एके एंटनी की यह टिप्पणी कि कांग्रेस को 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को हराने के लिए बहुसंख्यक हिंदू समुदाय को लामबंद करना चाहिए और अल्पसंख्यक ‘इस लड़ाई में काफी नहीं हैं‘ विचारों के गंभीर संकट को रेखांकित करता है. हालांकि, एंटनी ‘नरम हिंदुत्व’ के बारे में आशंकित रहे, लेकिन उनके भाषण में भाजपा की हिंदू उत्पीड़न की राजनीति को पूरी स्वीकृति मिलती है.
एंटनी की स्पष्ट रूप से ‘हिंदू हाव-भाव’ रखने की सलाह गैर-हिंदू समुदायों, विशेष रूप से मुस्लिमों के साथ जो कि वाजिब राजनीतिक हितधारक हैं को डील करने को लेकर कांग्रेस की बेचैनी को उजागर करती है. साथ ही, ये टिप्पणियां कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं द्वारा किए गए दावे को डिगाती हैं कि राहुल गांधी की अगुवाई वाली भारत जोड़ो यात्रा राजनीति की एक वैकल्पिक विजन पेश करेगी.
क्या इसका मतलब यह है कि कांग्रेस ने आखिरकार हिंदुत्ववादी आलोचना को स्वीकार कर लिया है कि वह हमेशा ‘मुस्लिम तुष्टिकरण’ में शामिल रही है? या इसका मतलब यह है कि मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति को ‘हिंदू तुष्टिकरण’ की प्रभावी राजनीति से बदलना होगा?
एंटनी का बयान तीन भ्रामक धारणाओं पर आधारित है:
1. हिंदू वोटरों केवल हिंदू के तौर पर अप्रोच करने की जरूरत है, महज इसलिए कि उनकी धार्मिक भावनाओं का ख्याल रखना है.
2. एक ‘मुस्लिम समर्थक’ टैग स्वाभाविक रूप से हिंदुओं को नाराज करेगा. इसलिए कांग्रेस को मुस्लिम या अल्पसंख्यक हितैषी पार्टी के रूप में नहीं दिखना चाहिए.
3. मुसलमानों को समझना चाहिए कि कांग्रेस का हिंदुत्ववादी दृष्टिकोण तार्किक रूप से उनके लिए अपने स्वाभाविक शत्रु, भाजपा को हराने के लिए फायदेमंद है.
इन धारणाओं को वस्तुतः सभी गैर-बीजेपी दल मजबूत राजनीतिक तथ्य के तौर पर स्वीकार करते हैं. ऐसा माना जाता है कि भाजपा ने इन तर्कों का सफलतापूर्वक इस्तेमाल कर अपने मतदाताओं का हिंदुत्व निर्वाचन क्षेत्र बनाया है और उन्हें पाला-पोषा है.
लेकिन ये व्यापक रूप से मानी जाने वाली धारणाएं ‘तथ्यों’ के इतर हैं.
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बीजेपी की हिंदू, कांग्रेस की मुस्लिम समर्थक छवि
लोकनीति-सीएसडीएस सर्वेक्षणों ने दिखाया है कि 2014 के बाद के भारत में भाजपा की सफलता को पूरी तरह से ‘हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं’ तक सीमित नहीं की सकती है. बेशक, हिंदुत्व से प्रेरित राष्ट्रवाद भाजपा के लिए एक महत्वपूर्ण चुनावी एजेंडा रहा है. फिर भी, पार्टी ने अन्य वैचारिक मान्यातओं की कभी उपेक्षा नहीं की.
भाजपा ने गरीबों से जुड़ी योजनाओं और राष्ट्रीय गौरव के बीच एक कड़ी स्थापित करने के लिए जन कल्याणवाद की भावना को महत्वपूर्ण तरीके से फिर से परिभाषित किया है. दूसरे शब्दों में, भाजपा हिंदू मतदाताओं से हमेशा हिंदुओं के रूप में संपर्क नहीं साधा है. इसके बजाय, हिंदूपन को गरीबी और विकास की कमी जैसे रोजमर्रा के मुद्दों से जोड़कर परिभाषित किया है.
यह दावा कि कांग्रेस की मुस्लिम समर्थक छवि आखिराकर हिंदुओं को परेशान करेगी, भी गलत है. प्यू रिसर्च सेंटर द्वारा हाल ही में किया गया एक अध्ययन ‘रिलिजन इन इंडिया: टॉलरेंस एंड सेगरेगेशन’ इस लिहाज से प्रासंगिक है.
‘धार्मिक विविधता का सम्मान’ इस रिपोर्ट के सबसे आकर्षक निष्कर्षों में से एक है. भारतीयों की बड़ी तादात का मानना है कि भारत सभी धार्मिक समूहों का है. उत्तर देने वालों का दावा है कि सभी भारतीय धर्मों के प्रति सम्मान दिखाना ‘सच्चे भारतीय’ के रूप में पहचाने जाने की एक बुनियादी नैतिक आवश्यकता है. इसका सीधा सा मतलब है कि हिंदू और मुसलमान खुद को दुश्मन नहीं मानते. यह वास्तव में राजनीतिक वर्ग की समस्या है जो चुनावी अखाड़े में सांप्रदायिक पहचान और रूढ़िवादिता का इस्तेमाल करते हैं.
यह हमें तीसरी धारणा पर लाता है: कांग्रेस की भविष्य की सफलता मुसलमानों को भाजपा से छुटकारा दिलाने में मदद करेगी. यह एक पेचीदा फॉर्मूलेशन है. यह सच है कि बीजेपी सीधे तौर पर मुस्लिम वोटरों में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाती है. लेकिन, पसमांदा मुसलमानों तक पहुंचने का पार्टी का हालिया प्रयास एक चतुर रणनीति है जो अच्छे तरीके से खेली गई है. इस बीच, भाजपा ने प्रभावी रूप से यह स्थापित किया है कि हिंदू हितों की अनदेखी करने के लिए मुसलमानों को धर्मनिरपेक्ष पार्टियों द्वारा हमेशा अनुचित लाभ दिया गया है.
कोई भी इस तथ्य से इनकार नहीं कर सकता कि कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता के नाम पर चुनावी संतुलन बनाने के लिए मुस्लिम इलीट वर्ग को तुष्ट किया. हालांकि, इस ‘इलीट तुष्टिकरण’ का गरीब और हाशिए पर रहने वाले मुसलमानों के रोजमर्रा के जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा.
यही कारण है कि भारत में मुसलमानों का मतदान पैटर्न हमेशा बहुत ही विविधतापूर्ण रहता है. वे भाजपा को वोट देने से भी नहीं हिचकिचाये. ज़ाहिर है, मुसलमान केवल भाजपा को हराने के लिए चुनावी राजनीति में हिस्सा नहीं लेते; इसके विपरीत, बिना चुनावी मैदान में वे अपने धार्मिक विश्वास को छोड़े अपनी पहचान धर्मनिरपेक्ष मतदाताओं के रूप में पेश करते हैं.
सबाल्टर्न मुसलमान और जमीनी स्तर का भारत
मेरे विचार से, समकालीन भारतीय मुस्लिम पहचान के दो पहलुओं को स्वीकार करने की आवश्यकता है.
1. ऐसा माना जाता है कि मुसलमानों को एक जैसे समुदाय के रूप में माना जाता है जिसे समान रूप से एक जैसे हिंदू समुदाय के खिलाफ खड़ा किया जा सकता है.
2. विभिन्न संदर्भों में एक जीवित पहचान के रूप में मुस्लिम होना उनके रोजाना के वजूद को निर्धारित करती है और उन्हें एक बेहद विषम (विपरीत) धार्मिक समूह में बदल देती है.
हमारी सार्वजनिक चर्चा मुस्लिम होने के केवल एक पहलू के इर्द-गिर्द घूमती है. राजनीतिक दल सभी मुसलमानों को एक करीबी एक जाति के सामाजिक समूह के सदस्य के रूप में मानते हैं, या तो उन्हें ‘धार्मिक अल्पसंख्यक’ के रूप में या उन्हें हिंदू विरोधी ताकत के रूप में प्रदर्शित करते हैं. यह दायरा ए.के. एंटनी की दलील में साफतौर से दिखी. अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के इस दिए गए अनिवार्य ढांचे के बाहर वह मुसलमानों के बारे में नहीं सोच सकते थे.
दूसरी तरफ, एक जीवित पहचान के रूप में मुस्लिम होना, एक काल्पना भर नहीं है. यह जमीनी स्तर पर वास्तविक जीवन की स्थितियों में दिखता है, जहां मुसलमान नागरिक और मतदाता के रूप में हिस्सा लेते हैं. भारत जोड़ो यात्रा में दिखने वाली मुसलमानों की खूबसूरत तस्वीरें वास्तव में उनके मुस्लिम होने के उनके ठोस रूप को सामने लाती हैं.
भारत जोड़ो यात्रा कांग्रेस के लिए मुसलमानों के प्रति अपने नजरिये को फिर से परिभाषित करने का एक अच्छा अवसर है. अगर पार्टी मुस्लिमवाद की इलीट कल्पना पर कायम रही तो इसके नेताओं के लिए ए.के. एंटनी की दी गई थीसिस से परे जाना संभव नहीं होगा.
हालांकि, यदि मुस्लिम होने को एक जीवंत अनुभव, एक बौद्धिक संसाधन के तौर पर मान्यता दी जाती है, तो आइडिया ऑफ इंडिया का एक रचनात्मक, धर्मनिरपेक्ष, सबाल्टर्न, समावेशी और गैर-संघर्षपूर्ण विचार पैदा किया जा सकता है.
आखिरकार, भारत जोड़ो यात्रा जमीनी स्तर के भारत के बारे में है.
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(हिलाल अहमद राजनीतिक इस्लाम के विद्वान हैं और नई दिल्ली में सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. उनका ट्विटर हैंडल @Ahmed1Hilal है. व्यक्त विचार निजी हैं.)
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