गरीब और गंदगी को पर्यायवाची मानते हुए स्वच्छ शहर सर्वेक्षण के पुलिंदे में एक नई कैटेगरी जोड़ दी गई है और वाराणसी को स्वच्छ गंगा शहर का पुरस्कार दे दिया गया है.
चुनाव आने वाले हैं ऐसे में यह दबाव बना हुआ था कि साहेब के संसदीय क्षेत्र को कैसे चयनित किया जाए. सर्वेक्षण में आए फीडबैक और डाटा पढ़ने का तरीका पढ़ने वाले के चश्में पर निर्भर करता है. बाबा विश्वनाथ गलियारा जैसे कदम प्रशंसनीय हैं लेकिन स्वच्छ शहर की परिभाषा अलग होती है. बहरहाल, गंगा किनारे बड़े छोटे सौ से ज्यादा शहर हैं जिन्होने गंगा को देखा है वो सहज ही बता सकते हैं कि वाराणसी सिर्फ कानपुर और कन्नौज की तुलना में साफ सुधरा है वरना वह भी प्रयागराज, पटना और कोलकाता की तरह गंदगी का ढेर लगाए रहता है.
इस श्रेणी में दूसरा स्थान मुंगेर को और तीसरा स्थान पटना को दिया गया है. मुंगेर छोटा शहर है उसकी बसाहट गंगा की छाती पर नहीं है जैसे बाकी शहरों की है. मुंगेर में गंगा घाट जाने के लिए किला इलाके से होते हुए जाना पड़ता है. यहां सरकारी ऑफिस और सुरक्षा प्रतिष्ठान होने के कारण सीधे गंगा के ऊपर बसाहट नहीं हो पाई.
यही कारण है कि मुंगेर नवनिर्माण के बावजूद अपना प्राकृतिक स्वरूप बनाए हुए है. तीसरे स्वच्छ गंगा शहर पटना में महज दो साल पहले आई बाढ़ ने बता दिया था कि वह कितना साफ सुधरा है. यहां तक की इस साफ सूधरे शहर के सीवेज का नक्शा भी प्रशासन के पास उपलब्ध नहीं है यानी वो खुद नहीं जानते कि कौन सा नाला कहां जाता है.
वाराणसी को साफ सुधरा बनाने की कोशिशों पर एक नजर डाल लीजिए. पिछले साल कोरोना दौर से ठीक पहले फरवरी में वाराणसी में बीजेपी के आदर्श पुरुष पंडित दीनदयाल उपाध्याय की 63 फीट ऊंची मूर्ति लगाई गई.
वैसे भी जीवन आदर्श को भौतिक ऊंचाई से मापने का समय चल रहा है. यह मूर्ति वाराणसी – चंदौली सीमा पर स्थापित की गई है. जिस जगह पर यह मूर्ति खड़ी की गई है उसे पड़ाव चौराहा कहते हैं. इस चौराहे पर पचास परिवार बसे हुए थे. ये सभी कानूनी राशन कार्ड, कानूनी आधार कार्ड, कानूनी वोटर कार्ड के साथ गैरकानूनी ढंग से यहां जमे हुए थे. प्रशासन कहता है ये लोग भले ही यहां तीन पीढ़ियों से रह रहे हो लेकिन गैरकानूनी मतलब गैरकानूनी.
अब इन अपराधियों का थोड़ा सामाजिक ताना बाना देख लीजिए. धारकर जाति के ये लोग यूपी में अनुसूचित जाति में आते हैं. जीवन यापन के लिए बांस के उत्पाद जैसे चटाई, डलिया, सीढ़ी आदि बनाते हैं. ज्यादातर इनकी बनाई सीढ़ियां अर्थी बनाने के काम आती है. जब बांस पर कलाकारी की कीमत से पेट नहीं भरता तब ये लोग बिल्डिंग मटेरियल बाजार में लेबर भी बन जाते हैं.
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गंगा से भरकर आने वाली वैध–अवैध रेत के लिए यह इलाका जाना पहचाना है. बिल्डिंग मटेरियल माफिया की नजर भी धारकर बस्ती पर बनी रहती थी क्योंकि ये गंगा की रेत से भरे डंपर खड़े करने के लिए माकूल जगह है. कुल मिलाकर इन्हें अपने अस्तित्व की लड़ाई हर रोज लड़नी होती है पेट भरने की लड़ाई की तरह ही.
अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप भारत आने वाले थे और उनकी तैयारी के लिए सड़क मार्गों के किनारों को हरी जालीदार पॉलिथिन जैसी चादरों से ठक दिया गया था ताकि सड़क के किनारे बसी ‘अवैध’ झुग्गियों को छिपाया जा सके. ठीक उसी समय वाराणसी प्रशासन के अधिकारी पड़ाव चौराहे पर मौजूद धारकर बस्ती पर पहुंचे और उनसे कहा गया कि प्रधानमंत्री जी दीनदयाल उपाध्याय की मूर्ति के अनावरण के लिए आ रहे हैं इसलिए वो लोग यहां से दो–तीन दिनों के लिए हट जाए.
बस्ती वालों के लिए यूं उजड़ना-बसना सामान्य प्रक्रिया थी पहले भी वो कई बार ऐसा कर चुके हैं लेकिन इस बार मामला अलग था. शहर खुद को स्वच्छ बनाने के लिए कमर कस चुका था. बस्ती वालों को दोबारा झोपड़ी बांधने की अनुमति नहीं मिली. उन पचास परिवारों के ढाई सौ लोगों से कहा गया कि अब यह चौराहा पर्यटन स्थल के रूप में विकसित हो गया है.
अब आपको आपकी दशकों पुरानी जगह पर ‘इंक्रोचमेंट’ करने नहीं दिया जा सकता. गंदगी का आलम यह है कि बाढ़ का पानी उतरने के बाद असी से लेकर भदैनी घाट तक गाद और मलबा पड़ा हुआ था.
देव दिपावली के पहले उन्ही जगहों पर सफाई हो पाई जहां कार्यक्रम होना था. इसी तरह शाही नाले से 160 एमएलडी मलजल बहता है जिसमें से आधा यानी 80 एमएलडी सीवेज दीनापुर एसटीपी शोधित होता है और बाकी सीधे गंगा का हिस्सा बन जाता है.
वरूणापार इलाके के लिए गोइठहां में 120 एमएलडी क्षमता का एसटीपी स्थापित किया गया है लेकिन सीवर लाइन में शौचालयों का पर्याप्त कनेक्शन नहीं होने के कारण नाले और नालियां वरुणा के माध्यम से गंगा में जा रहे हैं. सारथान का सीवेज भी इसी तरह गंगा में जा रहा है क्योंकि वहां बड़े इलाके में सीवेज लाइन ही नहीं बिछी है.
कमोबेश ऐसे ही हालात पुराने शहर में हुए विस्तारित इलाके का भी है – लहरतारा, फुलवरिया, छावनी क्षेत्र, नदेसर, मंडुआडीह, महमूरगंज इलाकों में भी करीब 23 हजार घरों के शौचालयों का कनेक्शन नहीं हो सका है. अब गंदगी, मलबे, सीवेज से शहर सफाई के दावों के बीच एक बात तय है कि 2022 का स्वच्छ गंगा शहर पुरस्कार भी वाराणसी को ही मिलेगा.
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