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Saturday, 14 September, 2024
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कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में अब तक का सबसे बड़ा दांव चल दिया है

कांग्रेस की उत्तर प्रदेश में आखिरी सरकार 30 साल पहले बनी थी. इस बीच पार्टी प्रदेश की राजनीति में लगातार कमजोर होती चली गई.

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एक तरफ जहां महाराष्ट्र और हरियाणा में होने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर कांग्रेस के भीतर घमासान मचा है, वहीं उत्तर प्रदेश में पार्टी ने अपना दांव चल दिया है. पार्टी ने न सिर्फ नए चेहरों को तरजीह दी, बल्कि सामाजिक न्याय, जातीय समीकरण, युवा चेहरों व कार्यकर्ताओं के संघर्षों को भी ध्यान में रखा है.

कांग्रेस खासकर पूर्वी उत्तर प्रदेश में जड़ें जमाने की कवायद में है. खासकर पार्टी की नजर गोरखपुर, बस्ती, आजमगढ़ और बनारस मंडल पर है. पार्टी ने राज्य की कार्यकारिणी की घोषणा करते समय इस क्षेत्र का विशेष खयाल रखा है. कुशीनगर जिले के तमकुही राज विधानसभा क्षेत्र से दूसरी बार विधायक चुने गए अजय कुमार लल्लू को पार्टी ने प्रदेश अध्यक्ष बनाया है. राज्य के पदाधिकारियों की लिस्ट में दूसरे स्थान पर वीरेंद्र चौधरी का नाम है, जो उपाध्यक्ष बनाए गए हैं. कांग्रेस के हिसाब से न सिर्फ यह नाम अहम हैं, बल्कि इन नामों के चयन के साथ इलाके की राजनीतिक स्थिति को देखना भी जरूरी है. इससे यह साफ हो सकेगा कि कांग्रेस के इस चयन के पीछे क्या राज है.

नेताविहीन पूर्वांचल में कांग्रेस की कवायद

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की लंबी राजनीतिक पारी के बीच पूर्वी उत्तर प्रदेश पूरी तरह उपेक्षित रहा. इसमें आने वाले दो प्रमुख जोन गोरखपुर और वाराणसी में कोई ऐसा नेता नहीं था, जो मुख्यमंत्री पद के लिए दावेदारी कर सके. भारतीय जनता पार्टी में जरूर राजनाथ सिंह, कलराज मिश्र का शुमार बड़े व राष्ट्रीय नेताओं में होता रहा है. वहीं कांग्रेस में इस इलाके में वीर बहादुर सिंह, कल्पनाथ राय, सीपीएन सिंह के साथ कमलापति त्रिपाठी का परिवार ताकतवर रहा है. इनमें से तीन प्रमुख कांग्रेसी दिग्गजों वीर बहादुर सिंह, सीपीएन सिंह और कल्पनाथ राय के अचानक देहावसान से कांग्रेस पूर्वांचल इलाके में नेतृत्वविहीन हो गई और 1989 के विश्वनाथ प्रताप सिंह की लहर के बाद इलाके से कांग्रेस का पूरी तरह सफाया हो गया.


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कांग्रेस के डांवाडोल हालत में कुशीनगर (पड़रौना) विधानसभा सीट से सीपीएन सिंह के पुत्र आरपीएन सिंह विधायक बनते रहे. हालांकि लोकसभा चुनाव में उन्हें सफलता नहीं मिली. 2009 में जब आरपीएन सिंह लोकसभा के लिए पहली बार चुने गए तो गांधी परिवार के खास रहे पड़रौना राजपरिवार के इस नेता को मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल में शामिल किया गया. आरपीएन सिंह ने अपनी ताकत लगाकर अपने लोकसभा क्षेत्र में कांग्रेस को मजबूत बनाने का काम शुरू किया.

आरपीएन ने इसी दौरान अजय कुमार लल्लू को कांग्रेस से जोड़ा, जो 2007 में निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में कुछ हजार वोट पाकर चुनाव हार चुके थे. इसके साथ ही लल्लू ने रोजी-रोटी की तलाश में दिल्ली की राह पकड़ ली थी. आरपीएन सिंह न सिर्फ लल्लू को फिर से राजनीति में लेकर आए, बल्कि उन्हें कांग्रेस से तमकुही राज से चुनाव भी लड़वाया. लल्लू विधानसभा चुनाव जीतने में सफल रहे.

संघर्ष से शिखर तक पहुंचे अजय लल्लू

लल्लू महज 33 साल की उम्र में विधायक बन गए. वह जनता के बीच रहते हैं. पिछड़ी कानू जाति में जन्मे लल्लू की लोकप्रियता इलाके के हर समुदाय में है. पहली बार विधायक रहने पर एक सामान्य नागरिक की जिंदगी जीने वाले लल्लू ने जनसंपर्क कर लोगों के बीच जबरदस्त पैठ बनाई. वह पार्टी के ज्यादातर सक्रिय कार्यकर्ताओं को नाम से जानने लगे. किसी का कोई भी काम पड़ने पर वह 24 घंटे तत्पर रहते थे.

इसका परिणाम यह हुआ कि वह विधानसभा में बेहद लोकप्रिय हो गए. उनके राजनीतिक संरक्षक आरपीएन सिंह भले ही 2014 में कुशीनगर लोकसभा से चुनाव हार गए, लेकिन लल्लू 2017 में भाजपा की आंधी में भी भारी अंतर से चुनाव जीतने में कामयाब रहे.


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लल्लू ने अपना पूरा जीवन ही राजनीति को समर्पित कर रखा है. उन्होंने अब तक विवाह नहीं किया है और लोगों के बीच रहते हैं. कांग्रेस ने 2017 में उन्हें विधायक दल का नेता बनाया तो प्रदेश में उनकी सक्रियता जबरदस्त तरीके से बढ़ गई. लल्लू की जीवनशैली और रहन सहन इतना सामान्य है कि पार्टी का आम कार्यकर्ता उन्हें अपने करीब पाता है. जब प्रियंका गांधी ने सोनभद्र में जमीन के विवाद में आदिवासियों की हत्या को लेकर आंदोलन चलाया और धरना दिया तो लल्लू लगातार प्रियंका के साथ बने रहे.

वह शीर्ष नेतृत्व के साथ फोटो खिंचाने के लिए धरने में नहीं जाते, बल्कि कुशीनगर में उनकी राजनीति जन समस्याओं को लेकर धरने के लिए ही जानी जाती है और उनकी एक पहचान धरना कुमार भी बन गई है.

हाल ही में इलाके के धर्मदानी जगदीशपुर कांड में जब निर्दोष लोगों को फंसाया गया तो लल्लू तत्काल सक्रिय हुए और उन्होंने प्रदेश स्तर के अधिकारियों से मुलाकात कर पीड़ितों को न्याय दिलाने की मांग उठाई. इतना ही नहीं, छात्र राजनीति से अपना करियर शुरू करने वाले लल्लू ने आरक्षण विरोधी 13 प्वायंट रोस्टर के खिलाफ भी आंदोलन चलाया.

वह इस मसले पर धरने पर बैठे और केंद्र सरकार को ज्ञापन भेजा. लल्लू फेसबुक पर भी सक्रिय हैं. लल्लू परंपरागत मीडिया में तो कम आते हैं, लेकिन उनकी फेसबुक प्रोफाइल  से यह जाना जा सकता है कि हर महीने हर पखवाड़े और हर दिन वह किसी न किसी समस्या को लेकर धरना प्रदर्शन, पदयात्रा में लगातार व्यस्त रहते हैं.

शीर्ष नेतृत्व की परिक्रमा की राजनीति न करके जनता के बीच रहकर राजनीति करने वाले लल्लू को कांग्रेस ने खास महत्त्व देकर उत्तर प्रदेश, खासकर पूर्वांचल की राजनीति को खास धार दे दी है. गोरखपुर से लंबे समय तक सांसद और इस समय राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की कर्मभूमि भले ही पूर्वांचल है, लेकिन उन्हें पूर्वांचल के नेता के रूप में नहीं जाना जाता. योगी मूल रूप से उत्तराखंड के हैं, जो क्षत्रिय बिरादरी से ताल्लुक रखते हैं. इस तरह से देखें तो गोरखपुर मंडल में इस समय किसी भी दल के पास कोई ऐसा नेता नहीं है, जिसकी राष्ट्रीय स्तर या प्रदेश स्तर पर दावेदारी हो.


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कांग्रेस ने लल्लू के अलावा कुर्मी बिरादरी से आने वाले वीरेंद्र चौधरी को पार्टी का उपाध्यक्ष बनाकर अहम भूमिका दी है. चौधरी महराजगंज जिले की फरेंदा विधानसभा से पिछले कई चुनाव से मामूली अंतर से हारे हैं. वह भी लल्लू की तरह बेदाग छवि के हैं.

किसान परिवार के चौधरी को चुनाव लड़ने के लिए खेत भी बेचना पड़ा है. वहीं लल्लू की भी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ नहीं है. इसे इन नेताओं की खामी मानी जा सकती है, लेकिन दोनों नेता ऊर्जावान हैं. वहीं राष्ट्रीय राजनीति में समाजवादी नेता हर्षवर्धन की पुत्री व आर्थिक पत्रकार रहीं सुप्रिया श्रीनेत को भी कांग्रेस ने राष्ट्रीय प्रवक्ता बनाकर सक्रिय कर दिया है, जिन्होंने 2019 का लोकसभा चुनाव कांग्रेस के टिकट पर महराजगंज क्षेत्र से लड़ा था.

पूर्वांचल में अजय कुमार लल्लू, वीरेंद्र चौधरी और सुप्रिया श्रीनेत की तिकड़ी कांग्रेस को उबारने में कितनी सफल होती है, यह अभी भविष्य के गर्भ में है. पार्टी ने संघर्षशील युवा नेताओं को सामने लाकर अपनी तरफ से चाल चल दी है.

(लेखिका राजनीतिक विश्लेषक हैं.यह लेख उनका निजी विचार है.)

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