मध्यप्रदेश में मचे सियासी घमासान से उभरता असली सवाल ये नहीं कि वंशवाद के एक ध्वजावाहक ने एक सामंत के साथ कैसा सलूक किया, सिंधिया ने कांग्रेस के साथ विश्वासघात किया या फिर कांग्रेस ही ने सिंधिया की लंगड़ी मारी. ऐसे सवाल पूछने का मतलब है किसी बड़ी बात को दरबारों में चलने वाली साजिश का हिस्सा मानकर देखना-समझना और उस बड़े परिप्रेक्ष्य को भूल जाना जिसकी वजह से वो बड़ी बात पैदा हुई.
युवा महाराज ने कांग्रेस के खेमे को छोड़ बीजेपी का दामन थामा है तो ऐसा करने के पीछे उनकी क्या मंशा रही होगी, इस पर बहस करने के लिए कुछ खास है ही नहीं. राजनीतिक अवसरवादिता का अपना तर्क होता है और इस तर्क से सिंधिया की मंशा का खुलासा पूरी तरह हो जाता है. सिंधिया के पाखंड की पोल-पट्टी खोलने की कोशिश में जेहन खपाना वक्त की बर्बादी है. ठीक इसी तरह से ये पूछना भी बेकार है कि कांग्रेस ने स्थिति को अच्छी तरह से संभाला या नहीं. आखिर इस पार्टी में ऐसी कोई तो गड़बड़ी होगी ही कि एक ऐसे वक्त में जब जरुरत अपने को गढ़ने और बचाने की है तो पार्टी अपने अहम सिपहसालार गंवाने में लगी है.
राजनीतिक अवसरवादिता के इस अधम खेल में बीजेपी की क्या भूमिका रही, इसकी भी व्याख्या की जरुरत नहीं : बीजेपी अपने राज में इस बात पर तुली हुई है कि चाहे कोई भी कीमत चुकानी पड़े वो अपने सामने किसी भी विपक्ष को उठ खड़ा होने नहीं देगी. विपक्ष को मटियामेट करने के अपने मिशन में बीजेपी ना तो किसी नैतिक संकोच को आड़े आने देगी और ना ही किसी परिपाटी या फिर संविधान को.
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गलतफहमी पालने की जरुरत नहीं : कांग्रेस अपने अंदरखाने टूट रही है और कांग्रेस के भीतर के लोग दर्शक बने देख रहे हैं. जब पार्टी के नेताओं की दशा ये हो जाये कि अपनी ही पार्टी को सुझाव देने के लिए उन्हें समाचारपत्रों के संपादकीय पन्ने का सहारा लेना पड़े, तो आपको समझ लेना चाहिए कि पार्टी अब चौतरफा क्षरण का शिकार हो चली है. ऐसे में सवाल ये पूछा जाना चाहिए कि : क्या कांग्रेस पार्टी का बिखराव कोई ऐसी बात है जिसकी पार्टी के बाहर के लोगों को चिन्ता करनी चाहिए ? और, अगर ऐसा है तो फिर इस दिशा में क्या करना ठीक होगा ?
पार्टी, मंच और अवधारणा
लोकसभा के चुनावों के बाद मैंने लिखा था कि कांग्रेस को खत्म हो जाना चाहिए. अब ऐसे चुटीले जुमलों की भी एक नियति होती है, हर कोई जुमला पढ़कर निकल लेता है और ये सोचने-समझने की जहमत नहीं उठाता कि दरअसल ऐसे चुटीले वाक्य के सहारे लेखक कहना क्या चाह रहा है या फिर लेखक ने ऐसा वाक्य लिखा है तो क्यों लिखा है. मेरा तर्क सीधा-सादा था : मोदीराज हमारे देश की आत्मा को मटियामेट करने में लगा है और देश की आत्मा की रक्षा के अपने ऐतिहासिक दायित्व निर्वाह में कांग्रेस नाकाम रही है. यही नहीं, देश की आत्मा को बचाने के लिए कोई अगर विकल्प गढ़ने की कोशिश कर रहा है तो कांग्रेस ऐसी कोशिश की राह में रोड़ा बनकर खड़ी हो जा रही है. मेरे लेख पर प्रोफेसर सुहास पऴशीकर की एक त्वरित और गहन-गंभीर प्रतिक्रिया प्रकाशित हुई थी. लेख में उन्होंने आगाह किया था अति-उत्साह में कांग्रेस के खात्मे की बात कहने के खतरे हैं. आज हम जिस बड़े सवाल से जूझ रहे हैं उसपर सोच-विचार करने के लिए बहुत संभव है मेरा वो पुराना तर्क फिर से मददगार साबित हो.
कांग्रेस के तीन अलग-अलग आशय हो सकते हैं : कांग्रेस एक पार्टी है, कांग्रेस एक मंच है और कांग्रेस एक अवधारणा है.
कांग्रेस का एक अर्थ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस हो सकता है जिसने चुनाव आयोग में अपना पंजीयन कराया है. देश के ज्यादातर राजनीतिक दलों की तरह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भी एक पारिवारिक उद्यम है. इस पार्टी के लिए में का काम करने वाला परिवार अपनी मंशा में शुभेच्छाओं भरा हो सकता है. स्वर्गीय जयपाल रेड्डी ने मुझसे गांधी-परिवार के बारे में कहा था : ‘वे अपने सोच में सचमुच उदार हैं लेकिन तेवर से सामंत हैं. ‘
यही बात कांग्रेस के कई और नेताओं के लिए भी कही जा सकती है. अगर आप अपने मिजाज से गणतंत्रवादी हैं तो फिर ऐसी कोई बाधा नहीं जो आप गांधी-परिवार या उसके पारिवारिक उद्यम यानि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की नियती की फिक्र करें. सियासत के बाजार में ऐसी कंपनियां खड़ी होती हैं और फिर कालक्रम में खत्म हो जाती हैं. अगर विध्वंस रचनाधर्मी है तो राजनीति में उसका स्वागत होना चाहिए, व्यवसाय-जगत में भी ऐसा ही होता है. हमें किसी राजनीतिक उद्यम के खात्मे का मातम नहीं मनाना चाहिए.
लेकिन कांग्रेस एक मंच का भी प्रतीक है- मुख्यधारा की विपक्षी पार्टियों के ऐसे अखिल भारतीय महामंच का जो आज की तारीख में बीजेपी के वर्चस्व को तोड़ने के लिए पहले से कहीं ज्यादा जरुरी है. लोकसभा के चुनावों के बाद राष्ट्रीय राजनीति पर बीजेपी की जकड़ पहले से ज्यादा मजबूत हुई है. बेशक क्षेत्रीय दलों ने बीजेपी को तगड़ी टक्कर दी है और उसे हराने में भी कामयाब हुए हैं लेकिन बीजेपी हमारे गणराज्य को अब ईंट-दर-ईंट तोड़ने में लगी है और बीजेपी को उसके इस मिशन से रोकना क्षेत्रीय दलों के बूते से बाहर की बात है. हमारे गणराज्य को बचाने के लिए एक राष्ट्रव्यापी राजनीतिक ताकत की जरुरत है जो गणराज्य पर हो रहे हमले का सामना कर सके और बीजेपी की चुनावी तथा सियासी मशीनरी को बराबरी की टक्कर दे सके. समय के इस मोड़ पर ऐसा कर पाने की क्षमता सिर्फ कांग्रेस के पास दिखती है. इसी कारण, कांग्रेस का बिखराव उन लोगों के लिए भी चिन्ता की बात है जिनका इस पार्टी से कुछ भी लेना-देना नहीं.
और, इस सिलसिले की आखिरी बात ये कि कांग्रेस एक अवधारणा का भी नाम है. विचार के धरातल पर देखें तो कांग्रेस सामाजिक समूहों, वर्गों तथा क्षेत्रों के एक केंद्राभिगामी गठबंधन का नाम है. यह एक ऐसे राजनीतिक सरंजाम का नाम है जो भारत को लेकर प्रचलित तमाम विरोधी विचारों को अतिवाद के छोर पर पहुंचाये बगैर अपने में समेट लेता है. सबसे बड़ी बात ये कि कांग्रेस अवधारणा के स्तर पर उस तर्जे सियासत का नाम है जिसमें गैर-बहुमती तरीके से चुनावी बहुमत जुटाया जाता है. और, इस अवधारणा का विकल्प नहीं. बीजेपी का सामना करने के लिए यही विकल्प एकमात्र रास्ता है. एकमात्र इसी अवधारणा के सहारे भारत को एकजुट रखा जा सकता है. सो, एक अवधारणा के रुप में कांग्रेस के अवसान का शोक हर भारतीय को मनाना चाहिए.
महागठबंधन अंदर
संकट इस बात का नहीं कि सिंधिया ने कांग्रेस के साथ धोखा किया या फिर कांग्रेस सिंधिया को उनकी वाजिब जगह देने में नाकाम रही. असल संकट ये है कि कांग्रेस के नेतृत्व ने कांग्रेस की अवधारणा के साथ धोखा किया है और असल संकट ये है कि जो जगह कांग्रेस की अपनी हुआ करती थी उस जगह को फिर से हासिल करने की क्षमता पैदा करने में कांग्रेस नाकाम रही है. संकट सिर्फ ये नहीं कि किसी सूबे के एक इलाके के लिए उपयोगी रहे नेता से नाता टूट गया या फिर एक प्रान्त में पार्टी को सत्ता से बेदखल होना पड़ेगा. असल संकट ये है कि पार्टी वो गुरुत्वाकर्षण बल खो चुकी है जो उसको एकजुट बांधे रहता था. पिछले कुछ वक्त से ऐसा लगने लगा है कि कांग्रेस के पास ना तो भविष्य का कोई सपना है, ना कोई रणनीति और ना ही लोगों को देने के लिए कोई संदेश. कांग्रेस सियासत के मोर्चे पर निर्णय नहीं ले पा रही और उसके कस-बस भी ढीले पड़ गये हैं. ये किसी एक पार्टी का संकट नहीं है. ये संकट दरअसल भारतीय लोकतंत्र के संकट को और ज्यादा गहन-गंभीर बना सकता है.
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मध्यप्रदेश में मचे हालिया सियासी घमासान से यही पता चलता है कि पार्टी संकट से उबरने के संसाधन समाप्त कर चुकी है. बेशक, पार्टी में अभी प्रतिभावान चिन्तकों, सिद्धहस्त प्रबंधकों, चतुर वक्ताओं, जनाधार वाले नेताओं और धनकुबेरों की कमी नहीं. लेकिन ये सब अकेले-अकेले के नेता हैं, उनका राजनीतिक उद्यम भी अकेले-अकेले का है. ऐसी कोई प्रक्रिया या फिर व्यक्ति नहीं दिखता जो इन सबको एक में गूंथकर एक ऐसी सामूहिक शक्ति में बदल डाले जो हमारे देश की आत्मा को बचा सके.
देर-सबेर कांग्रेस को आगे लिखी जा रही बातों का सामना करना ही पड़ेगा : कांग्रेस में पार्टी से बाहर के लोगों की जरुरत है जो कांग्रेस को एक अवधारणा और एक महामंच के रुप में फिर से तैयार कर सकें. एक वक्त वो भी था जब कांग्रेस पार्टी गैर-कांग्रेसी दलों को जिलाती-जगाती थी. बहुत मुमकिन है, अब वक्त इस धारा को उल्टी दिशा में मोड़ने का आ चला हो. भविष्य के जिस सपने को लेकर पहले कांग्रेस खड़ा हुआ करती थी वो स्वप्न आज पार्टी के बाहर गढ़ा जा रहा है और कहीं ज्यादा बेहतरी से गढ़ा जा रहा है. आज कांग्रेस पार्टी के पास ऐसा कोई संगठन-बल या कैडर-बल नहीं जो उसकी बात कह सके. लेकिन ऐसे बहुत से आंदोलनी संगठन हैं जो भविष्य के वैसे ही स्वप्न को लेकर चल रहे हैं जैसे स्वप्न को लेकर कांग्रेस चला करती थी और इन आंदोलनों के पास संगठन-बल भी पर्याप्त गहरा है. सो, समाधान इतना भर नहीं कि कांग्रेस तथा अन्य सभी बीजेपी-विरोधी पार्टियों का महागठबंधन बने बल्कि समाधान एकमात्र यही बचा है कि कांग्रेस देश की आत्मा को बचाने के लिए खुद ही एक महागठबंधन में तब्दील हो जाये या फिर अपने खात्मे के लिए तैयार रहे.
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(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं.यह लेख उनका निजी विचार है.)