कोलकाता की भवानीपुर विधानसभा सीट के उपचुनाव गहरे संकेत दे रहे हैं, जिसका राष्ट्रीय राजनीति पर खासा असर पड़ने वाला है. ये उपचुनाव सिर्फ पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की जीत या हार से जुड़ा नहीं है. यहां तक कि भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने भी कोई अपनी आंखें बंद नहीं कर रखी हैं. वे जानते हैं कि वास्तव में यहां उनके उम्मीदवार की जीत से ज्यादा क्या दांव पर लगा हुआ है.
भवानीपुर से मिल रहे संकेत दरअसल अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) जैसे क्षेत्रीय दलों की बढ़ती महत्वाकांक्षाओं से जुड़े हैं. ममता बनर्जी ने 22 सितंबर को अलीपुर में प्रचार के दौरान कहा, ‘हम भारत के विभिन्न हिस्सों में लड़ेंगे. त्रिपुरा में खेला होबे, असम में खेला होबे, गोवा में खेला होबे, यूपी में खेला होबे…भाजपा को पता होना चाहिए कि आखिरकार एक पार्टी उसका मुकाबला करने के लिए सामने आ गई है.’
चार दिन बाद रविवार को उनके भतीजे और सांसद अभिषेक बनर्जी ने भवानीपुर निर्वाचन क्षेत्र के एक अन्य हिस्से में यही बात दोहराई, ‘तैयार रहें…हम अपनी राजनीतिक लड़ाई बंगाल से बाहर ले जाने के लिए तैयार हैं.’
ऐसा नहीं है कि ये बातें वे सिर्फ कहने के लिए कह रहे हैं. प्रशांत किशोर की इंडियन पॉलिटिकल एक्शन कमेटी (आई-पीएसी) का सहयोग ले रही तृणमूल कांग्रेस के नेताओं ने असम, गोवा और त्रिपुरा में पहले से ही डेरा डाल रखा है. पार्टी की मंशा उत्तर प्रदेश के चुनावी मैदान में उतरने की भी है.
तृणमूल कांग्रेस की ओर से सोमवार को कांग्रेस को एक बड़ा झटका लगा, क्योंकि गांधी परिवार के वफादार माने जाने वाले गोवा के पूर्व सीएम लुइजिन्हो फलेरियो संभवत: ममता की पार्टी में शामिल होने वाले हैं.
आम आदमी पार्टी (आप) भी पंजाब, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात और गोवा में चुनावी बिगुल फूंक चुकी है और कई तरह के मुफ्त उपहारों का वादा कर रही है. महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) और शिवसेना कांग्रेस के गठबंधन सहयोगी हैं, लेकिन दोनों ही कांग्रेस की कीमत पर अपना जनाधार बढ़ाने की कोशिश में लगे हैं. यही नहीं केरल में तो माकपा भी कांग्रेस के दलबदलुओं को अपने खेमे में ला रही है. तमिलनाडु में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (द्रमुक) ने एक राज्यसभा सीट देने से इनकार करके कांग्रेस को आइना दिखा दिया है, जबकि उन्होंने विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को केवल 25 सीटों पर लड़ने के लिए राजी करने के बदले इसका वादा किया था. कांग्रेस अब राज्य में स्थानीय निकाय चुनावों में द्रमुक के साथ समझौते से कतरा रही है. वहीं, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) में से कोई भी कांग्रेस से नजदीकी बढ़ाने में इच्छुक नहीं है.
यह स्थिति तब है जब सोनिया गांधी भाजपा से मुकाबले के लिए समान विचारधारा वाली पार्टियों का मोर्चा बनाने की कोशिशों में जुटी हैं. विपक्षी एकजुटता की ऐसी किसी व्यवस्था की सफलता इसमें निहित अंतर्विरोधों और परस्पर विरोधी महत्वाकांक्षाएं खुलकर सामने आने के कारण हमेशा संदेह से घिरी रही है. लेकिन देश के अधिकांश हिस्से में हाशिये पर धकेली जा चुकी जीओपी या ग्रैंड ओल्ड पार्टी अपना अस्तित्व बचाए रखने की कवायद के तहत यह रणनीति आजमा रही है क्योंकि यह नरेंद्र मोदी की अगुआई में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को हराने में असमर्थ है. एक मायने में सोनिया गांधी ने तमिलनाडु में अपनी सास दिवंगत इंदिरा गांधी के नक्शेकदम पर चलते हुए वह करने की कोशिश की है, जो उन्होंने वहां 1971 के चुनाव में किया था. केंद्र में अपनी स्थिति सुरक्षित बनाए रखने के लिए उन्होंने एक समझौते के तहत लोकसभा चुनाव द्रमुक के साथ गठबंधन में लड़ा, लेकिन विधानसभा चुनाव में मोर्चा पूरी तरह अपने द्रविड़ सहयोगी दल को सौंप दिया था. यह दक्षिणी राज्य में कांग्रेस के ताबूत में कील ठोंकने जैसा साबित हुआ. सोनिया और फिर राहुल गांधी ने केंद्रीय राजनीति में बने रहने के लिए कई राज्यों में पार्टी के मुख्य प्रतिद्वंद्वी दलों के साथ इसी तर्ज पर कुछ संशोधित फॉर्मूले आजमाए. इससे कांग्रेस की स्थिति और कमजोर हो गई, जो पहले ही मंडल-कमंडल की राजनीति के झटके से उबरने के लिए संघर्ष कर रही थी.
हाल ये है कि क्षेत्रीय दलों (हालांकि, उनमें से कुछ तकनीकी रूप से ‘राष्ट्रीय दल’ हैं जिनका आधार एक राज्य तक ही सीमित है) को अब कांग्रेस का अस्तित्व में बना रहना कतई सुहा नहीं रहा है. भाजपा को अपना दुश्मन नंबर-1 घोषित करके ये दल विभिन्न राज्यों में कांग्रेस के वोट-शेयर में सेंध लगाने की कोशिश कर रहे हैं, जो अन्यथा प्रमुख विपक्षी दल के नाते उसके खाते में जाते. उदाहरण के तौर पर टीएमसी या आप, पूर्वोत्तर या गुजरात या द्विध्रुवी राजनीति वाले किसी अन्य राज्य (जैसे गुजरात, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, आदि) में केवल प्रमुख विपक्षी दल—जो कि कांग्रेस है—की कीमत पर ही आगे बढ़ेंगे.
क्षेत्रीय दलों के निशाने पर क्यों है कांग्रेस
सबसे पहली बात तो यह है इन पार्टियों में से अधिकांश—चाहे वह टीएमसी, आप, एनसीपी, एसपी, बसपा, तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) हो या फिर वाईएसआर कांग्रेस पार्टी—का कोर वोट बैंक कांग्रेस से ही छिटककर बना था. आज भी इनकी जंग उसी वोट बैंक की होती है. लोकनीति-सीएसडीएस नेशनल इलेक्शन स्टडीज के मुताबिक, जैसा संजय कुमार ने द इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित अपने एक लेख में कहा है, कांग्रेस और क्षेत्रीय दल दोनों राष्ट्रीय चुनावों में अपना वोट शेयर गंवा रहे हैं. पिछले सात लोकसभा चुनावों में, कांग्रेस का वोट शेयर 20 से 30 प्रतिशत के बीच रहा है, जो 2014 और 2019 में 20 प्रतिशत से भी थोड़ा नीचे आ गया. क्षेत्रीय दलों के मामले में यह गिरावट ज्यादा तेज रही है. 2019 में उन्हें 26.4 फीसदी वोट मिले जबकि उससे पहले पांच चुनाव में इनका वोट शेयर 30 फीसदी से ऊपर रहा था. जाहिर है कि इन दोनों की कीमत पर फायदा भाजपा को हो रहा है.
कांग्रेस के और पतन की ओर जाने के संकेतों के बीच क्षेत्रीय दलों को कांग्रेस की कीमत पर अपने नुकसान की भरपाई की कोशिश करने का एक अच्छा अवसर मिल गया है. उदाहरण के तौर पर पश्चिम बंगाल में कांग्रेस का वोट बैंक टीएमसी और भाजपा के बीच बंट गया है. इधर, दिल्ली में कांग्रेस का ही एक बड़ा वोट शेयर आप के खाते में गया जबकि तेलंगाना में यह टीआरएस को मिला, और यही हाल अन्य जगहों का भी है. ये इन पार्टियों के लिए अच्छा मौका है कि बचे-खुचे जनाधार पर भाजपा कब्जा जमा ले, इससे पहले वही इसे अपने खाते में लाने की कोशिश करें.
दूसरा, इनमें से कुछ क्षेत्रीय/राष्ट्रीय दलों को अब अपने घरेलू मोर्चे पर भाजपा से मुकाबले के लिए कांग्रेस के समर्थन की जरूरत नहीं है—जैसे बंगाल में टीएमसी, दिल्ली में आप, तमिलनाडु में डीएमके आदि. ऐसे में राष्ट्रीय विकल्प के रूप में उभरने के लिए उनकी कोशिश अन्य राज्यों में अपने विस्तार के लिए कांग्रेस के वोट शेयर में सेंध लगाने की है. इसका श्रेय घरेलू मैदान पर उनके भाजपा से जीतने को जाता है, और इन छोटे दलों को भरोसा है कि अगर अन्य राज्यों में कांग्रेस उनके रास्ते से हट जाए तो वह वहां भी ऐसा प्रदर्शन दोहरा सकते हैं. असम में कांग्रेस के एक प्रमुख चेहरे सुष्मिता देव और गोवा में लुइजिन्हो फलेरियो का टीएमसी में शामिल होना और यहां तक कि पूर्व कांग्रेसी प्रद्योत देबबर्मन का ममता के साथ बातचीत करना इसी ट्रेंड को दर्शाता है.
तीसरा, इन छोटे दलों का एक ऐसी पार्टी के तौर पर कांग्रेस के ऊपर कोई भरोसा नहीं रह गया है जो भाजपा के खिलाफ किलेबंदी में सक्षम हो. इसलिए, उन्हें सिर्फ अपने बलबूते पर भगवा पार्टी को सत्ता से हटा पाने का भरोसा भले ही न हो लेकिन पूरी तरह पस्त पड़ चुकी कांग्रेस का कंधा बनकर इस लड़ाई में उसका अस्तित्व बचाए रखने में भी उन्हें कोई औचित्य नजर नहीं आता है. इसके बजाये कांग्रेस का खत्म हो जाना उनके लिए ज्यादा फायदेमंद हो सकता है.
चौथा, कांग्रेस का फिर से मजबूत होना उनमें से कई के लिए आगे उसी तरह चुनौतीपूर्ण हो सकता है, जैसा आज भाजपा से है. उदाहरण के तौर पर टीआरएस के के. चंद्रशेखर राव के लिए आज भाजपा के साथ लड़ना बेहतर है, बजाये इसके कि तेलंगाना में कांग्रेस के फिर मजबूत होने की स्थिति में वह दोहरे मोर्चे पर जंग लड़ें. ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल के मामले में भी स्थिति यही है.
आखिर में, सबसे अहम बात यह कि जब तक कांग्रेस किसी भी संभावित गठबंधन में प्रमुख खिलाड़ी बनी रहती है, क्षेत्रीय क्षत्रपों के लिए अपनी निजी महत्वाकांक्षाएं—प्रधानमंत्री के प्रतिष्ठित पद पर काबिज होना—पूरी कर पाना मुश्किल होगा. ऐसे में और कुछ नहीं तो अस्तित्व बचाने के लिए हाथ-पैर मारती कांग्रेस उनके लिए उम्मीदों को बढ़ाने वाली ही है.
लेखक का ट्विटर हैंडल @dksingh73 है. व्यक्त विचार निजी हैं.
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