी मान सकते हैं. लेकिन यह बहुत तेज़ी से रूप बदलता है. मसलन, जरा देखिए कि पिछले दो दशकों में पिछड़ी जातियों की ताकत में कितना अविश्वसनीय इजाफा हुआ है. भाजपा सरीखी ब्राह्मणवादी पार्टी के नए सितारे नरेंद्र मोदी, शिवराज सिंह चौहान या वसुंधरा राजे भी मुलायम-अखिलेश, लालू, नीतीश, और मायावती की जमात से जुड़ रहे हैं. आप पंचायत स्तर तक नीचे जाकर राजनीतिक प्रतिभाओं को खोजने की बात करते हैं, तो याद रखिए कि जब तक आपकी पार्टी राजकुमारों का जमावड़ा नहीं, छोटे-मोटे घराने का कुलीन तंत्र नहीं बन गई, तब तक ऐसा ही होता था. याद कीजिए, अहमद पटेल कहां से आए हैं- वे एक ताुलका पंचायत के अध्यक्ष ही तो थे.

यह उसी लोकतांत्रिक राजनीति का महिमागान है और यह जरूरी है कि महत्वपूर्ण राष्ट्रीय पार्टी नेता इस बात को समझें और इसी लिहाज से अपनी राजनीति तथा अपने संदेश को ढालें. क्योंकि सत्ता जहर हो या अनुग्रह में मिला विशेषाधिकार, अब वह डीएनए या घरानों की मोहताज नहीं रहने वाली है. उसके लिए नीतियों तथा कार्यक्रमों की जरूरत होगी. इसलिए सामाजिक-आर्थिक उभारों को समझना ही प्रगति है. लेकिन, विश्वसनीय एजेंडा के बिना ‘राहुलवाद’ का सहारा लेना आकर्षक लग सकता है और इसे उनके ऊपर थोपते हुए कहा जा सकता है कि हम प्रगति देख चुके हैं. लेकिन अभी लंबी दूरी तय करनी है. इतना काफी नहीं है बॉस!

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