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Sunday, 3 November, 2024
होममत-विमतप्रेम को सुर दिए, व्यथा को कंधा और आंसुओं को तकिया अता की- फिर आना लता जी, आज फिर जीने की तमन्ना है

प्रेम को सुर दिए, व्यथा को कंधा और आंसुओं को तकिया अता की- फिर आना लता जी, आज फिर जीने की तमन्ना है

अपनी शालीन, नाज़ुक, गहरी और रूहानी आवाज़ से उन्होंने लगभग सात दशकों तक हमारी खुशियों, शरारतों, उदासियों, दुख, हताशा और अकेलेपन को अभिव्यक्ति दी.

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नई दिल्ली: फिलहाल यह यकीन नहीं हो रहा है कि अब जब मुंबई में पैडर रोड के आगे से गुजरेंगे तो आपको टैक्सी ड्राइवर कहेगा ‘देखिए, इस बिल्डिंग में रहती थीं लता ताई.’ लता मंगेशकर का हमारे बीच होना आश्वस्त करता था कि घोर अवसाद और हताशा के क्षणों में भी हमारे बीच में एक ऐसी शख्सियत मौजूद है जिसको देख-सुनकर आत्मा तृप्त हो जाती है. ऐसे स्वच्छ निर्मल मन के व्यक्तित्व दुर्लभ होते हैं जैसे लता जी थीं. संस्कृत के श्लोकों का गायन हो या रामचरितमानस का गायन हो या उर्दू की गजल हो, या बांगला का कोई गीत हो, वे एक समान सहजता से सुमधुर स्वर में गाकर श्रोताओं को कुछ क्षणों में उसी स्वप्नलोक में पहुंचा देती थीं. वे अपने स्वर के साथ सदैव हमारे पास अमर रहेंगी, समय कोई भी आये. उनके स्वर कभी नहीं लडखड़ाये, उनकी आवाज में वही ताजगी थी जो किसी बच्चे की आवाज में होती है.

निश्चित रूप से, उनकी प्रशंसा और श्रद्धांजलि में शब्द नहीं मिल रहे. मृत्यु सदैव शोक का विषय नहीं होती. मृत्यु जीवन की पूर्णता है. लता जी का जीवन जितना सुन्दर रहा है, उनकी मृत्यु भी उतनी ही सुन्दर हुई है. उनके जैसा सुन्दर और धार्मिक जीवन विरलों को ही प्राप्त होता है. लगभग छह पीढ़ियों ने उन्हें मंत्रमुग्ध होकर सुना है, और हृदय से सम्मान दिया है. भारत लता जी के गीतों के साथ जी रहा है. हर्ष में, विषाद में, ईश्वर भक्ति में, राष्ट्र भक्ति में, प्रेम में, परिहास में. हर भाव में लता जी का स्वर हमारा स्वर बना है.

13 की उम्र में पिता गुजर गए, भारी बोझ कंधों पर आया

लता जी के पिता दीनानाथ मंगेशकर ने जब अपने अंतिम समय में घर की बागडोर उनके हाथों में थमाई थी, तब उस 13 वर्ष की नन्ही जान के कंधे पर छोटे छोटे चार बहन-भाइयों के पालन की जिम्मेवारी थी. लता जी ने अपना समस्त जीवन उन चारों को ही समर्पित कर दिया. और अब जब वे गयी हैं तो उनका परिवार भारत के सबसे सम्मानित प्रतिष्ठित परिवारों में से एक है. किसी भी व्यक्ति का जीवन इससे अधिक सफल क्या होगा? लता मंगेशकर की पवित्र शख्सियत का ही परिणाम था कि आजाद भारत के सब राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री उनसे आदरभाव से मिलते थे. उनका कद देश के किसी भी नागरिक से बड़ा था.


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लता जी गाना गाते समय चप्पल नहीं पहनती थीं. गाना उनके लिए ईश्वर की पूजा करने जैसा ही था. कोई उनके घर जाता तो उसे अपने माता-पिता की तस्वीर और घर में बना अपने आराध्य का मंदिर दिखातीं थीं. बस इन्ही तीन चीजों को विश्व को दिखाने लायक समझा था उन्होंने. सोच कर देखिये, कैसा दार्शनिक भाव है यह. इन तीन के अतिरिक्त सचमुच और कुछ महत्वपूर्ण नहीं होता संसार में. सब आते-जाते रहने वाली चीजें हैं.

लता मंगेशकर हमारी सांगीतिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय अस्मिता की आवाज़ रही हैं. आवाज़ जो सदियों में कभी एक बार ही गूंजती है. आवाज़ जैसे सन्नाटे को चीरती हुई कोई रूहानी दस्तक. जैसे जीवन की तमाम आपाधापी में सुकून और तसल्ली के कुछ बहुत अनमोल पल. जैसे एक बयार जो देखते-देखते हमारी भावनाओं को अपने साथ ले उड़े. पिछली सदी के चौथे दशक में लता जी का पार्श्वगायन की दुनिया में प्रवेश भारतीय सिनेमा की सबसे बड़ी और युगांतरकारी घटनाओं में एक साबित हुई. अपनी शालीन, नाज़ुक, गहरी और रूहानी आवाज़ से उन्होंने लगभग सात दशकों तक हमारी खुशियों, शरारतों, उदासियों, दुख, हताशा और अकेलेपन को अभिव्यक्ति दी. प्रेम को सुर दिए. व्यथा को कंधा और आंसुओं को तकिया अता की. सुरों और मानवीय भावनाओं पर पकड़ ऐसी कि यह पता करना मुश्किल हो जाय कि उनके सुर भावनाओं में ढले हैं या ख़ुद भावनाओं ने ही सुर की शक्ल अख्तियार कर ली हैं. लता मंगेशकर जी ने 27 जनवरी,1963 को सारे देश की आंखें नम की थीं. उस दिन दिल्ली में लता मंगेशकर ने नेशनल स्टेडियम में जब अपना अमर गीत ‘ऐ मेरे वतन के लोगों ज़रा आंख में भर लो पानी…’ गाया तो हजारों लोग रो रहे थे.

लता जी के बारे में कभी देश के महानतम शास्त्रीय गायक मरहूम उस्ताद बडे़ गुलाम अली खा ने स्नेहवश कहा था – कमबख्त कभी बेसुरी ही नही होती. उस्ताद अमीर ख़ान का कहना था ‘हम शास्त्रीय संगीतकारों को जिसे पूरा करने में डेढ़ से तीन घंटे लगते हैं, लता वह बस तीन मिनट मे पूरा कर देती हैं.’ यह स्वाभाविक है कि लता जी की पार्थिव देह का विसर्जन देवी सरस्वती की प्रतिमाओं के विसर्जन के दिन ही हुआ. हमारी पीढ़ी को गर्व रहेगा कि वह लता के युग में पैदा, जवान और बूढ़ी हुई.

लता जी ने एक मर्यादा, एक वक़ार बनाकर रखा. उन्होंने अपने गीतों में कभी मर्यादा से गिरे हुए शब्दों और भावों को शामिल नहीं होने दिया. हिन्दी फिल्मों में जब तक लता जी पीक पर रहीं तब तक फिल्मों का गीत संगीत अश्लीलता से बचा रहा.

सांसद रहने के दौरान लता ने नहीं लिया घर और भत्ता

लता मंगेशकर ने सार्वजनिक जीवन में कई उदाहरण दूसरों के सामने पेश किए. उन्हें सरकार ने राज्यसभा का नामित सदस्य बनाया तो उन्हें सरकारी बंगला मिला. उन्होंने उसे लेने से इंकार कर दिया था. उन्होंने कहा कि वह इस तरह के किसी बंगले आदि को नहीं लेंगी. उन्होंने सरकार को कह दिया था कि वे दिल्ली में अपने रहने की व्यवस्था खुद करेंगी.

इसके अलावा, लता मंगेशकर ने 6 साल तक सांसद रहने के दौरान वेतन-भत्तों के चेक भी नहीं लिए. वह साल 1999 से 2005 तक राज्यसभा की मनोनीत संसद सदस्य रही थीं. जब उन्हें चेक भेजे गए तो वहां से वापस आ गए. लता मंगेशकर ने कभी भी सांसद पेंशन के लिए भी आवेदन नहीं किया है. बताइये कहां मिलते हैं इस तरह के उदाहरण. जिस लुटियंस दिल्ली के बंगले में रहने और उस पर सारी जिंदगी कहने के लिए लोग तमाम समझौते करते हैं, लता मंगेशकर ने उसे लेने तर से इंकार कर दिया था.

बहुत आभार लता जी, आप की आवाज़ हमेशा एक मीठी याद बनकर हमारे साथ रहेगी,… रहें न रहें हम, महका करेंगे.

(विवेक शुक्ला वरिष्ठ पत्रकार और Gandhi’s Delhi के लेखक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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