कांग्रेस के 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए जारी घोषणा-पत्र को कई मायनों में क्रांतिकारी माना जा रहा है. ऐसा भी लग रहा है कि इस घोषणा-पत्र पर सामाजिक न्याय के पक्षधरों की गहरी छाप है, लेकिन कांग्रेस की घोषणाओं पर और उन घोषणाओं पर उसके खुद के रवैये पर कई सवाल उठ रहे हैं.
ये सवाल इसलिए उठ रहे हैं क्योंकि कांग्रेस ने जो क्रांतिकारी और भारी बदलाव वाले वादे अपने घोषणा-पत्र में शामिल किए हैं, उनको उन्हीं के नेता अपने भाषणों में या तो शामिल नहीं कर रहे हैं, या फिर बहुत हल्के-फुल्के रूप में ले रहे हैं.
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क्या हैं कांग्रेस के क्रांतिकारी वादे
कांग्रेस के ऐसे ज्यादातर वादे सामाजिक न्याय से संबंधित हैं. आइए, पहले जानते हैं, ऐसी कौन-से वादे कांग्रेस ने अपने घोषणा-पत्र में किए हैं, जिन पर अमल किया जाए तो सामाजिक स्थिति में भारी बदलाव हो सकता है, और अगर कांग्रेस उनको अपने भाषणों में केंद्रीय मुद्दा बनाए, तो कांग्रेस की स्थिति में भारी फर्क आ सकता है.
कांग्रेस ने अपने घोषणा-पत्र के जरिए माना है कि एससी, एसटी और ओबीसी की आबादी 75 प्रतिशत है. कांग्रेस ने इनके लिए समान अवसर आयोग बनाने का वादा किया है. 200 पॉइंट रोस्टर के मूल इरादे के बहाल करने के लिए कांग्रेस ने कानून पारित करने का भी वादा किया है.
सबसे बड़ा वादा कांग्रेस का ये है कि 12 महीनों के अंदर सरकारी, अर्धसरकारी, सार्वजनिक क्षेत्र के संगठनों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के बैकलॉग को पूरा करेगी. ये अकेला वादा ऐसा है जिसे कांग्रेस ठीक तरह से प्रचारित करे तो पूरा चुनावी परिदृश्य उसके पक्ष में हो सकता है.
इसके अतिरिक्त अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के कर्मचारियों-अधिकारियों को प्रमोशन में आरक्षण दिलाने का भी वादा कांग्रेस ने किया है. ये अपने आप में बहुत क्रांतिकारी घोषणा है, जिसकी बात आज तक किसी भी बड़ी पार्टी ने नहीं की है.
कांग्रेस गैर दलितों के कब्ज़े की पंचमी और महर भूमि का अधिग्रहण करके उसे अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के भूमिहीन लोगों में वितरित कराने का भी वादा इस साल के घोषणा-पत्र में कर चुकी है. इससे गांवों में भूमि संबंध बदल जाएंगे.
कांग्रेस के ये सारे वादे अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग से संबंधित हैं जिनकी आबादी खुद कांग्रेस ने चुनाव घोषणा-पत्र में 75 प्रतिशत बताई है. हालांकि जातिगत जनगणना का वादा कांग्रेस ने नहीं किया है, लेकिन एक साल के अंदर सारा बैकलॉग भरने का वादा इसकी भरपाई कर सकता है.
बैकलॉग भरने का वादा अगर कांग्रेस ने निर्धारित समय में निभा दिया तो देश के प्रशासनिक और सामाजिक ढांचे में आमूल-चूल परिवर्तन आ सकता है. ऐसे में यह समझना मुश्किल नहीं है कि इस वादे का राहुल गांधी और कांग्रेस के अन्य नेता ढंग से प्रचार करें तो 2019 के चुनाव परिणाम कांग्रेस के पक्ष में अप्रत्याशित रूप से झुक सकते हैं.
कांग्रेस के वादों पर शंका क्यों
शंका कांग्रेस की शैली और रणनीति के कारण हो रही है. कांग्रेस सामाजिक न्याय के पक्ष वाले इन वादों का प्रचार ठीक उसी तरह से नहीं कर रही है जिस तरह से मध्य प्रदेश में कांग्रेस की कमलनाथ सरकार ने ओबीसी का आरक्षण बढ़ाकर 27 प्रतिशत करने के फैसले के साथ किया था. कांग्रेस ने मध्य प्रदेश की ओबीसी जनता की बड़ी मांग पूरी की थी, लेकिन उसने ये काम बड़ी खामोशी के साथ, और किसी सामान्य फैसले की तरह किया.
ऐसा लग रहा था कि कांग्रेस डर रही थी कि अगर इस फैसले को जोर-शोर से प्रचारित किया गया तो कहीं सवर्ण आबादी उसके खिलाफ खड़ी न हो जाए. सवाल यही उठता है कि सवर्ण आबादी की नाराजगी का डर इतना ही था तो फिर ओबीसी का आरक्षण बढ़ाया ही क्यों?
कांग्रेस की अपने ही क्रांतिकारी वादों पर आश्चर्यजनक चुप्पी अगर जारी रही तो स्वाभाविक है कि इसका उसे कोई राजनीतिक फायदा नहीं मिलेगा. वहीं जागरूक सवर्ण तबके को तो कांग्रेस के इन वादों का पता चल ही गया है और इस कारण वह तबका भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में और ज्यादा लामबंद हो जाएगा.
कांग्रेस को ये समझने की जरूरत है कि एक साथ एससी, एसटी और ओबीसी की विशाल आबादी के साथ वह कट्टर सवर्ण आबादी को नहीं साध सकती. आगे भी उसे या तो इन वादों से मुकरना पड़ेगा, या फिर इन पर अमल करते समय उसे सवर्ण आबादी का कोपभाजन उसी तरह से होना पड़ सकता है जिस तरह से मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करने पर वीपी सिंह को होना पड़ा था. कांग्रेस का डर भी शायद यही है.
वादों से मुकरने का रिकॉर्ड है कांग्रेस का
ऐसा कहीं से नहीं लग रहा है कि कांग्रेस ने इन वादों और घोषणाओं को अपना प्रमुख चुनावी मुद्दा बनाने का इरादा बनाया है. संदेह यह तक होने लगा है कि कांग्रेस शायद लोकसभा चुनावों के बाद इन वादों को निजी क्षेत्र में आरक्षण देने के अपने 2004 के वादे की तरह भूलने की तैयारी में है.
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अगर कांग्रेस अपने घोषणा-पत्र के वादे पूरा नहीं करती है जिसकी संभावना कम नहीं है, तो उसे कुछ बड़े नुकसान होने तय हैं. इन नुकसानों में मुख्य तो यह है कि जो थोड़ा-बहुत ओबीसी तबका उसकी ओर आकर्षित हुआ है, वह फिर से दूर जाने लगेगा. इसके अलावा, आने वाले समय में जब कई राज्यों के विधानसभा चुनाव होंगे तब उसे इन तबकों की नाराजगी झेलनी पड़ सकती है.
ऐसे में कांग्रेस अगर सोच रही है कि मिली-जुली या गोल-मोल बातें करके वह दोनों तबकों को बहला लेगी तो उसे किसी चुनाव परिणाम में किसी बहुत बड़ी सफलता की उम्मीद छोड़ देनी चाहिए. ये लड़ाई या तो इस तरफ रहकर जीती जा सकती है, या उस तरफ जाकर.
(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं.)