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Friday, 1 November, 2024
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नागरिकता कानून के सहारे संविधान और लोकतंत्र को सूली पर लटकाने पर आमादा हैं मौजूदा सत्ताधीश

वर्तमान हालात में इन सत्ताधीशों को एक चीज याद दिलाई जा सकती है, अदम गोंडवी के शब्दों में- 'हैं कहां हिटलर, हलाकू, जार और चंगेज खां, मिट गये सब कौम की औकात को मत छेड़िये.'

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ईसा मसीह को क्रूस पर लटकाया जाने लगा तो उन्होंने लटकाने वालों के लिए प्रार्थना करते हुए कहा था, ‘हे पिता, इन्हें क्षमा कर देना क्योंकि ये नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं.’ लेकिन यह बात हमारे आज के सत्ताधीशों के लिए नहीं कही जा सकती, जो नये नागरिकता कानून और रजिस्टर की बिना पर देश के लोकतंत्र व संविधान के साथ अमनचैन तक को सूली पर लटकाने पर आमादा हैं.

इसके दो कारण हैं: पहला यह कि ये प्रार्थनाओं की भाषा समझते ही नहीं हैं और दूसरा यह कि जो कुछ भी कर रहे हैं, अनजाने में नहीं, जानबूझकर और सोची-समझी योजना के तहत कर रहे हैं. उनका दावा है कि वे देश की जनता से इसका वादा करके चुनाव जीते हैं, इसलिए उन्हें इसका जनादेश प्राप्त है. तिस पर यह बात भी किसी से छिपी हूई नहीं कि संस्कृति के चोले में राजनीति की पेंगे मारता रहने वाला उनका पितृसंगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ 1925 में अपने जन्मकाल से ही देश को ‘हिन्दू राष्ट’ में परिवर्तित करने के अपने घोषित लक्ष्य के प्रति समर्पित है.

ऐसे में, सच कहा जाये तो हैरत इस बात पर नहीं होती कि स्थितियों और परिस्थितियों के अपने अनुकूल होते ही उसके सत्तासेवी स्वयंसेवक तेजी से उसके लक्ष्य की दिशा में बढ़ने लगे हैं. उलटे वह इस पर होती है कि ऐसी शक्तियां, जो इस विषम युद्ध में उनसे लड़ने और उन्हें हराने का दम भरती हैं, अभी भी ऐसी मासूमियत की शिकार हैं कि उन्हें उनके वास्तविक स्वरूप में पहचान तक नहीं पा रहीं.

उनमें से कई उन्हें 1893 में शिकागो में हुए विश्व धर्म सम्मेलन में 11 सितम्बर को स्वामी विवेकानन्द द्वारा कही गई बातें याद दिला रही हैं. खासकर यह कि स्वामी ने भारत को दुनिया की सबसे पुरानी संत परम्परा व इसकी धरती को सभी धर्मों की जननी बताया और कहा था कि सहिष्णुता का विचार पूरब के देशों से फैला है.


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ताज्जुब कि इन शक्तियों का सत्ताधीशों को यह सब याद दिलाने का अन्दाज ऐसा है, जैसे ये बातें याद आते ही उन्हें सद्बुद्धि आ जायेगी और वे अपने पांव पीछे खींच लेंगे. इतना ही नहीं, वे विवेकानन्द की तरह उस धर्म पर गर्व करने लगेंगे, जिसने दुनिया को सहिष्णुता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है. साथ ही कहने कि हम सिर्फ सार्वभौमिक सहिष्णुता पर ही विश्वास नहीं करते बल्कि, सभी धर्मों को सच के रूप में स्वीकार करते हैं.

ये शक्तियां इस संघर्ष में अपनी जीत को लेकर वाकई गम्भीर हैं तो उन्हें कम से कम इतना तो समझना ही चाहिए कि इन सत्ताधीशों की लक्ष्य साधना अब इतनी भोली नहीं रह गई है कि उसे स्वामी विवेकानन्द या उन जैसे दूसरी शख्सियतों के कथनों या रास्तों में उलझाया जा सके. ऐसी असुविधा की स्थिति में वह अपने गुरु माधव सदाशिव गोलवलकर के ‘बंच ऑफ थॉट्स’ से भी मुंह चुरा सकती हैं तो विवेकानन्द भला क्या चीज हैं? इस साधना की हमारी बहुलता व विविधता से इतने सालों की दुश्मनी के बावजूद इस तथ्य में संदेह करना कि उसकी कामनाओं का हिन्दू राष्ट्र विवेकानन्द के विचारों से नहीं ‘मनुस्मृति’ से शासित होता है, उसके लिए किसी ‘कॉम्प्लीमेंट’ से कम नहीं. उसे हराने के लिए यह समझना अनिवार्य है कि इस दुश्मनी के बीच उसने ऐसी ‘नई जनता’ भी पैदा कर ली है, जो उसी की तरह बहुलतावादी भारत को ऐसे ‘न्यू इंडिया’ से प्रतिस्थापित करने के फेर में रहने लगी है, जिसमें उसके छोड़ किसी और के सपनों व सरोकारों के लिए कोई जगह न हो.

हिन्दी के महत्वपूर्ण कवि कुमार अम्बुज ने अपनी बहुचर्चित कविता ‘क्रूरता’ में 1996 में इसकी आहट पहचान ली थी. धीरे धीरे क्षमाभाव समाप्त हो जाएगा, प्रेम की आकांक्षा तो होगी मगर जरूरत न रह जाएगी, झर जाएगी पाने की बेचैनी और खो देने की पीड़ा, क्रोध अकेला न होगा वह संगठित हो जाएगा, एक अनंत प्रतियोगिता होगी जिसमें लोग, पराजित न होने के लिए नहीं, अपनी श्रेष्ठता के लिए युद्धरत होंगे, तब आएगी क्रूरता, पहले हृदय में आएगी और चेहरे पर न दीखेगी, फिर घटित होगी धर्मग्रंथों की व्याख्या में, फिर इतिहास में और फिर भविष्यवाणियों में, फिर वह जनता का आदर्श हो जाएगी, निरर्थक हो जाएगा विलाप, दूसरी मृत्यु थाम लेगी पहली मृत्यु से उपजे आंसू, पड़ोसी सांत्वना नहीं एक हथियार देगा, तब आएगी क्रूरता और आहत नहीं करेगी हमारी आत्मा को, फिर वह चेहरे पर भी दिखेगी, लेकिन अलग से पहचानी न जाएगी, सब तरफ होंगे एक जैसे चेहरे, सब अपनी-अपनी तरह से कर रहे होंगे क्रूरता, और सभी में गौरव भाव होगा, वह संस्कृति की तरह आएगी, उसका कोई विरोधी न होगा, कोशिश सिर्फ यह होगी कि किस तरह वह अधिक सभ्य, और अधिक ऐतिहासिक हो, वह भावी इतिहास की लज्जा की तरह आएगी, और सोख लेगी हमारी सारी करुणा, हमारा सारा श्रृंगार, यही ज्यादा संभव है कि वह आए, और लंबे समय तक हमें पता ही न चले उसका आना.

आज की तारीख में वास्तव में हुआ यही है. लड़ने की दावेदार शक्तियों को अरसे तक इस साधना की क्रूरता का पता ही नहीं चला. इसका भी नहीं कि यह साधना जिस हिन्दुत्व पर गर्व करने को कहती है, वह उस देश पर गर्व करना नहीं सिखाता, जिसने सभी धर्मों और सभी देशों के सताए गए लोगों को अपने यहां शरण दी. उसे अपने दिल में इजराइल की वे पवित्र यादें संजाकर रखे रहने में भी दिलचस्पी नहीं, जिनमें उनके धर्मस्थलों को रोमन हमलावरों ने तहस-नहस कर दिया था और फिर उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली थी.


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मानते रहे होंगे विवेकानन्द और अपनी मान्यता के पक्ष में सुनाया होगा उन्होंने कोई श्लोक, यह हिन्दुत्व यह भी नहीं मानता कि जिस तरह अलग-अलग जगहों से निकली नदियां, अलग-अलग रास्तों से होकर आखिरकार समुद्र में मिल जाती हैं, ठीक उसी तरह मनुष्य अपनी इच्छा से अलग-अलग रास्ते चुनता है. इस लक्ष्य साधना को यह स्वीकारना भी नहीं सुहाता कि ये रास्ते देखने में भले ही अलग-अलग लगते हैं, लेकिन ये सब ईश्वर तक ही जाते हैं. इस हिन्दुत्व को गैर-हिन्दुओं के तो छोड़िये, सारे हिन्दुओं के समान अधिकार भी अच्छे नहीं लगते.

फिर उसे रवीन्द्रनाथ टैगोर की कल्पना वाला भारत ही क्योंकर अभीष्ट होगा, जहां उड़ता फिरे मन बेखौफ, और सिर हो शान से उठा हुआ, जहां ज्ञान हो सबके लिए बेरोकटोक बिना शर्त रखा हुआ, जहां घर की चैखट सी छोटी सरहदों में न बंटा हो जहां, जहां सच की गहराइयों से निकले हर बयान, जहां बाजुएं बिना थके लकीरें कुछ मुकम्मल तराशें, जहां सही सोच को धुंधला न पाएं उदास मुर्दा रवायतें, जहां दिलो-दिमाग तलाशें नए खयाल और उन्हें अंजाम दें, ऐसी आजादी के स्वर्ग में, ऐ भगवान, मेरे वतन की हो नई सुबह.

जो लोग फिर भी सत्ताधीशों को उनकी बातें याद दिला रहे हैं, उन्हें पता नहीं शायद या वे भी इस तथ्य की ओर से जानबूझकर नादान बने हुए हैं कि ये सत्ताधीश ‘हिंदू तन-मन, हिंदू जीवन, रग-रग हिंदू’ कहकर अपना परिचय देने वाले अटल बिहारी वाजपेयी तक के भारत को भी पीछे छोड़ आये हैं. मैंने छाती का लहू पिला, पाले विदेश के क्षुधित लाल. मुझको मानव में भेद नहीं, मेरा अन्तस्थल वर विशाल. जग से ठुकराए लोगों को लो मेरे घर का खुला द्वार. अपना सब कुछ हूं लुटा चुका, फिर भी अक्षय है धनागार. मेरा हीरा पाकर ज्योतित परकीयों का वह राजमुकुट….होकर स्वतंत्र मैंने कब चाहा है कर लूं सब को गुलाम? मैंने तो सदा सिखाया है करना अपने मन को गुलाम. गोपाल-राम के नामों पर कब मैंने अत्याचार किया? कब दुनिया को हिंदू करने घर-घर में नरसंहार किया?

इसी गीत में ‘भूभाग नहीं, शत-शत मानव के हृदय जीतने’ के अटल के निश्चय और साथ ही ‘कोई बतलाए काबुल में जाकर कितनी मस्जिद तोड़ी?’ के सवाल को तो खैर छह दिसम्बर, 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढहाते वक्त ही सरयू में विसर्जित कर दिया गया था. अटल युग से मोदी युग तक की ‘गौरवशाली’ सत्तासाधना के बावजूद इन ‘साधकों’ को ‘लोकतात्रिक’ मानकर लोकतंत्र के गुण और मूल्य याद दिलाना उनकी हिन्दू राष्ट्र के प्रति अदम्य निष्ठा में संदेह जताना तो है ही, इस मुगालते में रहना भी कि जब कभी वे ढोल नगाड़े बजाकर खुद को अभीष्ट हिन्दू राष्ट्र के अवतरण का एलान कर देंगे, तब देखा जायेगा. तब कुछ देख सकने के लिए आज ही यह देख लेना जरूरी है कि संसद में नागरिकता बिल पर चर्चा के वक्त गृहमंत्री अमित शाह की जुबान पर सायास पंडित जवाहरलाल नेहरू का नाम भी आया ही!


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एक समय था जब सत्ताधीशों के बारे में कहा जाता था कि सत्ता धीरे-धीरे उनके सारे मानवीय गुणों को नष्ट कर देती है. लोकतंत्र आया तो उम्मीद की जाने लगी कि धीरे-धीरे ही सही, अंततः वे अपने बारे में इस मान्यता को बदल लेंगे. लेकिन उन्होंने इस उम्मीद को भी नाउम्मीद करके ही दम लिया. तभी तो हमारे वर्तमान सत्ताधीश अपनी नफरतें प्रदर्शित करने के अनेक बहाने ढूढ़ ले रहे हैं, जबकि प्रेम जताने का एक बहाना भी नहीं ढूंढ़ पा रहे. भय के माहौल को गहराकर लोगों को डराने के भरपूर वितान रचने के बाद वे कह रहे हैं कि किसी को डरने की जरूरत नहीं है और इस सवाल के जवाब में चुप हैं कि डरने की जरूरत नहीं है तो उन्हें ऐसा कहने की जरूरत ही क्यों पड़ गई? आखिर क्यों, जम्मू कश्मीर से पूर्वोत्तर तक कर्फ्यू या उस जैसी स्थिति आम होकर रह गई है और वे बार-बार उसे सामान्य बताते नहीं थक रहे. ऐसी स्थिति आम हो जायेगी तो लोग डरेंगे नहीं तो क्या करेंगे?

बहरहाल, वर्तमान हालात में इन सत्ताधीशों को एक चीज याद दिलाई जा सकती है, अदम गोंडवी के शब्दों में- ‘हैं कहां हिटलर, हलाकू, जार और चंगेज खां, मिट गये सब कौम की औकात को मत छेड़िये.’

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, इस लेख में उनके विचार निजी हैं)

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