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Friday, 22 November, 2024
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भाजपा को धूल चटाने के लिए छत्तीसगढ़ फार्मूला अपनाए कांग्रेस

कांग्रेस अपनी सही जातीय रणनीति की बदौलत यहां पर चौका मार गयी जहां इसने अपना ध्यान जनजातियों से हटाकर अन्य पिछड़े वर्गों की ओर किया

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पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के विश्लेषण में छत्तीसगढ़ को उतनी तवज्जो नहीं मिल पाई. यह एक जनजातियों के प्रभुत्व वाला, संघर्ष से जूझता राज्य है. लेकिन यह छत्तीसगढ़ ही है जिसने सबसे ज़्यादा रोचक और अनअपेक्षित परिणाम दिखाए हैं.

आखिरी बार ऐसा कब हुआ था जब कांग्रेस ने किसी भी चुनाव को 2/3 जैसे बड़े भारी बहुमत के साथ जीता था? छत्तीसगढ़ में ही पार्टी ने 90 में से 68 सीटें प्राप्त की. हालांकि इसकी वोटों में हिस्सेदारी बहुत कम ही दर से बढ़ी (2013 की दर 40.3 प्रतिशत, 2018 में दर 43 प्रतिशत हुई). लेकिन सही उम्मीदवार और सही रणनीति के चलते यह एक अच्छा सीट परिवर्तन दिखा पाई.

वहीँ जहां 2013 में भाजपा का इस राज्य में 41 प्रतिशत वोटों पर कब्ज़ा था और 2014 में 49 प्रतिशत हिस्सेदारी थी, 2018 तक आते-आते अब यही संख्या 33 प्रतिशत पर सिमट गई है. इनमें से ज़्यादातर वोट अजीत जोगी की जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ (जेसीसी) के पाले में जाती हुई प्रतीत हुई हैं. लेकिन कांग्रेस अपनी सही जातीय रणनीति की बदौलत यहां पर चौका मार गयी जहां इसने अपना ध्यान जनजातियों से हटाकर अन्य पिछड़े वर्गों की ओर किया.


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छत्तीसगढ़ को अक्सर जनजातियों के प्रभुत्व वाला राज्य माना जाता है जोकि गलत है क्योंकि यहां की 45 प्रतिशत आबादी अन्य पिछड़े वर्ग या ओबीसी में आती है. इस वर्ग में अधिकांश रूप से कृषि संकट से जूझ रहे किसान होने की सम्भावना है. क़र्ज़ माफ़ी के अपने वादे और न्यूनतम मूल्यों में बढ़ावे के वचन के साथ-साथ ओबीसी वर्ग को लुभाने की रणनीति ने कांग्रेस को 68 सीटें दिलाने में काफी मदद की.

भाजपा अक्सर वोटों की हिस्सेदारी में मामूली सी बढ़त दर्ज कर ज़्यादा सीटें जीतती है. यह अच्छे टिकट वितरण और प्रभावी कैंपेन का प्रतिबिम्ब है.

इसी साल जुलाई में जब कांग्रेस के नए अध्यक्ष राहुल गांधी ने कांग्रेस की कार्यकारी समिति गठित की, उसमें उन्होंने ताम्रध्वज साहू को भी मेंबर बनाया. नोट करने लायक बात यह है कि दिग्विजय सिंह जैसे दिग्गज नेता को भी इस समिति में जगह नहीं मिली. साहू छत्तीसगढ़ से कांग्रेस पार्टी के एक मात्र लोक सभा सांसद हैं. 2014 में राज्य की 11 में से 10 सीटें तो भाजपा ने ही जीती थीं. साहू राज्य के मतदाताओं का 16 प्रतिशत हिस्सा हैं. ताम्रध्वज साहू पार्टी के मुख्य प्रचारकों में से एक थे और टिकटों के वितरण में भी उनकी सुनी जाती थी. छत्तीसगढ़ में साहू छोटे व्यापारी हैं और पारम्परिक रूप से भाजपा को वोट देते आए हैं.

दूसरा बड़ा ध्यान कुर्मी जाती के लोगों पर गया, जो प्रदेश की आबादी का 20 प्रतिशत हैं. 2014 में भूपेश बघेल जो एक कुर्मी हैं, को पार्टी की प्रदेश ईकाई का अध्यक्ष बनाया गया. रमन सिंह के खिलाफ उग्रता के साथ राजनीती करने और अपनी देखरेख में अजीत जोगी व उनके पुत्र को पार्टी से निकासित करने की वजह से ही उन्होंने मुख्य मंत्री का ओहदा हासिल किया है. अजित जोगी, जो एक जनजातीय नेता हैं को मज़ाक-मज़ाक में रमन सिंह की कैबिनेट का 14वां सदस्य भी कहा जाता था.


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छत्तीसगढ़ फार्मूला

ओबीसी का बोलबाला सिर्फ छत्तीसगढ़ में ही नहीं है. और तो और ओबीसी कोई एक या दो बड़े प्रभावी गुट नहीं हैं, इनमें भी अनगिनत छोटे समुदाय भी शामिल हैं.

छत्तीसगढ़ चुनावों से कांग्रेस पार्टी हर राज्य में ओबीसी नेतृत्व में सुधार करने की सीख ले सकती है. भाजपा के लिए यह काफी सफल साबित हुआ है. प्रधानमंत्री मोदी खुद भी एक छोटे ओबीसी समुदाय से हैं. अशोक गहलोत भी माली जाति से ताल्लुक रखते हैं.

उत्तर प्रदेश और बिहार की भांति राजस्थान में कांग्रेस शायद इसलिए भी ढह नहीं पाई क्योंकि अब इसने उच्च जातीय नेतृत्व से ओबीसी नेतृत्व की ओर बदलाव किया है. सौभाग्य से कांग्रेस के लिए भविष्य में अभी से ही एक ओबीसी विकल्प तैयार है: सचिन पायलट.

कर्नाटक में सिद्धरमैया की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. हमनें अब यह भी देखा है कि कैसे कांग्रेस पार्टी ने छत्तीसगढ़ में एक ओबीसी निर्वाचन क्षेत्र में पकड़ बना ली है. यह उस पार्टी के लिए काफी बड़ी उपलब्धि है जो ‘ सोशल इंजीनियरिंग’ करने में अक्षम रही है. ऐसा इसलिए भी हुआ क्योंकि राहुल गांधी ने खुद टिकेटों के आवंटन में रूचि दिखाई, और वे दिल्ली स्थित अपने दरबारियों की बातों में नहीं आए.

मध्य प्रदेश में कमलनाथ ने भी मुख्यमंत्री का पद मिला है. लेकिन वे एक ब्राह्मण हैं, और पार्टी को अब भी ओबीसी समुदाय में अपनी जगह बनाए रखनी है, खासतौर पर तब जब मध्य प्रदेश पर 15 सालों से शिवराज सिंह चौहान, जो एक ओबीसी हैं, का शासन था.

चाहे यूपी हो या गुजरात, हरियाणा हो या बिहार, भाजपा की कामयाबी ज़्यादातर ओबीसी वोटों से ही आती है. यदि अपनी ‘किसान, किसान, किसान’ मन्त्र में कांग्रेस ‘ओबीसी, ओबीसी, ओबीसी’ भी डाल दे, तो 2019 में अच्छी संभावनाएं आ सकती हैं. जैसा छत्तीसगढ़ ने दिखाया है, ओबीसी की तरफ एक छोटे से बदलाव से ही भाजपा को मुंह की खानी पड़ी है. छत्तीसगढ़ पूरे भारत में दोहराए जाने लायक एक मॉडल है.

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