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Saturday, 27 December, 2025
होममत-विमतभारत में जलवायु संकट को ‘नॉर्मल’ मान लिया गया है, लेकिन कीमत देश के गरीब चुका रहे हैं

भारत में जलवायु संकट को ‘नॉर्मल’ मान लिया गया है, लेकिन कीमत देश के गरीब चुका रहे हैं

यह मान लेना कि अब चीज़ें ऐसी ही होंगी, चिंता की बात है. तापमान बढ़ेगा, पानी खत्म होगा, हवा दम घोंटने लगेगी और हम बस खुद को ढाल लेंगे.

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जैसे-जैसे साल खत्म हो रहा है, यह पीछे देखने का सही वक्त है—यह गिनने के लिए नहीं कि मैंने कितना लिखा, बल्कि यह समझने के लिए कि इन सबका मतलब क्या था. हफ्ते-दर-हफ्ते लिखते हुए, मैं टकरावों, विवादों, अन्यायों, खामोशियों और असहज उम्मीद के पलों से गुज़री. हर लेख उस वक्त बहुत ज़रूरी लगा; पीछे मुड़कर देखने पर, वही ज़रूरत अब सोच-विचार में बदल जाती है. हम बार-बार किस बारे में बोलते रहे? क्या अनसुलझा रह गया? कौन-सी सच्चाइयां इतनी असहज थीं कि ज़्यादा देर तक सुर्खियों में टिक नहीं पाईं? साल का आखिरी लेख लिखने से पहले, यह ज़रूरी लगता है कि हम देखें—क्या सबसे ज़्यादा उभरा, क्या मन में अटका रहा और क्या हमने मिलकर देखने से इनकार किया.

इतनी सारी सुर्खियों, चिल्लाती बहसों और अंतहीन राजनीतिक भटकाव के बीच, एक सच्चाई मेरे लिए सबसे साफ दिखती है और अजीब बात यह है कि उसी पर मैंने सबसे कम लिखा. जलवायु संकट. ग्लोबल वॉर्मिंग. उस दुनिया का धीरे-धीरे, बिना रुके बिखरना जिसमें हम रहते हैं.

यह इसलिए गायब नहीं है क्योंकि यह कम ज़रूरी है; बल्कि इसलिए कि यह आम हो चुका है. जान लेने वाली लू, रोज़गार मिटा देने वाली बाढ़, देर से आने वाली या बिल्कुल न आने वाली सर्दियां—अब इन्हें आपात स्थिति नहीं, बल्कि मौसम की छोटी-मोटी परेशानियां माना जाने लगा है. खासकर भारत में, जहां लाखों लोग मानसून, गर्मी और खेती पर निर्भर हैं, जलवायु परिवर्तन हर बातचीत के केंद्र में होना चाहिए था, लेकिन इसे हाशिये पर धकेल दिया गया है—आपदा आने पर ही इसका ज़िक्र होता है और जैसे ही न्यूज़ साइकिल आगे बढ़ती है, इसे भुला दिया जाता है.

न्यू नॉर्मल

ज़रा सोचिए: बढ़ती गर्मी अब पूरी दुनिया में हर एक मिनट में एक जान ले रही है. सिर्फ भारत में, महज़ नौ महीनों में 4,064 लोगों की मौत हो चुकी है. भारत को चरम मौसम की घटनाओं से होने वाले वैश्विक आर्थिक नुकसान का 4.2 प्रतिशत झेलना पड़ता है. फिर भी, क्या यह सुर्खियां बनाता है, बहस छेड़ता है, वैसी तात्कालिकता पैदा करता है जिसकी इसे ज़रूरत है? ये अलग-थलग आपदाएं नहीं हैं; यह पीक सीज़न का धीरे-धीरे बढ़ता असर है, जो अब साफ दिखने लगा है और यह तो बस शुरुआत है, लेकिन किसी संकट की तरह जागने के बजाय, हमारे लिए यह किसी तरह “न्यू नॉर्मल” बनता जा रहा है.

मुझे सबसे ज़्यादा चिंता इस बात की है कि हमने इसे स्वीकार कर लिया है, कि अब चीज़ें ऐसी ही हैं. तापमान बढ़ेगा, पानी खत्म होगा, हवा दम घोंटेगी और हम बस खुद को ढाल लेंगे. जब कोई संकट हमें चौंकाना बंद कर देता है, तो वह हमें एकजुट करना भी बंद कर देता है. और शायद यही सबसे खतरनाक दौर है.

शहरों में तापमान 45–50 डिग्री सेल्सियस पार कर रहा है. मज़दूर सड़कों और निर्माण स्थलों पर गिरकर बेहोश हो रहे हैं. भीषण गर्मी में चुनाव कराए जा रहे हैं. स्कूल बंद हो रहे हैं, पानी के टैंकर जीवनरेखा बनते जा रहे हैं. इस लू ने जो उजागर किया है, वह यह है कि भारत में ग्लोबल वॉर्मिंग अब भविष्य का खतरा या सिर्फ पर्यावरण का मुद्दा नहीं रही. यह शासन का संकट है. मज़दूरी का मुद्दा है. जनस्वास्थ्य की आपात स्थिति है. महिलाओं पर असमान बोझ है और उन लोगों की खामोश छंटनी है, जो इससे बचने में सबसे कम सक्षम हैं.

जलवायु विशेषज्ञ सालों से चेतावनी दे रहे हैं कि 2050 तक भारत उन पहले स्थानों में होगा, जहां तापमान इंसान के लिए सहने की सीमा पार कर जाएगा. फिर भी, हम शायद ही कभी उस गर्मी की प्रकृति पर बात करते हैं, जिसका भारत सामना कर रहा है. यह सिर्फ लू नहीं है—यह नमी में फंसी गर्मी है. ऐसी गर्मी, जिसमें पसीना शरीर को ठंडा नहीं कर पाता और जिसमें एक स्वस्थ व्यक्ति भी ज़्यादा देर बाहर ज़िंदा नहीं रह सकता. इसे वेट-बल्ब तापमान मापता है और यह सिर्फ सूखी गर्मी से कहीं ज़्यादा खतरनाक है. सर्वे पहले ही दिखा रहे हैं कि 70 प्रतिशत से ज़्यादा भारतीयों ने हाल के वर्षों में भीषण लू, सूखा, पानी की कमी और दम घोंटने वाले वायु प्रदूषण का अनुभव किया है. यह अब जीने की सच्चाई है.

जलवायु असमानता

अगर हम ज़रा करीब से देखें, तो भारत में जलवायु संकट एक वर्गीय संकट भी है और यह सबसे साफ मज़दूरों की ज़िंदगी में दिखता है. गर्मी सब पर बराबर नहीं पड़ती. जो लोग एयर-कंडीशन्ड कमरों, फ्लेक्सिबल वर्क टाइमिंग और बेहतर इलाज का खर्च उठा सकते हैं, उनके लिए बढ़ता तापमान बस एक असुविधा है, लेकिन दिहाड़ी मज़दूरों, निर्माण श्रमिकों, सफाई कर्मचारियों, किसानों, रेहड़ी-पटरी वालों और गिग वर्कर्स के लिए गर्मी सीधे ज़िंदगी के लिए खतरा है. 45 डिग्री की गर्मी में शरीर साथ न दे और एक दिन काम छूट जाए, तो उस दिन का खाना भी छूट जाता है. जलवायु तबाही में कोई पेड लीव नहीं होती.

इस मायने में, जलवायु परिवर्तन सिर्फ पिघलते ग्लेशियरों या बढ़ते समुद्रों की कहानी नहीं है—यह उन शरीरों से मेहनत निचोड़ रहा है जिन्हें पहले ही हद तक धकेला जा चुका है और चुपचाप तय कर रहा है कि किन ज़िंदगियों को खर्च करने लायक माना जाएगा और किन लोगों की सहूलियत बचाई जाएगी.

साथ ही, इस संकट में भारत की स्थिति गहरी तरह से विरोधाभासी है. हम कार्बन प्रदूषण के ऐतिहासिक सबसे बड़े दोषियों में नहीं हैं, फिर भी इसके असर की अग्रिम पंक्ति में खड़े हैं. इससे एक ज़िम्मेदारी बनती है—मज़बूत कूटनीतिक भूमिका निभाने की और दुनिया के सबसे बड़े उत्सर्जकों को उनकी आरामदेह स्थिति से बाहर निकालने की. जलवायु कार्रवाई को अब दया या सद्भावना के तौर पर नहीं देखा जा सकता; यह कानूनी, नैतिक और जीवन-रक्षा की ज़िम्मेदारी है. भारत जैसे देशों के लिए यह उस तर्क को और मज़बूत करता है जिसे हम लंबे समय से कहते आए हैं: विकास और जलवायु न्याय को अलग नहीं किया जा सकता और जिन्होंने औद्योगिकीकरण से सबसे ज़्यादा फायदा उठाया है, उन्हें बोझ का अनुपातिक हिस्सा उठाना होगा.

2025 में कई अहम घटनाएं हुईं, लेकिन कई बार सबसे ज़रूरी वही होता है जो नज़र से छूट जाता है. ताज़ा आक्रोश से चलने वाले मीडिया चक्र में, हमें भविष्य के खतरों पर ध्यान देना होगा और समय रहते उनके समाधान की मांग करनी होगी. भारत के कमज़ोर तबके जलवायु परिवर्तन की कीमत पहले ही चुका रहे हैं. अगर इसे नहीं संभाला गया, तो यह और भी ज़्यादा विनाशकारी और अनिश्चित नतीजों की शृंखला पैदा करेगा—सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक. आइए, इसे अभी एड्रेस करें—इससे पहले कि यही एकमात्र सुर्खी बन जाए.

(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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