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Saturday, 29 March, 2025
होममत-विमतचिपको आंदोलन ने अपने उद्देश्य से आगे बढ़कर बड़ी जीतें हासिल कीं, उत्तराखंड उनमें से एक है

चिपको आंदोलन ने अपने उद्देश्य से आगे बढ़कर बड़ी जीतें हासिल कीं, उत्तराखंड उनमें से एक है

अलग उत्तराखंड राज्य की मांग के आंदोलन में भी चिपको आंदोलन के तरीकों का प्रयोग शुरू हो गया और शांतिपूर्ण प्रदर्शन, सत्याग्रह, जन जागृति, आदि रोज होने लगी.

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तीन दशक के अंदर चिपको आंदोलन गढ़वाल के एक शांत गांव से सत्ता के गलियारों में पहुंच गया और उसने अलग उत्तराखंड राज्य की मांग को आकार दे दिया. चिपको आंदोलन और उसके सूत्रधारों ने कई पुरस्कार हासिल किए. चंडी प्रसाद भट्ट को 1982 में रेमन मैगसायसाय पुरस्कार से; 1986 में पद्मश्री सम्मान से; और 1987 में सुंदरलाल बहुगुणा, घनश्याम सैलानी, और धूम सिंह नेगी के साथ ‘राइट लावलिहुड अवार्ड से; 2005 में पद्मभूषण सम्मान से; 2015 में गांधी पीस प्राइज़ से; 2016 में सत्य साई सम्मान से नवाजा गया. बहुगुणा को 1986 में जमनालाल बजाज पुरस्कार से और 1989 में आईआईटी रुड़की की ओर से मानद डॉक्टरेट से सम्मानित किया गया. 1981 में उन्होंने पद्मश्री सम्मान लेने से तो मना कर दिया था लेकिन 2009 में पद्मभूषण सम्मान को स्वीकार किया.

इस बीच, वंदना शिवा हालांकि इस आंदोलन से सीधे नहीं जुड़ी थीं लेकिन उन्हें ‘इकोफेमिनिज़्म’ (महिलावादी पारिस्थितिकी) के सैद्धांतिक विमर्स को आकार देने के लिए अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली. उन्हें ‘यूएनईपी’ और ‘एफएओ’ से लेकर सिडनी, कैलगरी, और फुकुओका शांति पुरस्कारों से सम्मानित किया गया. ‘इकोफेमिनिज़्म’, हरित क्रांति की हिंसा, जैविक चोरी, पानी, मिट्टी, जीवाश्म ईंधनआदि के मसलों पर उन्होंने खूब लिखा. वास्तव में, वे पर्यावरण पर विमर्श का वैश्विक स्वर बन गईं. उनके प्रशंसकों की संख्या अच्छीख़ासी हो गई और उन्हें अमेरिका के शिक्षण संस्थानों के संगठन ‘आईवी लीग’ जैसे मंचों पर व्याख्यान देने के लिए निमंत्रित किया जाने लगा.

लेकिन चिपको आंदोलन के कुछ नेताओं को मान्यताएं देर से मिलीं.

शुरू के नायक

विडंबना यह है कि जिन गौरा देवी की पहल ने आंदोलन को गति प्रदान की उन्हें 1991 में उनकी मृत्यु के नौ साल बाद, और उत्तराखंड राज्य बनने के बाद सम्मानित किया गया. वे कभी कोई स्कूल नहीं गईं, बहुत जल्दी विधवा हो गईं, और अपनी छोटीसी जमीन पर खेती करते हुए गरीबी का जीवन जीती रहीं. लेकिन 1965 में उन्होंने महिला मंगल दल का गठन किया था और उसके नौ साल बाद 26 मार्च 1974 को उस यादगार विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व किया जो हिमालय क्षेत्र के चिपको आंदोलन के नाम से विख्यात हो गया. उन्होंने कोई किताब नहीं लिखी, उनकी अपनी कोई टीम नहीं थी जो उनकी ओर से मीडिया से संपर्क करती.

अपनी आत्मकथा ‘जेंटल रजिस्टेन्स’ में भट्ट ने उनके बारे में लिखा है: “उनके फौलादी साहस के साथ गहरी करुणा जुड़ी हुई थीमैं उनकी उस शालीनता को कभी भूल नहीं सकता जब उन्होंने रेणी गांव की महिलाओं के साथ पेड़ों को काटे जाने से बचा लेने के बाद मुझसे यह कहा था कि मैं उन लकड़हारों की बदतमीजियों के बारे में अधिकारियों से शिकायत न करूं, नहीं तो उनका रोजगार छिन जाएगा.‘

गनीमत है कि उत्तराखंड सरकार ने लड़कियों की शिक्षा के कार्यक्रम का नाम उनके नाम पर रखा है—‘गौरा देवी कन्या धन योजना’.

इसी किताब में भट्ट ने गोपेश्वर के एक दलित परिवार में जन्मे अपने दोस्त मुरारी लाल का विशेष जिक्र किया है, जो स्थानीय श्रमिक सहकारी संगठन ‘मल्लानागपुर श्रम संविदा समिति’ की नेतृत्व टीम से जुड़े थे और बाद में दशोली ग्राम स्वराज्य संघ के सदस्य बने. 50 से ज्यादा साल तक सामाजिक कार्यों में सक्रिय रहे मुरारी लाल ने गोपेश्वर के ठीक नीचे अपने गांव पापत्याना के भूस्खलन प्रभावित इलाके में बांजबुरांश का जंगल लगाने में मदद की थी. वे अपना हार्मोनियम लेकर भट्ट के सभी कार्यक्रमों से जुड़ जाते थे और अपनी सुरीली आवाज में आंदोलन के गीत गाया करते थे.


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राजनीतिक अंतर्धाराएं

अब हम चिपको आंदोलन के उन नेताओं का जिक्र करेंगे जो सीपीआई, उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी, और उत्तराखंड क्रांति दल के भी सदस्य थे. हालांकि इस राज्य में कम्युनिस्ट आंदोलन का नामोनिशान लगभग मिट चुका है लेकिन एक समय था जब उसका असर काफी मजबूत था. वास्तव में, जंगल और अलग राज्य के सवालों को उठाने वाला पहला राजनीतिक संगठन सीपीआइ ही था.

साठ वाले दशक में ही कम्युनिस्ट कार्यकर्ता यह मांग उठाने लगे थे कि जंगल में पड़ी खाली जमीन किसानों को बागवानी आदि के लिए पट्टे पर दी जाए और उन्हें खेती के औज़ार तथा आवास आदि बनाने के लिए लकड़ी रियायती दरों पर मुहैया कराई जाए. उन्होंने ही सबसे पहले यह मांग उठाई थी कि जंगल की नीलामी की मौजूदा व्यवस्था की जगह जंगल के सामुदायिक प्रबंधन की व्यवस्था लागू की जाए. टिहरी से 1969, 1974 और 1977 में लगातार चुने गए सीपीआइ विधायक गोविंद सिंह नेगी ने इस मांग को उत्तर प्रदेश विधानसभा में उठाया था. वास्तव में, उत्तर प्रदेश (अब उत्तराखंड) वन निगम और दूसरे राज्यों में इस तरह के संस्थानों के गठन के बीज इस मांग पर हुई बहस ने ही डाल दिए थे.

इस बीच, 25 मई 1977 को उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी (यूएसवी) का गठन भी एक बड़ा मुकाम था. इसकी प्रेरणा बिहार में जयप्रकाश नारायण की प्रेरणा से गठित छात्र युवा संघर्ष वाहिनी से मिली थी. उसने दलगत राजनीति से अलग रहकर गांवों में सघन काम करने का फैसला किया था. यूएसवी ने सरकार पर दबाव डाला कि वह ठेकेदारों को दिए गए ठेके रद्द करे, भूस्खलनों को रोकने के कदम उठाए, और अपने घर खो देने वालों का पुनर्वास करे. वह आंदोलन इतना मजबूत था कि कई जगहों पर जंगल की नीलामी में हिस्सा लेने के लिए कोई आगे नहीं आया.

लेकिन 1977 में नारायण दत्त तिवारी सरकार के इस्तीफे, और राम नरेश यादव की सरकार बनने के बाद लखनऊ के नेताओं ने नैनीताल और टिहरी में जंगल की नीलामी की फिर कोशिश की. इस बार राज्य पुलिस और ‘प्रोविंसियल आर्म्ड कॉन्स्टेबुलरी’ की भी मदद ली गई. उत्तर प्रदेश सरकार से टकराव की तैयारी हो गई. पहाड़ के लोगों को लग गया कि लखनऊ में जब मुख्यमंत्री उनके कुमाऊं का (जी.बी. पंत और एन.डी. तिवारी) या गढ़वाल (एच.एन. बहुगुणा) का नहीं होता तब सत्ता के गलियारों में उनकी आवाज अक्सर दबा दी जाती है.

यूएसवी ने राजनीतिक जागरूकता तो बढ़ा दी थी, मगर वह राजनीतिक पार्टी नहीं थी. ऐसा करने वाली पहली पार्टी बनी ‘उत्तराखंड क्रांति दल (यूकेडी), जिसकी स्थापना जुलाई 1979 के अंतिम सप्ताह में हुई. इसके अगुआ थे पत्रकार द्वारिका प्रसाद उनियाल और पूर्व कुलपति डी.डी. पंत. इस आंदोलन ने रफ्तार तब पकड़ी जब मुलायम सिंह यादव सरकार ने उत्तर प्रदेश के पहाड़ी जिलों (जिन्हें मिलाकर अब उत्तराखंड बन गया है) में शिक्षा तथा सरकारी नौकरी में 27 फीसदी आरक्षण को रद्द करने की मांग ठुकरा दी, बावजूद इसके कि पहाड़ों में अन्य पिछड़ी जातियों की आबादी 3 फीसदी से भी कम थी.

राज्य बना लेकिन उम्मीदें अधूरी रहीं

1994 से, अलग राज्य की मांग के आंदोलन में चिपको आंदोलन के तरीकों का प्रयोग शुरू हो गया और शांतिपूर्ण प्रदर्शन, सत्याग्रह, जन जागृति, गीतनुक्कड़ नाटक, लोगों से चंदा उगाही आदि रोज होने लगी. आंदोलन का नेतृत्व यूकेडी कर रहा था लेकिन शुरुआती हिचक की बाद काँग्रेस और भाजपा, दोनों को एहसास हुआ कि पहाड़ के लोगों के लिए अलग राज्य की मांग का विरोध करने का कोई कारण नहीं है. इस तरह, नवंबर 2000 में द्विपक्षीय सहमति के साथ नये राज्य (छत्तीसगढ़ और झारखंड के साथ) का गठन हुआ.

पहले इसका नाम रखा गया था उत्तरांचल लेकिन यूकेडी ने इसका उत्तराखंड नाम रखे जाने की मांग को लेकर आंदोलन कर दिया क्योंकि चिपको आंदोलनकारी इस नाम से लगाव महसूस करते थे. एन.डी. तिवारी ने 1 जनवरी 2007 को इस नाम की मंजूरी दे दी. लेकिन आंदोलन की सभी मांगें नहीं पूरी हुईं.

अपनी किताब ‘दि चिपको मूवमेंट: ए पीपुल्स हिस्टरी’ में शेखर पाठक ने देहरादून को ‘अंतरिम राजधानी’ बताया है. गढ़वाल और कुमाऊं के जंक्शन पर स्थित गैरसैण को राजधानी बनाने की मांग लंबे समय से की जा रही थी लेकिन इस मांग को आंशिक रूप से ही पूरा किया गया. हर साल वहां विधानसभा के कमसेकम दो अधिवेशन किए जाते हैं.

नए राज्य के गठन पर पाठक की प्रतिक्रिया इस आंदोलन की स्थिति का भी खुलासा करती है कि न तो यह पूरी तरह सफल रहा और न बिलकुल असफल रहा, बल्कि इन दोनों के बीच रहा. इस किताब में पाठक ने रामचंद्र गुहा से बातचीत में कहा है: “हम अपना राज्य पाकर खुश हैं लेकिन इस बात की उदासी भी है कि हमारी सभी उम्मीदें पूरी नहीं हुईं. हमारे मन में आक्रोश है क्योंकि हमारी मांगों का सम्मान नहीं किया गया.”

सभी आंदोलनों का सच भी शायद यही है. लोग आकांक्षाएं पालते हैं, उन्हें जोरदार तरीके से आगे बढ़ाते हैं, लेकिन सच्चाई के साथ भी तालमेल बिठाना पड़ता है.

चिपको आंदोलन पर तीन लेखों की सीरीज़ की यह अंतिम किस्त है. इस कड़ी का पहला और दूसरा लेख पढ़ने के लिए क्लिक करें. 

संजीव चोपड़ा पूर्व आईएएस अधिकारी हैं और वैली ऑफ वर्ड्स के फेस्टिवल के निदेशक रहे हैं. हाल तक वे लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी के निदेशक थे. उनका एक्स हैंडल @ChopraSanjeev हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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