गृहमंत्री अमित शाह द्वारा सोमवार को लोकसभा में पेश नागरिकता (संशोधन) विधेयक सिर्फ पड़ोसी देशों के गैर-मुस्लिम अवैध प्रवासियों को नागरिकता देने और मुस्लिम ‘घुसपैठियों’ को बाहर खदेड़ने के बारे में ही नहीं है. अंतिम उद्देश्य है एक राष्ट्रव्यापी राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) तैयार करना. पारित होने के बाद नागरिकता विधेयक गैर-मुस्लिमों के संरक्षण और मुस्लिम नागरिकों को तंग किए जाने का साधन बनेगा, जब वे पूरे देश में अपने कागज़ातों के साथ कतार में लगे होंगे.
इसलिए नागरिकता (संशोधन) विधेयक को अलग रख कर नहीं देखा जाना चाहिए. इसे राष्ट्रव्यापी-एनआरसी और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) लागू करने के भाजपा सरकार के इरादे से जोड़कर देखा जाना चाहिए.
नागरिकता (पंजीकरण और राष्ट्रीय पहचान पत्र निर्गम) नियम 2003 के तहत राष्ट्रव्यापी-एनआरसी को भारतीय नागरिकों का राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरआईसी) कहा जाएगा. गृह मंत्रालय के 31 जुलाई 2009 की गजट अधिसूचना के अनुसार जनसंख्या रजिस्टर को तैयार करने और अद्यतन करने के लिए, असम के अलावा पूरे भारत में स्थानीय रजिस्ट्रार के अधिकार क्षेत्र में आमतौर पर रहने वाले सभी व्यक्तियों से संबंधित सूचनाओं के संग्रह के लिए घर-घर जाकर गणना की जाएगी. यह अभियान 2020 में पहली अप्रैल से 30 सितंबर तक चलेगा.
असम में पांच साल तक चली एनआरसी की सख्त कवायद ने धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों की गरिमा को तार-तार कर दिया. अपने ही देश में नागरिकता साबित करने के लिए कहे जाने से ज़्यादा अपमानजनक और क्या हो सकता है. नागरिकता छिनने के भय में बहुत से लोगों ने आत्महत्या कर ली, अधिकांश लोगों को दस्तावेजों के लिए चक्कर काटने पड़ रहे हैं और अनेकों बार सुनवाइयों में बुलाए जाने के चलते लोगों को बहुत नुकसान सहना पड़ा है. धार्मिक आधार पर राज्य में इससे पहले इतना विभाजन कभी नहीं देखा गया था.
चतुराई से फैलाया गया झूठ
पूरे देश में अवैध मुस्लिम प्रवासियों की कथित मौजूदगी का डर दिखाना अब भारत में राजनीतिक बयानबाज़ी का हिस्सा बन चुका है. इसके पक्ष में ठोस आंकड़ें पेश नहीं किए जाते हैं. असम एकमात्र राज्य है जहां कि अवैध प्रवासियों की वास्तविक संख्या की गणना के लिए एनआरसी की कवायद की गई है. बीते वर्षों में नेता लोग संभावित संख्या को एक करोड़ से 50 लाख के बीच बताते थे. लेकिन अंतिम एनआरसी सूची से मात्र 19 लाख लोगों को बाहर रखा गया और जल्दी ही ये साफ हो गया कि बाहर रखे गए ज़्यादातर लोग भी भारत के ही नागरिक हैं. सूची में मां-बाप को रखने और बच्चों को बाहर किए जाने के मामले अकथनीय पीड़ा की वजह बने हैं और ये घुसपैठिए संबंधी दुष्प्रचार की पोल भी खोलते हैं. एनआरसी की कवायद में सूची से बाहर रखे गए लोगों की नागरिकता सुनिश्चित करने का उत्तरदायित्व विदेशी नागरिक न्यायाधिकरण पर छोड़ा गया है.
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असम में सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में कार्यान्वित एनआरसी के परिणामों से नाखुश अमित शाह ने संसद में कहा कि राष्ट्रव्यापी-एनआरसी के साथ ही असम में एनआरसी का एक और दौर चलेगा. असम एनआरसी ने अवैध प्रवासियों के मिथक को तोड़ दिया और भाजपा की उम्मीदों के मुकाबले कहीं कम मुसलमानों को नागरिक रजिस्टर से बाहर रखा गया. साथ ही बहुत से हिंदुओं को भी रजिस्टर में शामिल नहीं किया गया. इसलिए वे असम के अनुभव को दोहराना नहीं चाहते हैं.
अगली बार एनआरसी – असम और पूरे भारत में – लागू करते समय सरकार यह सुनिश्चित करना चाहती है कि गैर-मुस्लिमों को बचाया जाए और अधिक से अधिक मुसलमानों को नागरिक रजिस्टर से बाहर रखा जाए.
असम एनआरसी में नागरिकता नियम 2003 के खंड 3 और उपखंड (3) के तहत 1.3 करोड़ लोगों को ओआई या मूल निवासी माना गया. ज़रूरी दस्तावेज जमा नहीं कराने की स्थिति में भी इन लोगों को सत्यापन प्रक्रिया से नहीं गुजरना पड़ा क्योंकि पंजीयन अधिकारी को इनकी नागरिकता पर संदेह की कोई गुंजाइश नहीं दिखी. हालांकि राष्ट्रव्यापी एनआरसी में यह प्रावधान लागू नहीं होगा, पर नागरिकता संशोधन विधेयक इससे ज़्यादा अलग नहीं होगा और पंजीयन अधिकारी की मान्यता भी ऐसी ही होगी क्योंकि इसमें सारे गैर-मुस्लिम अवैध प्रवासियों को नागरिक बनाने की व्यवस्था है. इस बार गैर-मुस्लिमों की नागरिकता पर संदेह नहीं किया जाएगा. उनकी नागरिकता को पर्याप्त संदेह से परे माना जाएगा. तमाम सत्यापन और जांच प्रक्रियाओं से गुज़रने वाला एकमात्र समुदाय मुसलमानों का होगा.
सुनवाई पर सुनवाई
नागरिकता नियम 2003, जिसके तहत राष्ट्रव्यापी-एनआरसी और एनपीआर को लागू किया जाएगा, पंजीकरण अधिकारी को किसी की भी नागरिकता पर संदेह करने और सुनवाई एवं सत्यापन के चक्रों में उसे शामिल करने की विवेकाधीन शक्ति प्रदान करता है. साथ ही, यह नियम किसी भी व्यक्ति को एनआरसी की प्राथमिक सूची में शामिल किसी अन्य व्यक्ति के खिलाफ आपत्ति दर्ज कराने की अनुमति देता है.
असम में ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) और 30 अन्य संगठनों ने 1.87 लाख आपत्तियां दर्ज कराई थीं जिनमें से अधिकांश मुसलमानों के विरुद्ध थीं. उन्होंने किसी को भी नहीं छोड़ा था – बच्चे, बूढ़े, बीमार और स्वतंत्रता सेनानी की संतान तक को नहीं.
राष्ट्रव्यापी-एनआरसी के दौरान यह प्रावधान कुछ संगठनों और व्यक्तियों के लिए मुसलमानों और हाशिए पर पड़े समुदायों को निशाना बनाने का औजार साबित होगा, जो उनके खिलाफ आपत्तियां दर्ज कराएंगे. इसके कारण सुनवाइयों के अतिरिक्त दौर आयोजित किए जाएंगे और उन्हें परेशानियां उठानी पड़ेंगी.
यदि कोई व्यक्ति एक बार आपत्ति प्रक्रिया से बेदाग बच निकलता है तो कोई भी असहमत पक्ष 30 दिनों के भीतर फिर से आपत्ति दर्ज करा सकता है. फलस्वरूप, सत्यापन का एक दौर चलेगा. इस दौर में आपत्ति खारिज किए जाने के बाद ही संबंधित व्यक्ति का नाम एनआरआईसी में शामिल हो सकेगा.
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नागरिकता साबित करने के लिए मुसलमानों को इस सख्त प्रक्रिया से गुजरना होगा जिसका असर उनकी उत्पादकता, वित्तीय स्थिति तथा शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ेगा. हर राज्य में मुसलमान दस्तावेज जुटाने के लिए भागदौड़ कर रहे हैं. उनकी मस्जिद कमेटियां और नागरिक संगठन मुख्यतया एनआरसी पर ही ध्यान दे रहे हैं. राष्ट्रव्यापी-एनआरसी के नाम पर भय का माहौल बनाया जा रहा है.
‘दीमक’ बनाम अर्थव्यवस्था
अवैध प्रवासियों संबंधी दावों के पक्ष में आंकड़ों के नहीं होने के बावजूद एक कथानक गढ़ा जा रहा है कि भारत में लाखों की संख्या में अवैध प्रवासी हैं जोकि अमित शाह के शब्दों में, देश को ‘दीमकों’ की तरह खा रहे हैं.
इस बात के भी सबूत नहीं हैं कि अवैध प्रवासियों से राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा बन गया है. पर बीते वर्षों में असम की राजनीति में यही सब तो हुआ था.
पिछले दिनों झारखंड की एक चुनावी रैली में एक बार फिर अमित शाह के भाषण में ‘घुसपैठिया’ शब्द हावी रहा.
उन्होंने हरियाणा की चुनावी रैलियों में भी एनआरसी की चर्चा की थी, और पश्चिम बंगाल में भी लगातार एनआरसी और राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा उठाया था. संकेत ठीक नहीं दिख रहे.
कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को निरस्त किए जाने और सुप्रीम कोर्ट द्वारा अयोध्या में राम मंदिर की अनुमति दिए जाने के बाद भाजपा को देश में ध्रुवीकरण के लिए एक नया मुद्दा चाहिए. नागरिक (संशोधन) विधेयक के बाद एक राष्ट्रव्यापी-एनआरसी खस्ताहाल होती अर्थव्यवस्था और विकास के वायदों से लोगों का ध्यान भटकाने में उपयोगी साबित होगा.
(लेखक गुवाहाटी उच्च न्यायालय में वकील हैं और असम के हिरासत केंद्रों में मुसीबत झेल रहे लोगों की मदद करते हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)
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