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Friday, 19 April, 2024
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मोदी का एक गठबंधन सरकार का नेतृत्व करना, वास्तविक बदलावों का कारण बन सकता है

गठबंधन सरकारें समावेशी होती हैं, भारत की विविधता को परिलक्षित करती हैं और सर्वाधिक अस्थिर गठबंधन सरकार भी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ा चुकी है.

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2014 के चुनावों से पहले तीन दशकों तक भारतीय मतदाताओं ने किसी एक दल को संसद में बहुमत देने से इनकार किया था. वो गठबंधनों का युग था- बेमेल और विभाजित मंत्रिमंडलों का, आमसहमति से शासन करने वाले प्रधानमंत्रियों का, और श्रमसाध्य वार्ताओं के सहारे निर्मित नीतियों का. उसी काल में भारतीय अर्थव्यवस्था ने एक नए दौर में प्रवेश किया. देश में उदारीकरण आया, आर्थिक सुधारों को लागू किया गया, उच्च विकास दर हासिल की गई और करोड़ों लोग गरीबी के दायरे से बाहर आ सके.

फिर भी सुधारों के हिमायती बहुत से लोग गठबंधन सरकारों के विचार को स्वाभाविक रूप से बुरा मानते हैं. इन लोगों का मानना है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में वास्तविक संरचनात्मक बदलावों की उम्मीद रखने वालों के लिए मौजूदा चुनावों का सर्वश्रेष्ठ परिणाम होगा, एक बार फिर किसी एक दल को मतदाताओं का बड़ा जनादेश मिलना और असल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी यही बात कर रहे हैं- कि वह विभाजित विपक्ष के विपरीत, ताकत और एकता सुनिश्चित करेंगे.

पर तथ्यों से कुछ और ही तस्वीर सामने आती है. मोदी की सरकार कोई सुधारवादी सरकार नहीं रही है. हां, यह इसके उलट ज़रूर मानी जा सकती है. मोदी का एक ‘मज़बूत’ नीतिगत फैसला था-जो कि गठबंधन सरकारों के लिए अकल्पनीय है– भारत की 86 प्रतिशत मुद्रा को चलन से बाहर करने का नवंबर 2016 का फैसला और स्पष्टतया यह फैसला इतना बुरा साबित हुआ कि मौजूदा चुनाव अभियान में सिर्फ उनके विरोधी ही इसका जिक्र कर रहे हैं.

इसकी तुलना यदि अतीत की गठबंधन सरकारों से करें. तो उनमें से सबसे अस्थिर संयुक्त मोर्चा की सरकार ने– जिसने 1990 के दशक के उत्तरार्द्ध में कुछ वर्षों के लिए शासन किया था और जिसमें ना तो मोदी की भारतीय जनता पार्टी और ना ही उसकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस शामिल थी. आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाया था. उदाहरण के लिए आज भारत में जो आयकर प्रणाली है इसे उसी सरकार ने लागू किया था. उसने 1991 से पूर्व के समाजवादी युग वाली रियायतों और अपवादों की जटिल आयकर व्यवस्था को बदलने का काम किया.


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यहां तक कि खुद 1991 के आर्थिक सुधारों को भी एक ऐसी सरकार ने लागू किया था जिसे कि संसद में बहुमत नहीं था. सुधारों को आगे बढ़ाया एक कमज़ोर प्रधानमंत्री और एक टेक्नोक्रेट वित्त मंत्री ने – मनमोहन सिंह जो बाद में एक दशक के लिए प्रधानमंत्री रहे– वो भी ऐसे समय जब उनकी सरकार सत्ता पर पकड़ बनाए रखने की जद्दोहद कर रही थी.

और असल असाधारण बात ये है. जब कुछ साल बाद वह सरकार कामचलाऊ बहुमत का जुगाड़ करने में सफल हो गई. तो बदलावों में तेजी नहीं आ पाई. वास्तव में, तब तो सुधारों के प्रयास लगभग पूरी तरह थम गए थे. जिसे अगली गठबंधन सरकार ही दोबारा आरंभ कर पाई.

यदि गठबंधन सरकारें भी, यदि बेहतर नहीं तो उसी तरह काम करती हैं. तो फिर भारत के टीकाकारों का वर्ग उनसे इतना घबराता क्यों है? एक हद तक यह एक हीन भावना को दर्शाता है. परिपक्व लोकतंत्रों से स्थिरता प्रदान करने वाली द्वि-दलीय व्यवस्था की अपेक्षा की जाती है. (अमेरिका और ब्रिटेन से पूछें कि उस व्यवस्था का क्या परिणाम दिख रहा है.) एक और कारण ये भय भी है कि एक दिग्भ्रमित गठबंधन सरकार कठिन सुधारों पर शायद कभी सहमत नहीं हो पाए, या फिर क्या पता वह सनकी लोगों द्वारा तैयार कोई बुरी आर्थिक योजना (जो कि, यकीनन, एक पार्टी के बहुमत वाली तीन दशकों की पहली सरकार के नोटबंदी के फैसले के बारे में कहा जा सकता है) लागू कर दे.

आर्थिक सुधारों के सच्चे समर्थकों को तो वास्तव में दिल्ली में विभाजित शासन की तरफदारी करनी चाहिए. क्योंकि तभी एक पूर्व अधिकारी के शब्दों में भारत में ‘कमज़ोर सुधारों के लिए मज़बूत सहमति’ संभव हो सकती है. गठबंधन के नेताओं में नीति-निर्माण का काम टेक्नोक्रेट्स को – जिनके निजी राजनीतिक हित नहीं होते और जिनका साथ देने पर सारे गठबंधन सहयोगी सहमत हो सकते हैं. सौंपने की प्रवृति होती है. गठबंधनों में नीतियों को लेकर समय पूर्व सहमति बनाने की भी प्रवृति होती है. जिससे कम से कम ये साबित होता है कि ऐसी सरकारों की वास्तव में एक स्पष्ट दिशा होती है.

और, यह बात भी अहम है कि गठबंधन सरकारें समावेशी होती हैं. वे भारत की विविधता को परिलक्षित करती हैं. इस तरह वे वैसी नीतियों को आगे नहीं बढ़ाती जिनसे कि भविष्य में समस्याएं खड़ी हों. उदाहरण के लिए, एक गठबंधन सरकार जिसमें कि दक्षिण राज्यों के नेता भी शामिल हों. उन राज्यों की इस शिकायत को गंभीरता से सुनेगी कि उत्तर के राज्यों को दी जा रही रियायतों के लिए उन्हें करों का अतिरिक्त बोझ ढोना पड़ता है.

हमें भारत के मतदाताओं के फैसले का पता 23 मई से पहले नहीं चलेगा. पर अधिकांश विश्लेषक इस बात पर सहमत हैं कि संभव है मोदी सत्ता में वापस लौटें, पर उनकी पार्टी को संसद में अपने दम पर बहुमत नहीं होगा. यदि ऐसा होता है, तो हम एक बार फिर गठबंधन के दौर में होंगे.

आपको ऐसे परिणाम पर आंसू बहाने वाले बहुत से लोग भी मिलेंगे. वे समझौते और कमज़ोर आमसहमति के दौर की वापसी की बात करेंगे. पर उन पर यकीन नहीं करें. भारत की पिछली चौथाई सदी को देखकर यही लगता है कि ये दौर शायद वास्तविक परिवर्तनों का अग्रदूत साबित हो.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(मिहिर शर्मा ब्लूमबर्ग ओपिनियन के स्तंभकार हैं. वह इंडियन एक्सप्रेस और बिज़नेस स्टैंडर्ड के स्तंभकार रह चुके हैं. वह ‘रिस्टार्ट: द लास्ट चांस फॉर द इंडियन इकोनॉमी’ के लेखक हैं.)

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