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Friday, 1 November, 2024
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कश्मीर की गोरी लड़कियों की चाहत, दबी हुई मर्दाना कुंठाओं को दिखाता है

ऐसा कैसे मुमकिन हो पा रहा है कि अपने ही देश कि किसी हिस्से से संबंधित किसी कानूनी प्रावधान में फेरबदल को किसी 'दुश्मन देश' पर जीत के मर्दाना उत्सव में तब्दील करने की कोशिश की गई.

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जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को खत्म करने की सरकार की घोषणा और इस संबंध में संसद में विधेयक पास होने के बाद सोशल मीडिया से लेकर ज़मीनी स्तर पर कश्मीर की लड़कियों से शादी करने और वहां ससुराल बनाने जैसी टिप्पणियां की गईं. ऐसी बातें केवल हिंदुत्व के भावनात्मक नारे के मारे आम लोगों ने नहीं की, बल्कि नेता कहे जाने वालों ने भी की.

मसलन, मुज़फ्फरनगर के भाजपा विधायक विक्रम सैनी ने अनुच्छेद 370 पर केंद्र के फैसले को ‘कश्मीर पर जीत’ की तरह दर्शाते हुए कश्मीर की गोरी लड़कियां लाने या उनसे शादी करने की बात कही. साध्वी प्राची ने बयान दिया कि ‘जो अविवाहित युवक है उनके लिए बड़ी खुशखबरी है. डल झील पर 15 अगस्त के बाद में प्लाट खरीदिये रजिस्ट्री तुम्हारे नाम होगी और ससुराल भी तुम्हारा कश्मीर में हो जायेगा.’ ऐसा कह कर नेताओं ने लड़कों को संदेश दिया गया कि अब कश्मीर की गोरी लड़कियों से उनकी शादी हो सकेगी. कश्मीर उनकी ससुराल बनेगा! लेकिन ध्यान दे ससुराल केवल लड़कों का बनेगा, लड़कियों का नहीं!


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हो सकता है कि कश्मीर की गोरी लड़कियों से शादी से जुड़े बयानों को ‘हल्के लोगों’ के ‘हल्के बयानों’ के तौर पर देख और मान लिया जाएगा. लेकिन क्या यह समूचा प्रसंग इतना ही हल्का है? मौजूदा आलेख में इससे जुड़ी प्रवृत्तियों की शिनाख्त करने की कोशिश की जाएगी.

विकृत कुंठा का विस्फोट

हम इससे अनजान नहीं हैं कि किसी भी बात पर न केवल टकराव या झगड़े के दौरान, बल्कि आम बातचीत में भी मां-बहन की गालियां लोगों की जुबान पर रहती हैं. ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं कि किसी दुश्मन देश को युद्ध में हरा देने के बाद वहां की महिलाओं को व्यापक और बर्बर बलात्कार का शिकार बनाया गया. इसके साथ-साथ गोरी चमड़ी को लेकर भारतीय समाज में किस स्तर तक एक विकृत कुंठा गहरे पैठ की हुई है, यह भी किसी से छिपा नहीं है. लेकिन जिस तरह से कश्मीरी लड़कियों को लेकर बयान आ रहे हैं वह हमें शर्मिंदा कर रहे हैं.

क्या किसी नेता के रूप में प्रतिनिधि चेहरे के ज़रिए एक व्यापक सामाजिक कुंठा को अभिव्यक्ति दी जा रही है? या फिर क्या ऐसे नेताओं के ज़रिए भारतीय मर्दों के भीतर स्त्री के खिलाफ बजबजाती यौन-कुंठा सामने आ रही है?

सवाल कई हैं. लेकिन ऐसा कैसे मुमकिन हो पा रहा है कि अपने ही देश कि किसी हिस्से से संबंधित किसी कानूनी प्रावधान में फेरबदल को कुछ लोग किसी ‘दुश्मन देश’ पर जीत के उत्सव में तब्दील करने की कोशिश कर रहे हैं.

दिमागी गुलामी की रिवायत

इतिहास गवाह है कि दुनिया के तमाम युद्धों में हारे हुए दुश्मन देश की स्त्रियों को सबसे ज़्यादा तबाही और जुल्मो-सितम झेलने पड़े हैं. तो कश्मीर की पहचान को शेष भारत में जिस शक्ल में परोसा गया था या उसके बारे में जिस तरह की धारणा बनाई गई थी, उसमें कुछ उत्तर भारतीय मर्दों की ओर से एक रिवायत के तौर पर अगर कश्मीर की लड़कियों से शादी या उन्हें लाने की हसरत ज़ाहिर की जा रही है तो यह ‘दुश्मन देश पर जीत’ के बाद मर्दाना कुंठाओं के विस्फोट से अलग नहीं है.

दरअसल, इतने सालों के तमाम कथित विकास में हमने यही समाज बनाया है और सोचने-समझने के इसी स्तर तक आ सके हैं कि अपने घर-परिवार तक की बच्चियों को एक समान और सम्मानजनक ज़िंदगी मुहैया करा सकने में नाकाम हम ‘परायी’ लड़कियों पर कब्ज़े की कुंठा से शांत होते हैं. लोगों को तो इतना भी सोचने या समझने की सलाहियत नहीं बख्शी गई कि ‘कश्मीर की गोरी लड़कियां’ ही आखिर क्यों उनके हसरत का हिस्सा बनीं और ‘गोरी लड़कियों’ को लेकर वे जिस मानस में जी रहे हैं, वह कैसे दिमागी गुलामी से इतर कुछ भी नहीं है!

गोरेपन की हारी और हताश भूख

आखिर ‘गोरी लड़कियों’ की इस तरह की कुंठित चाह कहां से आती है? क्या यह उस हारी हुई मानसिकता का प्रदर्शन है जिसमें गोरा चेहरा आमतौर पर ‘सत्ता’ का प्रतीक रहा है? जबकि हकीकत यह है कि भारतीय उपमहाद्वीप का आम समाज जिसे ‘गोरा’ कहता या मानता है, उसे पश्चिम के समाज में ‘भूरा’ कहा जाता है! अब आज की तारीख में खुद को सभ्य कहने वाला पश्चिम का समाज भारत जैसे देशों के गोरे लोगों को ‘भूरा’ कहते हुए श्रेष्ठताबोध से कितना त्रस्त रहता है, यह तो पता नहीं, लेकिन भारत में ‘गोरे रंग’ और खासतौर पर ‘गोरी लड़कियों’ को लेकर जो कुंठा है, वह किसी बेहद पिछड़े, असभ्य और सामंती मानस वाले समाज से अलग नहीं है.


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परंपरागत तौर पर इसी बुनियाद पर जीते समाज में जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाने की घोषणा के बाद ‘कश्मीर से लड़कियां लाने’ या ‘कश्मीर में ससुराल बनाने’ जैसी बातें कही गईं. दरअसल, यह पिछले कई सालों के दौरान की गई ‘राजनीतिक मेहनत’ का नतीजा है जिसके तहत लोगों के दिमागों का इस कदर सांप्रदायीकरण किया गया है कि जिस मौके पर उन्हें बेहद संवेदनशील होकर सोचना, देखना और अपनी सीमा में कुछ करना चाहिए था, वैसे मौके पर वे समूचे इलाके के एक खास समाज को अपमानित करने, खिल्ली उड़ाने और उससे अपना मनोरंजन करने में लग गए. किसी भी सामंती कुंठा से बजबजाते समाज में अपने ‘दुश्मन’ को जलील करने के लिए उनकी स्त्रियों के खिलाफ ज़्यादा से ज़्यादा निर्लज्ज अमानवीय और आपराधिक हो जाना हैरान नहीं करता!

दरअसल, पहले हिंदुत्व के नाम पर एक समाज को संवेदनहीन बनाने और सांप्रदायिक ग्रंथियों से लैस करने की कोशिश की गई, उसके बाद इन ग्रंथियों या कुंठाओं को ज़ाहिर करने के लिए ‘स्पेस’ बनाया गया! शिक्षा, सेहत और रोज़गार के साथ-साथ अपने अधिकार हासिल करने के बेहद ज़रूरी सवालों से वंचित कर दिए जाने के बाद समाज इस कदर भ्रमित हो जाता है, उसके भीतर कुंठाएं तह लग कर ऐसे जमा हो जाती हैं कि ज़रा-सा कमज़ोर नस दबते ही फूट पड़ती हैं. समाज का ज्यादातर हिस्सा इसी तरह की ग्रंथियों में गिरफ्तार अपनी जिंदगी गुजारता रहे, इससे सत्ता को कोई दिक्कत नहीं होती! समय-समय पर उसका इस्तेमाल किया जाता है,जैसे अभी कश्मीर के मुद्दे पर.

(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं और यह इनके निजी विचार हैं)

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