आमार शोनार बांगला
आमि तोमाए भालोबाशी
बंगभंग के समय लिखा गया गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर का ये गीत 1971 में बांग्लादेश का राष्ट्रगान बना. तभी भारत में हम लोगों ने भी ये लाइनें याद कर ली थीं. क्योंकि बांग्लादेश का मुक्ति संग्राम भारत में बैठे मुक्तिकामी लोगों को भी अपनी ही लड़ाई जैसा लगता था. भारतीय सेना ने तो बाद में बाकायदा वहां जाकर ही उनकी आकांक्षा को आजादी में बदलने के काम में सहयोग किया.
लेकिन सिर्फ चार साल में हालात बदल गए. बंगबंधु शेख मुजीबुर्रहमान की हत्या, सैनिक तख्तापलट और शुरू हो गया बांग्लादेश की राजनीति में भारत को दुश्मन मानने का दौर. इतना कि लगता था कि बांग्लादेश तो अब पूर्वी पाकिस्तान से भी ज्यादा पाकिस्तान हो गया है. दोनों देशों के बीच भरोसे का रिश्ता मानो टूट गया और उसकी जगह ले ली थी एक गहरे अविश्वास ने.
बांग्लादेश के भीतर कट्टरपंथी राजनीति लगातार पनप रहा था और इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में भारत के प्रति अविश्वास का रवैया बढ़कर खुराफात में तब्दील हो गया. बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी और जमात ए इस्लामी की साझा सरकार ने खुलकर पूर्वोत्तर भारत में अलगाववादी गतिविधियोें को हवा दी और उनके नेताओं को पनाह भी.
तब से अब तक गंगा में भी बहुत पानी बह चुका है और मेघना में भी. दोनों देशों के रिश्ते भी एक लंबी सुसुप्तावस्था के बाद कुछ कुछ गर्मजोशी की तरफ बढ़े हैं. बांग्लादेश में शेख हसीना की वापसी और भारत में मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल में अपनाई गई नेबरहुड फर्स्ट पॉलिसी यानी पड़ोसियों के साथ अच्छे संबंध रखने की नीति ने संबंध सुधारे हैं. सुषमा स्वराज अब नहीं रहीं, मगर विदेश मंत्री के रूप में उन्होंने जो ऐतिहासिक करार बांग्लादेश के साथ किया वो अपने आप में एक मिसाल है. लग रहा था कि लंबे समय के बाद भारत और बांगलादेश के बीच अविश्वास का दौर शायद अब खत्म होगा.
लेकिन नागरिकता संशोधन कानून या सीएए ने और उससे पहले असम में हुए राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर या एनआरसी के पायलट प्रोजेक्ट ने जैसे दूध को फाड़ने वाला काम कर दिया है. इससे बांग्लादेश में कई तरह के सवाल खड़े होने लगे हैं.
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लेकिन उसपर आगे बढ़ने से पहले एक चीज़ पर और नज़र डालना ज़रूरी है. ये बात पिछले दिनों में बहुत तेजी से साफ हो रही है . सोनार बांग्ला सचमुच सुवर्णभूमि बनने की तरफ बढ़ रहा है. जीडीपी ग्रोथ के मामले में उसने भारत को पीछे छोड़ रखा है और जहां भारत की जीडीपी बढ़त का अनुमान घटाया गया है वहीं एडीबी ने बांग्लादेश की तरक्की का अनुमान बढ़ा दिया है. 8.1% की रफ्तार से इस साल बढ़ेगी बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था, ये ताज़ा अनुमान है. अनुमान ये भी है कि अगले साल ही बांग्लादेश प्रति व्यक्ति आय के मामले में भारत से आगे निकल जाएगा.
जो लोग अंतरराष्ट्रीय कारोबार पर नज़र रखते हैं वो जानते हैं कि बांग्लादेश ने खासकर तैयार कपड़ों के एक्सपोर्ट के मामले में खासा नाम बना लिया है. चीन के हाथ से जो कारोबार फिसल रहा है उसका बड़ा हिस्सा बांग्लादेश को भी मिलता है.
आबादी के लिहाज से बांग्लादेश भारत से काफी छोटा है लेकिन वहां आबादी बहुत घनी है, यानी आबादी का दबाव जितना हम भारत में महसूस करते हैं उससे कहीं ज्यादा बांग्लादेश करता है. मौसम की मार भी वहां बहुत ज्यादा है. नदी बेसिन की सामान्य परेशानियां हों या बड़े समुद्री तूफान, दोनों ही बांग्लादेश के लिए लगातार खतरा बनकर खड़े रहते हैं. इसके बावजूद अगर देश तेज़ी से तरक्की कर रहा है तो इसका कारण चीन या अमेरिका में नहीं, देश के भीतर ही हो सकता है.
और आज की तारीख में किसी भी देश के भीतर तरक्की का सबसे बड़ा कारण क्या हो सकता है? उद्यमी लोग और सक्रिय सरकार. यही है जो बांग्लादेश की तकदीर बदल रहा है. कारोबारी ऑर्डर लाते हैं, कारीगर उसे तैयार करते हैं और सरकार ने इंतजाम किया हुआ है कि उनके कामकाज में कोई बेवजह की रुकावट न आए. सिंपल.
लेकिन बात तो भारत बांग्लादेश संबंधों की हो रही थी. तो वहां भी अगर आप ध्यान से देखें तो साफ है कि बांग्लादेश की सरकार कोई मुश्किल खड़ी करने की मुद्रा में नहीं है. उलटे वो इस अंदाज में है जिसे अंग्रेजी में कहते हैं बिजनेस एज़ यूजुअल, मानो कुछ हुआ ही न हो.
बांग्लादेश के विदेश मंत्री ए के अब्दुल मोमिन ने कहा है कि उनके देश ने भारत से आग्रह किया है कि अगर कोई बांग्लादेशी नागरिक वहां (भारत में) अवैध रूप से रहते पाए गए हैं तो उनकी सूची बांग्लादेश को दी जाए. उन्होंने ये भी कहा कि ‘हम ऐसे लोगोें को वापस आने की इजाज़त देंगे क्योंकि अपने देश में वापस आना उनका अधिकार है.’ हालांकि साथ ही उन्होंने ये भी कहा कि अगर उनके नागरिकों के अलावा कोई बांग्लादेश में घुसने की कोशिश करेगा तो उसे वापस भेज दिया जाएगा.
यहां ये बताना जरूरी है कि चार महीने पहले जब एनआरसी पर विवाद चल रहा था तब भी बांग्लादेश में इस मसले पर काफी चिंता जताई जा रही थी और अक्टूबर की शुरुआत में शेख हसीना जब भारत आईं तो उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी से ही इसपर सवाल पूछा था. प्रधानमंत्री ने शेख हसीना को भरोसा दिलाया था कि ये भारत का आंतरिक मामला है. बांग्लादेश पर कोई असर नहीं पड़ेगा और उन्हें चिंता नहीं करनी चाहिए.
अभी दो महीने नहीं बीते हैं लेकिन बाग्लादेश के विदेश मंत्री का बयान साफ दिखा रहा है कि वहां चिंता खत्म नहीं हुई है. भारत के भीतर का माहौल भी यही दिखा रहा है कि चिंताएं खत्म नहीं हुई हैं. अगर यहीं खत्म नहीं हुई हैं तो वहां कैसे हो जाएंगी.
हां लेकिन अब्दुल मोमिन के बयान में एक लाइन ऐसी है जिसपर पूरे भारत को चिंता होनी चाहिए. उन्होंने कहा, ‘कुछ भारतीय आर्थिक कारणों से बांग्लादेश में घुस रहे हैं. सोचिए इसका मतलब क्या है. पूरे भारत में जो बांग्लादेशी लोग जगह जगह आकर बसे हुए हैं, वो क्यों आए हैं? रोज़ी रोटी की तलाश में. मैं मुंबई में ऐसे अनेक बांग्लादेशियों को जानता हूं. ये घरों में काम करनेवाली बाइयां, प्लंबर, इलेक्ट्रीशियन का काम करनेवाले लड़के, दूध बेचनेवाले, गाड़ियां धोनेवाले और इसी तरह के तमाम कामों में लगे लोग हैं. जैसे मैं जानता हूं वैसे ही पुलिस भी जानती है कि ये लोग कौन और कहां हैं.’
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अक्सर इनमें से कुछ पकड़े भी जाते हैं, और फिर कुछ डील होने के बाद वापस आ जाते हैं. इनकी बेहाली तब देखनेवाली होती है जब इनके गांव से किसी की बीमारी या गायब होने की खबर आती है. क्योंकि इनके लिए गांव जाना आना हर बार वैसी ही कसरत है जैसी आपने बजरंगी भाईजान में देखी थी. फिर भी ये इतनी तकलीफ उठाकर भारत क्यों चले आते हैं, जब पूछा तो जवाब एक ही है- पापी पेट का सवाल. कुछ कमाने के लिए.
तो एक तरफ इतने सारे लोग आर्थिक कारणों से बांग्लादेश से भारत में आ चुके हैं, और दूसरी तरफ बांग्लादेश का दावा है कि आर्थिक कारणों से भारतीय सीमा के उस पार जाने की कोशिश कर रहे हैं. जाहिर है, ये जीडीपी की रफ्तार का गुरूर है. अभी तो सिर्फ गुरूर है, लेकिन अगर बांग्लादेश की प्रति व्यक्ति आय भारत से आगे निकल गई तो ये गुरूर बहुत गलत भी तो नहीं रह जाएगा.
लेकिन इसे कटाक्ष मानकर छोड़ दें तब भी ये बात सोचने लायक है कि नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी से भारत आस पड़ोस के देशों में क्या संदेश दे रहा है. बांग्लादेश के अर्थशास्त्री आशिकुर रहमान ने आज ही एक लेख लिखा है और इसपर चिंता जताई है. उनका कहना है कि सीएबी और एनआरसी दोनों भारत के सामाजिक ताने बाने को दो खांचों में बांटने के औजार हैं, यानी हिंदू एक तरफ और बचे हुए सब दूसरी तरफ. उनकी राय में इससे दिल्ली की मौजूदा सरकार को भले ही फायदा पहुंचे लेकिन पूरे दक्षिण एशिया में पहले से मौजूद सांप्रदायिक विभाजन की दरारें इससे और गहराएंगी.
ये मामला भारत का है लेकिन रहमान का कहना है कि इससे बांग्लादेश में कट्टरपंथियों के खिलाफ संघर्ष कर रहे उदारवादियों के लिए बड़ी मुश्किल पैदा हो जाएगी. क्योंकि अगर भारत में धार्मिक आधार पर नागरिकता का फैसला होने लगा तो फिर बांग्लादेश में जमाते इस्लामी जैसे संगठनों को ऐसी ही मांग उठाने का मौका मिल जाएगा. और बड़ी चिंता यह है कि कोई भी सरकार कैसे भारत के साथ अच्छे रिश्तों की दलील दे पाएगी अगर जनता में भारत के प्रति शक पैदा हो गया.
साफ है कि ये मसला आसानी से दबनेवाला नहीं है, और इसे बेहद सावधानी के साथ देखा जाना चाहिए. और बांग्लादेश की सरकार सचमुच सावधानी के साथ चल रही है. वो भारत के खिलाफ बयानबाजी से परहेज़ कर रही है और साफ दिखा रही है कि वो इस वक्त देश की तरक्की के रास्ते में कोई रुकावट नहीं आने देना चाहती.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और यू ट्यूब चैनल youtube.com/C/1ALOKJOSHI के संचालक है)