नई दिल्ली में शनिवार शाम को एक कार्यक्रम में, स्ट्रेंज बर्डेंस: द पॉलिटिक्स एंड प्रेडिकेमेंट ऑफ राहुल गांधी के लेखक सुगाता श्रीनिवासराजू ने एक दिलचस्प सुझाव दिया: “राहुल गांधी को घोषणा करनी चाहिए कि वह प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं होंगे…उन्हें सरपरस्ती के विचार को अपनाना चाहिए और इसकी विचारधारा, इसके मूल्यों का संरक्षक बनना चाहिए.”
किसी भी तरह से, लेखक को कांग्रेस और राहुल गांधी का पेशेवर आलोचक नहीं माना जाता है. उनकी राजनीति का आलोचनात्मक मूल्यांकन करने के बावजूद, यह पुस्तक कांग्रेस नेता के प्रति संवेदना और सहानुभूति की छाप छोड़ती है. श्रीनिवासराजू कांग्रेस की वैचारिक दिशा को फिर से स्थापित करने के गांधी के दृढ़ संकल्प के प्रति आश्वस्त दिखे. 2018 में दोनों के बीच एक दिलचस्प बातचीत हुई थी. लेखक ने कांग्रेस नेता को बताया कि कैसे उन्होंने एक मार्क्सवादी विशेषज्ञ को कन्नड़ में पॉडकास्ट के लिए भगवद गीता की व्याख्या करने के लिए कहा था. उनका उद्देश्य ‘अन्य हिंदुत्व विचारों का मुकाबला करने के लिए एक प्रयोग करना था. गांधी आश्वस्त नहीं हुए. उन्होंने कहा, “मैं आपको बताऊंगा कि यह कैसे करना है. इसका मुकाबला करने का सबसे अच्छा तरीका है कि उनसे लेख छीन लिया जाए, उसे अपना बना लिया जाए… जब आप एक वैकल्पिक आख्यान का निर्माण कर रहे हों तो उन्हें अपने छोटे किलों में नृत्य करने दें. गांधी ने उनसे कहा, ” हमें उपनिषदों से उद्धरण देना चाहिए. ”
कहना मुश्किल है कि वैकल्पिक आख्यान की खोज ने भारत जोड़ो यात्रा को कैसे जन्म दिया. लेकिन श्रीनिवासराजू का सुझाव – कि गांधी को प्रधान मंत्री पद के लिए दावा छोड़ देना चाहिए – दिलचस्प है. सिर्फ इसलिए नहीं कि कांग्रेस के पास एक शक्तिशाली विकल्प है, बल्कि इसलिए भी क्योंकि उसमें भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की आजमाई हुई चुनावी रणनीति को विफल करने की क्षमता है. लेकिन इस बिंदु पर आने से पहले, आइए राहुल गांधी की हेमलेटियन दुविधा (क्या करें, क्या न करें) पर नजर डालें – पीएम उम्मीदवार बनें या न बनें, ‘जहर’ खाएं या न पिएं.
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राहुल गांधी की हेमलेटियन दुविधा
उस समय से जब उन्होंने मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल में शामिल होने से इनकार कर दिया और बाद में सत्ता को “जहर” घोषित कर दिया, तब से राहुल गांधी अपनी प्रधान मंत्री पद की महत्वाकांक्षाओं पर गोलमोल बातें करते रहे हैं. अनुभवी पत्रकार नीरजा चौधरी ने अपनी हाल ही में जारी पुस्तक हाउ प्राइम मिनिस्टर्स डिसाइड में के नटवर सिंह के हवाले से कहा है कि राहुल की “अतिवादी कदम उठाने” की धमकी के कारण ही सोनिया गांधी को 2004 में प्रधान मंत्री पद का “त्याग” करने के लिए मजबूर होना पड़ा था.
नौ साल बाद, उनकी शक्ति-ज़हर वाली टिप्पणी पर कांग्रेस नेताओं को जयपुर में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (एआईसीसी) सत्र में अपने आंसू पोंछने के लिए रूमाल उधार लेना पड़ा. हालांकि, जनवरी 2014 तक, वह यह कहते हुए पुनर्विचार कर रहे थे कि उनकी टिप्पणी का मतलब यह नहीं था कि यदि संगठन ने जिम्मेदारी देती है तो वह जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार नहीं होंगे. उन्होंने कांग्रेस कार्य समिति (सीडब्ल्यूसी) सहित पार्टी के सभी प्रमुख पदों पर अपने परिवार के वफादारों और पिछलग्गुओं को बिठाकर संगठन पर मजबूत पकड़ बनाए रखी है. पार्टी में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के लिए वह वही हैं जो संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार के मामलों में मनमोहन सिंह के लिए सोनिया गांधी थीं.
हालांकि, कांग्रेस नेता उनकी भविष्य की योजनाओं के बारे में अभी भी अनुमान ही लगाते रहते हैं, क्योंकि उनकी शासन के मुद्दों में खास रूचि दिखाई नहीं देती है. वह नफरत के खिलाफ प्यार का आख्यान बना रहे हैं और प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी पर हमला कर रहे हैं. हालांकि नीतिगत मामलों में राहुल गांधी की लापरवाही भी साफ जाहिर है. वह शासन के किसी भी क्षेत्र से संबंधित विधेयकों पर बहस में भाग लेने में बहुत कम रुचि दिखाते हैं. संसद के अंदर या बाहर उनके भाषण ज्यादातर बयानबाजी से ज्यादा कुछ नहीं होती. इनमें से कोई भी शासन की बारीकियों से निपटने के लिए उनकी तत्परता या उत्सुकता का संकेत नहीं देता है. फिर भी, 2024 हो या उसके बाद उन्होंने कभी भी खुद को पीएम की दौड़ से बाहर नहीं किया है.
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खरगे ट्रंप कार्ड के रूप में
एक समय था जब कांग्रेस के अंदरूनी लोग कहते थे, “राहुल नहीं तो कौन?” उन्होंने अपने बीच कोई दूसरा मनमोहन सिंह नहीं देखा. 2022 में खरगे के पार्टी की कमान संभालने के बाद से यह धारणा बदल रही है. उन्होंने इस बात तो समझने में शानदार समझ दिखाई है कि गांधी परिवार उनसे क्या चाहता है या क्या करने की उम्मीद करता है. कांग्रेस अध्यक्ष का पद संभालने के बाद से वह उन रेखाओं का पालन कर रहे हैं. तदनुसार, उन्होंने मई 2022 में पार्टी के नव संकल्प शिविर के समापन पर सीडब्ल्यूसी द्वारा अपनाई गई उदयपुर घोषणा को कूड़ेदान में फेंक दिया. घोषणापत्र में पार्टी को संगठन के सभी स्तरों पर 50 वर्ष से कम उम्र के लोगों को 50 प्रतिशत आरक्षण प्रदान करने के लिए प्रतिबद्ध किया गया था.
दूसरा महत्वपूर्ण निर्णय यह था कि कोई भी व्यक्ति पांच वर्ष से अधिक समय तक पार्टी के किसी पद पर नहीं रहेगा. यह विशेष रूप से महत्वपूर्ण था क्योंकि इसका मतलब होगा कि राहुल गांधी की मंडली में कुछ बड़े नामों को हटा दिया जाएगा, जिनमें केसी वेणुगोपाल, रणदीप सुरजेवाला, अविनाश पांडे – का नाम आप ले सकते हैं. इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि खरगे को उदयपुर घोषणा को खारिज करने के लिए मजबूर होना पड़ा. नवगठित सीडब्ल्यूसी के 39 स्थायी सदस्यों में से केवल तीन 50 वर्ष से कम उम्र के हैं, क्योंकि पार्टी अध्यक्ष को गांधी परिवार के सभी वफादारों को बनाए रखना था.
गांधी परिवार के लिए खरगे के बारे में ये सारी बातें आश्वस्त करने वाली हैं. 22 मई को प्रकाशित मेरे पॉलिटिकली करेक्ट कॉलम में, मैंने तर्क दिया कि विपक्षी खेमे में एक दर्जन पीएम दावेदारों के बीच, कम से कम तीन विघटनकारी विकल्प हैं- प्रियंका गांधी वाड्रा, मल्लिकार्जुन खरगे और नीतीश कुमार. मैं INDIA के नेताओं से फीडबैक लेता रहा हूं. उनके आकलन के अनुसार, प्रियंका अभी तैयार नहीं है. उनमें से कई लोगों का मानना है कि जहां तक बीजेपी की रणनीति का सवाल है, नीतीश कुमार की कुर्मी जाति और बिहारी पीएम का नारा बहुत विघटनकारी हो सकता है. लेकिन अगर पीएम मोदी के ट्रैक रिकॉर्ड की तुलना में सार्वजनिक धारणा की अगर बात करें तो पिछले दशक में बिहार के सीएम का शासन रिकॉर्ड ” नकारात्मक” हो सकता है.
अपने कॉलम में, मैंने तर्क दिया था कि जगजीवन राम के बाद, किसी भी दलित नेता के पास 17 प्रतिशत दलित आबादी वाले देश में पीएम पद के दावेदार के रूप में देखे जाने लायक राजनीतिक ताकत नहीं है. दलितों के बीच मायावती की विश्वसनीयता काफी कम हो गई है, और इसलिए, प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में खरगे मजबूत विकल्प हो सकते हैं.
राहुल गांधी बनाम खरगे
आज, मैं अपने तर्क को मजबूत करने के लिए कुछ और बिंदु प्रस्तुत करता हूं. पीएम मोदी और अन्य बीजेपी नेता राहुल गांधी को नीचा दिखाने के लिए किन बातों का इस्तेमाल करते हैं?
सबसे पहले, वह कहते हैं कि वह डायनास्ट वंशवाद के प्रतीक हैं. खरगे एक गरीब परिवार से आते हैं. उनके पिता एक खेतिहर और फैक्ट्री मजदूर थे.
दूसरा, भाजपा नेताओं के अनुसार, गांधी परिवार अल्पसंख्यक तुष्टीकरण का पर्याय है. खरगे जब सात साल के थे, तब उन्होंने अपनी मां और बहन को खो दिया था, जब रजाकारों-हैदराबाद निज़ाम का समर्थन करने वाले मुस्लिम मिलिशिया-ने उनकी झोपड़ी में आग लगा दी और उन्हें मार डाला. छोटा लड़का और उसके पिता, जो घर में नहीं थे, बाल-बाल बच गये. भाजपा के लिए खरगे पर अल्पसंख्यक तुष्टिकरण या हिंदू विरोधी आरोप लगाना मुश्किल होगा.
तीसरा, भाजपा सोनिया और राहुल गांधी के खिलाफ नेशनल हेराल्ड मामले और रॉबर्ट वाड्रा के खिलाफ मामलों का हवाला देते हुए गांधी परिवार को भ्रष्ट बताती है. खरगे का रिकॉर्ड बेदाग है.
चौथा, बीजेपी राहुल गांधी पर शासन की कोई समझ या अनुभव न होने को लेकर तंज कसती है. खरगे 1978 में कर्नाटक सरकार में मंत्री बने और तब से राज्य के साथ-साथ केंद्र में भी कई महत्वपूर्ण मंत्रालय चला चुके हैं.
पांचवां, भाजपा राहुल गांधी को एक गैर-गंभीर, अंशकालिक, विशेषाधिकार प्राप्त राजनेता के रूप में चित्रित करती है जो अपनी पार्टी के सहयोगियों के साथ भी सम्मान पूर्वक व्यवहार नहीं करता है. 81 साल की उम्र में भी खरगे 24×7 राजनेता हैं जो पार्टी में अपने प्रतिद्वंद्वियों के साथ भी सम्मान से पेश आते हैं. मैं केवल दो उदाहरण दूंगा – कर्नाटक के मुख्यमंत्री के रूप में सिद्धारमैया की पसंद और सीडब्ल्यूसी में शशि थरूर का शामिल होना.
ऐसे और भी कई कारण हैं जिनकी वजह से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में खरगे भाजपा को एक नई रणनीति के साथ वापस आने के लिए मजबूर कर सकते हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि INDIA गठबंधन खेमे में भी, प्रधानमंत्री पद के दावेदारों को किसी दलित नेता की उम्मीदवारी का विरोध करना मुश्किल होगा.
सबसे अच्छी बात यह है कि जीतें या हारें, प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में खरगे कांग्रेस को एक हद तक अपने पारंपरिक दलित वोट बैंक को वापस पाने में मदद कर सकते हैं, ऐसे समय में जब दलित भाजपा जैसे विकल्प तलाश रहे हैं.
खरगे के पीएम उम्मीदवार होने से विपक्ष के लिए काफी संभावनाएं हैं. लेकिन ऐसा होने के लिए, राहुल गांधी को हेमलेटियन दुविधा को हल करना होगा. और कांग्रेस में कोई नहीं है जो उन्हें बता सके कि क्या करना है. एक बार श्रीनिवासराजू के साथ बातचीत में, जैसा कि उनकी पुस्तक में उल्लेख किया गया है, गांधी ने उनसे पूछा कि संभवतः बुद्ध जैसे किसी व्यक्ति जिन्होंने प्रबोधन प्राप्त कर लिया है का गुरु कौन हो सकता है. कांग्रेसके लिए और भारत के लिए भी यह लाख टके का सवाल है.
(अनुवाद: पूजा मेहरोत्रा)
डीके सिंह दिप्रिंट में राजनीतिक संपादक हैं. विचार व्यक्तिगत हैं.
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