इन दिनों राहुल गांधी खुद को एक मायने में अजीबोगरीब हालात में पाते हैं. जब कुछेक मौकों पर वे एकदम सही हैं तब भी दुनिया सोचती है कि वे गलत हैं. हाल के कांग्रेस चिंतन शिविर में उनके भाषण पर क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं के हमले पर ही गौर करें.
उदयपुर में शिविर के समापन के दिन राहुल गांधी ने कहा, ‘भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) कांग्रेस के बारे में बात करेगी. वह कांग्रेस नेताओं के बारे में बात करेगी, कांग्रेस कार्यकर्ताओं के बारे में बात करेगी, लेकिन क्षेत्रीय पार्टियों के बारे में बात नहीं करेगी क्योंकि वे जानते हैं कि क्षेत्रीय पार्टियों की अपनी जगह है लेकिन वे बीजेपी को हरा नहीं सकती हैं, क्योंकि उनके पास विचारधारा नहीं है.’
राजनैतिक आकलन के मामले में इसमें दम है. कांग्रेस भले चुनाव-दर-चुनाव हारती चली जाए, वह बीजेपी के हमले के मोर्चे पर सबसे आगे है. राहुल गांधी को मूर्ख, ‘पप्पू’ की तरह पेश करने के अभियानों में सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च किए गए हैं. यानी यह बताने में कि उनका पार्टी से मतलब डिस्को पार्टी है.
राहुल नरेंद्र मोदी को कोई खतरा पेश नहीं करते. न ही कांग्रेस अपने मौजूदा अवतार में कोई ताकतवर राजनैतिक ताकत है. तो, बीजेपी क्षेत्रीय पार्टियों पर हमले के बनिस्बत राहुल और कांग्रेस पर वार में इतना समय और पैसा क्यों खर्च करती है?
संक्षिप्त उत्तर है : दिल्ली में सरकार बनाने के मामले में कोई क्षेत्रीय पार्टी मायने नहीं रखती है. मान लें, तृणमूल कांग्रेस 40 सीटें जीत जाती है. तो भी बीजेपी की चिंता के लिए वह बड़ी संख्या नहीं है.
दूसरी तरफ, अगर कांग्रेस में जान आ जाती है, तो बीजेपी संकट में फंस सकती है. करीब 150-200 सीटें ऐसी हैं, जहां बीजेपी-कांग्रेस के बीच सीधी लड़ाई है. उन्हीं सीटों पर पिछले दो लोकसभा चुनावों में कांग्रेस का कमोवेश सफाया हो गया.
लेकिन वह अपना मामला दुरुस्त कर ले तो क्या होगा?
यह किसी भी इकलौती क्षेत्रीय पार्टी से काफी ज्यादा बड़ा खतरा है.
चिंतन शिविर में राहुल ने जो कहा, वह प्रशांत किशोर की बातों से बहुत अलग नहीं है, जो वे हाल में पत्रकारों से अपनी बातचीत में कहते रहे हैं. किशोर की दलील है कि बीजेपी को हराने का एकमात्र तरीका यही हो सकता है कि कांग्रेस में दमखम लौट आए. वे यह भी मानते हैं कि पूरी तरह दमदार बनकर उभरने के लिए पर्याप्त समय नहीं है, जिससे अगले लोकसभा चुनावों में बीजेपी को हराया जा सके.
लेकिन उनकी दलील है कि कांग्रेस में आधा दमखम भी आ जाए तो बीजेपी के बहुमत में कमी आ जाएगी और मोदी को सहयोगियों पर आश्रित होने को मजबूर होना पड़ेगा, जो उनके लिए सहज स्थिति नहीं होगी.
यहां तक कि राहुल ने क्षेत्रीय पार्टियों के बारे में जो विचारधारा न होने की बात कही, वह भी मोटे तौर पर सही है, जिस पर क्षेत्रीय नेता इस कदर बिफर गए. ज्यादातर क्षेत्रीय पार्टियां पहचान की राजनीति करती हैं. वे वोट जाति या स्थानीयता के आधार पर पाती हैं. उसमें विचारधारा का खास लेना-देना नहीं है. अगर तृणमूल की विचारधारा इतनी ताकतवर होती तो वह उत्तर प्रदेश चुनावों में वैसा ही जोरदार प्रदर्शन करती, जैसा बंगाल में किया. इसी तरह, द्रविड़ मुनेत्र कडगम (डीएमके) तमिलनाडु में इसलिए जीतती है क्योंकि वह तमिल पार्टी है, न कि ऐसी विचारधारा से जो बीजेपी को चुनौती देती हो.
इसलिए, राहुल को चाहे जितनी आलोचना मिली हो, वे सही हैं. सिर्फ कांग्रेस ही बीजेपी को हरा सकती है. क्षेत्रीय पार्टियां अपने दम पर या तीसरा मोर्चा बनाकर भी बीजेपी को हरा नहीं सकतीं, बशर्ते कांग्रेस का समर्थन न मिले.
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तो, क्या कांग्रेस किशोर मॉडल के लिए तैयार है?
मेरे पास यह जानने का कोई तरीका नहीं है कि राहुल इस नतीजे पर खुद पहुंचे हैं या वे किशोर की प्रस्तुतियों से प्रभावित हुए हैं.
लेकिन चिंतन शिविर में तय किया गया काफी कुछ राजनैतिक रणनीतिकार की प्रस्तुतियों से सीधे लिया गया लगता है. मसलन, अक्टूबर में तय देशव्यापी यात्रा किशोर की सिफारिशों को ही आगे बढ़ाना है कि पार्टी लोकसभा चुनाव का प्रचार अभियान अभी से शुरू करे, न कि चुनाव की घोषणा होने का इंतजार करे.
यहां तक कि सोनिया गांधी की केंद्रीय भूमिका में वापसी भी किशोर की योजना का हिस्सा है. इसी तरह यह भी कि चिंतन शिविर में सोनिया ने प्रतिनिधियों की बात गौर से सुनी, रात्रि भोज के दौरान उनकी मेज पर जा बैठीं, ताकि हर किसी को लगे कि उनकी पहुंच उन तक है. इन सभी बातों की सलाह किशोर ने दी थी.
समस्या यह है कि कांग्रेस ने किशोर की कई सिफारिशों पर काम करने की इच्छा दिखाई है, मगर कम से कम अभी तक वह उनकी मूल रणनीति को अपनाने की तैयारी नहीं दिखाई है.
किशोर की राय यह है कि कांग्रेस को खुद को सरकार चलाने की स्वाभाविक पार्टी के रूप में पेश करना चाहिए. हाल में उसके कुछ नेताओं की नौसिखिया कलाबाजियों के बावजूद पार्टी में देश की सरकार चलाने का गहरा प्रबंधकीय कौशल और राजनैतिक हुनर है. लेकिन बकौल किशोर, कांग्रेस की गलतियां यह हैं कि वह ‘एक पार्टी, एक नेता’ के मोदी मॉडल की नकल करती है. जैसे ही मुकाबला नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के बीच होता है, कांग्रेस पहले ही हार चुकी होती है.
उन्होंने यह समाधान यह सुझाया कि कांग्रेस देश के सामने नेताओं की एक लंबी पांत पेश करे. सोनिया गांधी अध्यक्ष जैसी शख्सियत हों मगर करीब आधा दर्जन कांग्रेस नेताओं को सामने लाना चाहिए, ताकि देश को याद दिलाया जा सके कि पार्टी में करिश्माई और अनुभवी नेता हैं. इस मॉडल में राहुल गांधी के लिए भी जगह है. शायद वे पार्टी के लोकसभा में नेता बन सकते हैं (किशोर का मानना है कि राहुल को अपने संसदीय कौशल का पर्याप्त श्रेय नहीं मिला है).
कांग्रेस यह रवैया अपना ले तो वह राहुल बनाम मोदी के मुकाबले से मुक्त हो जाती है, जिससे बीजेपी हमेशा जीत जाती है.
लेकिन इससे भी बढक़र यह है कि इससे राहुल को अपना चेहरा बचाने का मौका मिल जाता है. वे हमें यह बताने में काफी वक्त बिताते हैं कि उन्हें सत्ता में कोई दिलचस्पी नहीं है लेकिन असलियत में वे अपने हाथ की सत्ता रंच मात्र छोड़ना नहीं चाहते. किशोर मॉडल उन्हें वह मौका मुहैया कराता है कि अपने करियर को अपनी बातों के मुताबिक आगे बढ़ाएं और पार्टी के लिए ऐसी भूमिका निभाएं, जिसमें हर बार चुनाव में उन्हें अपमानित न होना पड़े.
किशोर के प्रस्तावों पर कांग्रेस में एक उत्साह तो दिखता है, मगर चिंतन शिविर में उसका जिक्र नहीं हुआ. इसके बदले, राहुल अपनी मां के बाद दूसरे नंबर पर दिखे, यानी बतौर एक संविधानेत्तर सत्ता की तरह, जिसकी नाकामियों और हार को सिर्फ उसके जन्म की वजह से माफ कर दिया जाए.
किशोर का एक दूसरा प्रस्ताव था: जिसे वे कांग्रेस के साथ बातचीत टूटने की वजह बताते हैं.
कांग्रेस को पार्टी नियुक्तियों और रणनीतियों पर फैसला लेने के लिए चार या पांच सदस्यों का समूह बनाना था. किशोर इस समूह के एक सदस्य होते. दूसरे कांग्रेस के कहीं से सदस्य हो सकते थे. वे पी. चिदंबरम जैसे वरिष्ठ नेता, दलित नेता, अल्पसंख्यक नेता वगैरह हो सकते थे. कांग्रेस ने इस विचार को मंजूर किया लेकिन उस समूह को संवैधानिक दर्जा देने से मना कर दिया. मतलब यह कि समूह अपनी सिफारिशें देता मगर उसे मानने को पार्टी बाध्य नहीं होती.
असलियत में इसके मायने यह है कि समूह ने मानो बिहार के बारे में कोई सिफारिश दी, मगर बिहार के प्रभारी महासचिव उन सिफारिशों को नजरअंदाज कर दे सकता था. या जिसकी संभावना ज्यादा है कि नियुक्तियां राहुल अपने आसपास की मंडली की सलाह पर कामचलाऊ आधार पर करते.
किशोर कहते हैं कि कांग्रेस इस पर राजी नहीं हुई, इसलिए बातचीत टूट गई और वे छोड़ आए.
चिंतन शिविर में पार्टी में फैसला करने के लिए व्यवस्था बनाने पर बात हुई लेकिन कुछ भी तय नहीं हुआ. किशोर के प्रस्तावों पर चर्चा तक नहीं हुई. इसके बदले ‘एक परिवार एक पद’ के सिद्धांत पर जोर देकर एक विसंगति पैदा की गई, जिसे सुविधाजनक तरीके से ऐसा मोड़ दिया गया, ताकि गांधी परिवार पर उसका असर न पड़े.
चिंतन शिविर की बड़ी निराशा
यह हमें समूचे मामले के केंद्र में ले जाता है. बकौल राहुल, उन्हें मालूम है कि सिर्फ कांग्रेस ही बीजेपी को हरा सकती है. तो, उन्हें यह एहसास क्यों नहीं हुआ कि ऐसा न हो पाने की एक वजह वे खुद हैं? क्या उन्हें नहीं दिखता कि उन्हें दो अलग संसदीय चुनावों में मुंह की खानी पड़ी? क्या उन्हें यह ख्याल नहीं आता कि सम्मानजनक रास्ता यही है कि वे अलग हट जाते?
वे तेजतर्रार, बुद्धिमान शख्स हैं. उन्हें यह मालूम होना चाहिए कि वे जो कुछ कहते हैं, जिसकी उन्हें (‘फासीवाद’ से लड़ाई वगैरह) फिक्र है, वह नहीं होगा, सिर्फ इसलिए कि ज्यादातर लोग उन्हें वोट नहीं देंगे. जब तक वे अगल नहीं हो जाते, कांग्रेस चाहे लाखों चिंतन शिवर कर ले, कुछ नहीं बदलेगा.
यही चिंतन शिविर की सबसे बड़ी निराशा है. वह सही दिशा में एक छोटा कदम होता. लेकिन वह पर्याप्त कतई नहीं होता. राहुल के आरएसएस विरोधी विचारों को उनके फैन चाहे जितना सराहें, यह भी याद रखना चाहिए कि ऐसी ही बातें वे दशक भर पहले बोल चुके हैं और उससे कांग्रेस की संभावनाओं पर जरा भी फर्क नहीं पड़ा है (या कहें आरएसएस पर भी).
अगर कांग्रेस को फिर पूरे दमखम से जी उठना है, तो उसे आमूलचूल बदलाव के लिए तैयार होना होगा. छोटे-मोटे बदलाव नाकाम हो चुके हैं. यहां तक कि आमूलचूल बदलाव की जरूरत महसूस करने वाले प्रशांत किशोर ने भी यह जानकर उस पर उतना जोर नहीं दिया कि उसे स्वीकार नहीं किया जाएगा. इसके बदले उन्होंने कुछ कमतर, चेहरा बचाने वाला तरीका पेश किया. लेकिन वह भी स्वीकार नहीं हुआ, खासकर इसलिए कि कांग्रेस ने यह रुख अपना लिया है कि राहुल पार्टी के चेहरे होंगे, वह लड़का जिसे कांग्रेस की सभाओं में अचानक ‘फासीवाद की बुराइयों’ पर वफादरों के बीच लेक्चर देने के लिए आगे कर दिया गया है.
अगर कांग्रेस अपना यह रुख नहीं बदलती है तो उसकी संभव संभावनाओं में भी कोई सुधार देख पाना मुश्किल है. पार्टी किशोर के कुछ प्रस्तावों पर आधे-अधूरे तरीके से काम नहीं कर सकती. उसे उनके प्रस्तावों के तर्क को समझना होगा.
कहा जाता है कि किसी पायलट को विमान उड़ाना तब तक नहीं सिखा सकते, जब तक वह विमान उतारना न सीख ले. कांग्रेस की समस्या इसके उलट है. वह ऐसे पायलट को आगे करने पर उतारू है जिसे शायद यह भी नहीं पता कि कैसे विमान उड़ाएं. लेकिन यकीनन उसने जान लिया है कि विमान को दुर्घटनाग्रस्त कैसे किया जाए.
(वीर सांघवी भारतीय प्रिंट और टीवी पत्रकार, लेखक और टॉक शो होस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त विचार निजी हैं)
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