देश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या भारतीय जनता पार्टी के ऐसे विकल्प के निर्माण के लिए, जो 2024 के लोकसभा चुनाव में उन्हें निर्णायक चुनौती दे सके, इन दिनों जितनी भी कोशिशें की जा रही हैं, उनका तकिया मोटे तौर पर चार कारकों पर है. इनमें पहला यह कि ऐसी ज्यादातर शक्तियां, जो नागरिकों के अधिकारों, आजादी, संविधान और इन सबके जनक लोकतंत्र को उनके वास्तविक रूप में फूलता-फलता देखना चाहती हैं, वे सबकी सब ऐसी कोशिशों को सफल होती देखना चाहती हैं.
दूसरा कारक यह है कि प्रवर्तन निदेशालय समेत विभिन्न केन्द्रीय एजेंसियों के हाथों पीड़ित विपक्षी दलों को, जो भाजपा की बहुसंख्यक ध्रुवीकरण की राजनीति और उस पर निर्भर ‘मोदी के महानायकत्व’ की काट न खोज पाने के कारण 2014 से ही लस्त-पस्त है, अंततः सद्बुद्धि आयेगी. तब वे मोदी के ‘अघोषित आपातकाल’ के खिलाफ एकजुट होकर प्राण-प्रण से उठ खड़े होंगे और त्रस्त जनता बेहिचक उन्हें 1977 जैसे जनादेश से उपकृत कर देगी.
लेकिन अनेक लोग वर्तमान परिस्थितियों में विपक्षी एकता के इतिहास की 1977 जैसी पुनरावृत्ति को लगभग असंभव मानते हैं. ऐसा मानने वालों में अतीत में हुई विपक्षी एकताओं के हश्र से निराश शुभचिंतकों की भी कमी नहीं हैं. ये शुभचिंतक पिछले दिनों बिहार में पालाबदल के बाद नीतीश द्वारा की गई सम्पूर्ण विपक्ष की एकता की अपील से भी आशान्वित नहीं हो पा रहे.
विपक्ष को कांग्रेस के पुनर्जीवन की उम्मीद
इसके उलट उनका एक हिस्सा अभी भी देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के पुनर्जीवन से लौ लगाये हुए है, उसके भीषण दुर्दिन के बावजूद. इस हिस्से को लगता है कि कांग्रेस अभी भी संकल्पबद्ध होकर मैदान में उतरे तो देशभर में अपनी उपस्थिति का लाभ उठाकर मोदी की भाजपा के समक्ष गंभीर चुनौती पेश कर अप्रत्याशित चुनावी नतीजे ला सकती है. वह ऐसा कर ले तो अटल बिहारी वाजपेयी के वक्त जैसी दोध्रुवीय राजनीति का युग लौट सकता है और उसके लिए विपक्षी एकता की धुरी बनकर नेतृत्वकारी भूमिका निभाने की राह खुल सकती है.
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चौथे कारक का तकिया इस पर है कि आगे चलकर भाजपा के बढ़ते अंतर्विरोध ही उसके विकल्प निर्माण का मार्ग प्रशस्त देंगे, जिसमें मोदी और अमित शाह के अवांछनीय प्रभुत्व से नाराज नितिन गडकरी जैसे नेता प्रभावी भूमिका निभायेंगे. यह कारक अभी बहुत प्रत्यक्ष नहीं है, लेकिन कार्यकर्ता आधारित भाजपा की सत्ता आधारित बढ़त के इस दौर में इसके किसी भी मोड़ पर बड़ा होकर सामने आ जाने से इनकार नहीं किया जा सकता. अतीत में इसका कम से कम एक उदाहरण मौजूद है: राजीव गांधी की कांग्रेस से निकलकर विश्वनाथ प्रताप सिंह 1989 में अपनी ईमानदार व नैतिक छवि के बूते प्रधानमंत्री बन गये थे.
बहरहाल, जिन लोगों ने विकल्प के लिए कांग्रेस से लौ लगा रखी है, वे आजकल यह देखकर खुश हो सकते हैं कि भले ही उसके पूर्णकालिक अध्यक्ष के चुनाव से जुड़ी समस्याएं हनुमान की पूंछ की तरह लम्बी होती जा रही हैं, उसके भीतर रणनीतिक बदलाव नजर आने लगे हैं. इसकी एक मिसाल उसका बेहतर हुआ मीडिया प्रबंधन है तो दूसरी गत दिनों सिविल सोसाइटी के साथ हुई राहुल की बैठक. पार्टी द्वारा अगले महीने से प्रस्तावित 148 दिनों की ‘भारत जोड़ो’ यात्रा से पहले हुई इस बैठक में पार्टी ने सिविल सोसाइटी को यह संदेश दिया है कि वर्तमान सत्ताधीशों की साम्प्रदायिक व धार्मिक घृणा की राजनीति को रोकने के लिए वह कुछ भी उठा नहीं रखेगी.
लेकिन दूसरे पहलू पर जायें तो कई हलकों में संदेह बने हुए हैं कि आंतरिक व बाह्य दोनों मोर्चों पर मुश्किलों का जो अम्बार उसका रास्ता रोके हुए है, सारा कस बल लगाकर भी वह उसके पार जा सकेगी या नहीं? पिछले दिनों तब इसका जवाब हां में मिला था, जब प्रवर्तन निदेशालय द्वारा राहुल व सोनिया से मैराथन पूछताछ के दौरान उसके कार्यकर्ता एकजुट होकर सड़क पर उतरे थे. लेकिन अब उसकी आंतरिक कलह फिर सतह पर है. ऐसे नाजुक वक्त में जब उसको अध्यक्ष पद के चुनाव के अंतर्विरोधों से पार पाना और महत्वाकांक्षी भारत जोड़ो यात्रा पर निकलना है, बहुचर्चित जी-23 के कई नेता अपनी हैसियत और मान को लेकर बहुत संवेदनशील हो गये हैं. इस कदर कि पिछले दिनों गुलाम नबी आजाद ने यह कहते हुए पार्टी से इस्तीफा दे दिया कि राहुल गांधी के मनमाने व बचकाने फैसलों के कारण उसकी वापसी की कोई संभावना नहीं बची है. जी-23 के कई अन्य नेता भी पार्टी के प्रतिद्वंद्वियों के बजाय उसके नेतृत्व पर ही पिले पड़े हैं.
कांग्रेस में अंदर-बाहर रोड़े बरकरार
साफ है कि पार्टी अभी भी अपनी कमजोर कड़ियों को दुरुस्त कर चुनावों का सफल प्रबंधन करने व अपनी जीत सुनिश्चित कर लेने के भाजपा जैसे कौशल से महरूम है और अतीत की उन मिसालों से कोई सबक नहीं लिया है, जिनमें इसी के चलते उसे कई बार अंतिम वक्त पर आत्मघाती गोल खाकर जीती हुई बाजियां भी गंवा देनी पड़ी हैं. इस कारण अभी भी उसकी राह के जितने रोड़े उसके बाहर हैं, उससे ज्यादा उसके भीतर हैं-उसके लुंज-पुज संगठन तक में.
कपिल सिब्बल जैसी इक्का-दुक्का शख्सियतों को छोड़कर उसके वे नेता, जिनके लिए राहुल गांधी को पिछले दिनों यह तक कहना पड़ा था कि अगर वे भाजपा से विचारधारा की लड़ाई से डरे हुए हैं तो पार्टी छोड़कर जा सकते हैं, अभी भी ‘वेट एंड वाच’ कर रहे और उसकी कमजोर कड़ी बने हुए हैं.
अपने मान-अपमान को मुद्दा बनाते वक्त वे इतना याद रखना भी गवारा नहीं करते कि जब पार्टी में बसंत था, सबसे ज्यादा बहार उन्हीं के हिस्से आई थी. उनमें से कई के बारे में तो यहां तक कहा जाता है कि वे चाहते हैं कि पार्टी उनके विरुद्ध अनुशासन या निष्कासन वगैरह की कार्रवाई कर दे ताकि वे शहादत की मुद्रा में अपनी-अलग राह चुन सकें. पर पार्टी इसका साहस नहीं जुटा पा रही.
निस्संदेह, इससे उसके बारे में कोई अच्छा संदेश बाहर नहीं जा रहा. विडम्बना यह कि फिर भी वह समझ नहीं पा रही कि अपनी आंतरिक कमजोरियों से पार पाये बिना वह भाजपा और मोदी का विकल्प बनने का सपना साकार नहीं कर सकती. और तो और, इसके बगैर वह न उन विचारों को खाद-पानी दे सकती और न ही जनता के बीच ले जा सकती है, जिनकी रक्षा के लिए भाजपा से वैचारिक युद्ध का दम भरती है.
सवाल है कि इसके बावजूद जो लोग मानते हैं कि कांग्रेस के बगैर कोई राष्ट्रीय विकल्प बन ही नहीं सकता, वे कभी उसे इसका इलहाम करा पायेंगे या नहीं? अगर नहीं तो उससे लगाई गई उनकी उम्मीदें क्योंकर हरी हो सकती हैं?
(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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