असफलता की दुर्गंध जैसी गंध किसी भी चीज़ से नहीं आती. जानवर अक्सर गंध से शिकार करते हैं; कमजोरी और असफलता की तलाश करके. राजनेता भी ऐसा ही करते हैं. जब उन्हें संकट और असहाय होने की गंध आती है, तो वे हत्या के लिए आगे बढ़ते हैं.
कांग्रेस से पूछो. यह पता होना चाहिए. पिछले कुछ हफ़्तों में, वस्तुतः जो कोई भी पार्टी में सेंध लगा सकता है, उसने एक टुकड़ा फाड़ कर निकाल लिया है. आइए खराब किस्मत वाले इंडिया गठबंधन से शुरुआत करें, जिसके सदस्य आगामी लोकसभा चुनावों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जीत से इतने आश्वस्त हैं कि वे कांग्रेस में तोड़फोड़ से आनंद लेते हैं.
कभी-कभी झटका बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जैसे एडवेंचर करने वाले लोगों की ओर से लगता है, जो कांग्रेस को खारिज करते हुए भाजपा के साथ फिर से जुड़ने के लिए दौड़ पड़े. कभी-कभी यह कांग्रेस को जानबूझकर कमतर दिखाने की कोशिश होती है. उदाहरण के लिए, आम आदमी पार्टी (आप) प्रमुख और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और आगे बढ़ गए हैं और उन्होंने कहा कि वह उन राज्यों में सभी सीटों पर चुनाव लड़ेंगे जहां उन्हें कांग्रेस के साथ गठबंधन की उम्मीद की जा रही थी. और अक्सर यह सिर्फ दुर्व्यवहार होता है. तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) नेता ममता बनर्जी ने हाल ही में कांग्रेस में इस कदर तोड़-फोड़ की कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) भी उसके सामने अपने आपको शर्मिंदा महसूस करने लगी.
कांग्रेस के अपने खेमे में ही कई लोग बाहर जाने के रास्ते पर बढ़ रहे हैं. और अन्य लोग आपातकालीन निकासों पर ध्यान दे रहे हैं ताकि जब भी उन्हें जल्दी से निकलना हो तो वे निकल सकें.
कांग्रेस का अंधकारमय भविष्य
अशोक चव्हाण जैसे राजनेताओं के पार्टी छोड़ के जाने के बारे में भी कुछ दुखद अनुमान था. वह भले ही महाराष्ट्र के पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री रहे हों, लेकिन उनका यह भी मानना था कि राज्य में पार्टी का कोई भविष्य नहीं है और जब भाजपा ने उन्हें राज्यसभा सीट देने का वादा किया तो उन्होंने भाजपा को गले लगा लिया.
पिछले एक दशक में कांग्रेस ने कई बुरे दौर देखे हैं, लेकिन शायद ही हालात इतने बुरे रहे हों, जितने आज हैं. यहां तक कि इसके अपने सदस्य भी इसे एक ऐसी पार्टी के रूप में देखते हैं जो कहीं नहीं पहुंचने वाली. जिनके पास पार्टी नेतृत्व के खिलाफ कोई शिकायत नहीं है वे भी अपने विकल्पों पर फिर से विचार कर रहे हैं. वे कहते हैं, यह व्यक्तिगत नहीं है; हम कुछ करने के लिए राजनीति में हैं, और यदि आप ऐसी पार्टी में रहेंगे जो केंद्र में कभी सत्ता में नहीं आएगी तो आप कुछ भी हासिल नहीं कर सकते.
चीजें इस स्तर तक कब पहुंचीं? पिछले कई वर्षों में तमाम परेशानियों के बावजूद, कांग्रेस ने अपनी ऊंचाइयां और उत्साह के क्षण देखे हैं. कर्नाटक विधानसभा चुनाव की जीत ऐसा ही एक क्षण था. राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा की प्रतिक्रिया दूसरी थी. इनमें से किसी ने भी यह विश्वास नहीं दिलाया कि कांग्रेस अगला आम चुनाव जीतने जा रही है. लेकिन एक साथ देखा जाए तो, छोटी और मध्यम आकार की जीतों ने यह भावना पैदा की कि कांग्रेस का अंत नहीं हुआ है, कि इसका अभी भी भविष्य है, और इसे खारिज करना एक गलती होगी.
मेरा मानना है कि जब पिछले राज्यों के चुनावों के नतीजे आए तो कांग्रेस के बारे में आशाजनक माहौल खत्म हो गया और यह मध्य प्रदेश काफी महत्त्वपूर्ण था.
कायदे से कांग्रेस को मध्य प्रदेश में जीत मिलनी चाहिए थी. हालांकि, उसने पिछला विधानसभा चुनाव जीता था लेकिन दल-बदल के कारण उसकी सरकार गिर गई. क्या मध्य प्रदेश की जनता उस व्यवस्था को बहाल होते नहीं देखना चाहेगी? वे थके हुए पुराने शिवराज सिंह चौहान को वोट क्यों देंगे, जिनके हर कार्यकाल के बाद कम होती प्रभावशीलता देखने को मिली और यह स्पष्ट था कि चुनाव के बाद भाजपा उन्हें रिटायर करने वाली थी?
कांग्रेस ने भी यही सोचा था. जब कुछ एग्ज़िट पोल ने भाजपा की जीत की भविष्यवाणी की, तो कांग्रेस नेता सिर्फ अविश्वास कर रहे थे बल्कि वे इस एक सिरे से नकार भी रहे थे. सिर्फ इस बात का फैसला होना है कि कांग्रेस कितने अंतर से जीतती है.
लेकिन जब मिली तो उसने कई चीजें सामने ला दीं. सबसे पहले, कांग्रेस ने लोगों के मूड को समझने की क्षमता खो दी थी. इसके नेताओं ने जिलों और गांवों में प्रचार किया, उन्हें इस बात का अहसास भी नहीं था कि वे भाजपा के भारी बहुमत में बह जाएंगे.
दूसरा, कर्नाटक या तेलंगाना में चाहे कितना भी अच्छा प्रदर्शन किया हो, हिंदी पट्टी में कांग्रेस ख़त्म हो गई थी. यदि वह मध्य प्रदेश को हार सकती है – जहां सब कुछ उसके अनुकूल था – तो उसे उन राज्यों में जीतने की क्या उम्मीद है जहां जीतना अधिक कठिन था?
और तीसरा, अगर मोदी को हिंदी पट्टी में नहीं हराया जा सका – और विधानसभा चुनाव नतीजों से पता चला कि उन्होंने हिंदी बेल्ट को मजबूत कर लिया है – तो, चाहे उन्होंने दक्षिण में कुछ भी किया हो, फिर भी वे सरकार बनाने के लिए पर्याप्त सीटें जीतेंगे. तो, जब तक मोदी मौजूद हैं, दिल्ली में कांग्रेस के सत्ता में आने की क्या उम्मीद है?
यदि आप मध्य प्रदेश के नतीजों के बारे में सोचें, तो यही वह क्षण है जब लोगों ने कांग्रेस को गंभीरता से लेना बंद कर दिया. अन्य नेताओं ने यह परवाह करना बंद कर दिया कि कांग्रेस नेतृत्व क्या सोचता है. उनका विचार: अगले पांच साल तक मोदी ही रहेंगे तो इस बात की परवाह किसे है? और पांच साल बाद, कौन जानता है कि कांग्रेस किस स्थिति में होगी या उसके नेता कौन होंगे?
आपको खुद से पूछना होगा: क्या कांग्रेस पिछले कुछ महीनों में कुछ अलग कर सकती थी? खैर, यह निश्चित रूप से मध्य प्रदेश चुनाव लड़ने में बेहतर काम कर सकती थी.
लेकिन, उससे परे? सच कहूं तो, मैं इसके बारे में बहुत कुछ नहीं सोच सकता कि इसे अलग तरीके से किया जा सकता था. यह उतनी ही मजबूत या कमजोर है जितनी तब थी जब इसने 2023 में कर्नाटक जीता था और उस समय भी लोग कांग्रेस के पुनरुत्थान की बात कर रहे थे.
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मोदी से लड़ रहे हैं
अब तक, हमने कांग्रेस की विफलताओं के लिए साल-दर-साल चिर-परिचित स्पष्टीकरण को सुना है. उनमें से कुछ अच्छी तरह से स्थापित हैं. हां, जनता का मूड विशिष्टता प्राप्त और परिवारवादी पार्टियों के खिलाफ है. हां, राहुल गांधी ऐसे कांग्रेस अध्यक्ष नहीं थे जिनकी राष्ट्रीय छवि रही हो. हां, कांग्रेस को पार्टी के अंदर ज्यादा लोकतंत्र की आवश्यकता है. उसे अपने पुराने और अधिक अनुभवी नेताओं की बात सुनने की जरूरत है.
हालांकि, यह सब कांग्रेस के कद और विश्वसनीयता में हालिया गिरावट को समझाने के लिए पर्याप्त नहीं है. और इसके अलावा, उनमें से कई आलोचनाओं पर पहले ही कार्रवाई की जा चुकी है. राहुल गांधी अब पार्टी अध्यक्ष नहीं हैं. वह पार्टी के घोषित प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं हैं. कांग्रेस ने आंतरिक चुनाव के बाद मल्लिकार्जुन खड़गे को अध्यक्ष नियुक्त किया है, जिनके परिवार को कोई राजनीतिक इतिहास नहीं है. पार्टी ने पुराने और अनुभवी नेताओं की बात सुनी: विधानसभा चुनाव के आखिरी दौर की कमान दिग्गजों कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, अशोक गहलोत, भूपेश बघेल और खुद खड़गे ने संभाली, जिन्होंने पार्टी को हार तक पहुंचाया.
इसलिए वे स्पष्टीकरण काम नहीं करते.
कांग्रेस की इतनी बुरी स्थिति का असली कारण कुछ ऐसा हो सकता है जिसका पार्टी से कोई लेना-देना नहीं है. ऐसा हो सकता है कि उसे एक करिश्माई मजबूत नेता का सामना करना पड़े जो पूरे देश के मन-मानस पर छा गया हो और इसलिए उसे चुनावी तौर पर हराना लगभग असंभव है, कम से कम लोकसभा चुनावों में और मूल रूप से उत्तर भारत में.
जो लोग मोदी की लोकप्रियता के बारे में बात करते हैं वे आमतौर पर रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और तुर्की के आरसी एर्दोगन जैसे समकक्षों से तुलना करते हैं. लेकिन इतिहास से अन्य उदाहरण भी हैं: अमेरिका में फ्रैंकलिन डी रूजवेल्ट, जिनकी लोकप्रियता इतनी थी कि अमेरिका में राष्ट्रपति का कार्यकाल दो बारो हो सके इसके लिए संविधान संशोधन करना पड़ा. यह रूजवेल्ट की उनके चौथे कार्यकाल के दौरान मृत्यु के बाद हुआ था. ब्रिटेन में मार्गरेट थैचर ने अपनी पार्टी को लगातार तीन आम चुनावों में शानदार जीत दिलाई.
हम शायद ही उन राजनेताओं को याद करते हैं जिन्होंने रूजवेल्ट और थैचर का विरोध किया था, इसलिए नहीं कि वे बेकार थे बल्कि इसलिए क्योंकि ऐसे शक्तिशाली नेताओं की लोकप्रियता के खिलाफ लड़ना लगभग असंभव हो गया था. मुझे संदेह है कि मोदी की स्थिति भी कुछ ऐसी ही बनती जा रही है.
रूज़वेल्ट और थैचर ने उन देशों को बदल दिया जिनका उन्होंने नेतृत्व किया. अब यह स्पष्ट है कि मोदी भी ऐसा ही करेंगे.’ तो बेचारी कांग्रेस पर दया करो. वह इतिहास के भंवर में फंस गई है, तैरने की असफल कोशिश कर रही है लेकिन वास्तव में वह डूब रही है.
(वीर सांघवी एक प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार और टॉक शो होस्ट हैं. उनका एक्स हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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