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Wednesday, 20 November, 2024
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चीन के ऐप तो सरकार ने बैन कर दिये, पर भारत अब तक कोई लोकप्रिय ऐप क्यों नहीं बना पाया

भारत को लोग आईटी सुपरपावर कहते हैं. इस नाते क्या हमें इस बात को लेकर चिंतित होना चाहिए कि भारत के सबसे ज्यादा डाउनलोड होने वाले 10 में से एक भी मोबाइल ऐप भारतीय नहीं है?

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भारत ने चीन की कंपनियों के 59 मोबाइल ऐप बैन कर दिए हैं. इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर्स को निर्देश दिए गए हैं कि उन ऐप को ब्लॉक कर दिया जाए. इनमें से कुछ ऐप भारत में खासे लोकप्रिय हैं. मिसाल के तौर पर टिकटॉक के भारत में 2 करोड़ से ज्यादा यूजर्स हैं. चीन के ऐप का भारत एक बड़ा बाजार हैं. भारत में सबसे ज्यादा डाउनलोड किए जाने वाले 10 में से 6 ऐप चीन के थे. बाकी चार ऐप अमेरिका के हैं. वहीं, भारत के ऐप दुनिया में तो क्या भारत में भी गिने-चुने ही लोकप्रियता चार्ट में जगह बना पाते हैं.

ज्ञान के क्षेत्र में जहां तक तकनीकीकर्मियों की संख्या की बात है, तो भारत की स्थिति बेहद मजबूत हैं. हर साल भारत में 15 लाख इंजीनियरिंग ग्रेजुएट पास होकर निकलते हैं. इस लिहाज से भारत दुनिया का पहले नंबर का देश है. इनमें से बड़ी संख्या में वे इंजीनियर हैं, जिन्होंने आईटी, सॉफ्टवेयर और कंप्यूटर इंजीनियरिंग में डिग्री हासिल की है. इसके अलावा भारत में आईटी क्षेत्र में काम करने वाली कई बड़ी कंपनियां भी हैं. इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी का अलग से मंत्रालय भी है. लेकिन ये सब मिलकर भी हमें वे प्रोडक्ट बनाकर नहीं दे रहे हैं, जिनका हम इस्तेमाल करते हैं. इनके लिए भारत के लोगों को चीन और अमेरिका की कंपनियों पर निर्भर रहना पड़ता है.

एक स्थिति की कल्पना कीजिए कि चीन की सरकार अगर भारतीय ऐप पर अपने देश में पाबंदी लगाना चाहे तो? दरअसल ऐसा कोई भारतीय ऐप है ही नहीं, जिसका इस्तेमाल चीन में लोग करते हैं.


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टेक्नोलॉजिकल खोज के मामले में हम फिसड्डी क्यों?

हम बेशक ये दावा करें कि भारत आईटी सुपरपावर है, लेकिन हकीकत ये नहीं है. दुनिया में आईटी क्षेत्र में प्रतियोगी होने के मामले में 64 देशों की लिस्ट में भारत का स्थान काफी नीचे 46वां हैं. ये सच है कि हमारे पास आईटी सेक्टर में काम करने वाले लोगों की विशाल संख्या है, वे आईटी सेक्टर के अनुकूल इंग्लिश भाषा भी जानते हैं और विकसित देशों के मुकाबले वे कम वेतन पर भी काम करते हैं, लेकिन ये सकारात्मक बातें किसी देश को अपने आप आईटी पावरहाउस नहीं बना सकतीं.

और फिर बात सिर्फ आईटी की कहां हैं? चीन मैन्युफैक्चरिंग और एनर्जी से लेकर फाइनेंशियल सेक्टर में भारत से आगे निकल चुका है. ये ज्यादा गंभीर बात इसलिए है क्योंकि चीन और भारत ने अपनी यात्रा लगभग साथ-साथ शुरू की थी. जहां भारत 1947 में ब्रिटेन से आजाद हुआ, वहीं चीन में 1949 में क्रांति हुई और चीन का शासन पूरी तरह से चीन के लोगों के हाथ में आया. 1990 के दशक में दोनों देशों ने अपने बाजारों को खोला और उदारीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई. इसके बावजूद भारत लोकप्रिय ऐप नहीं बना रहा है और चीन ये कर पा रहा है.

भारत में क्यों नहीं हुई वैज्ञानिक क्रांति

दरअसल भारत की नई खोज न कर पाने की समस्या 1947 से नहीं शुरू हुई है और न ही चीन इस मामले में कोई रेफरेंस प्वायंट है. भारत ने मानव जीवन को सरल और सहज बनाने वाला कोई भी आधुनिक आविष्कार नहीं किया है. यूरोप और पश्चिमी दुनिया में बेशक पुनर्जागरण, वैज्ञानिक क्रांति और औद्योगिक क्रांति जैसी युगांतकारी घटनाएं हो गईं, लेकिन ये तमाम घटनाएं पूरे दक्षिण एशिया को छुए बगैर संपन्न हो गईं.

मैंने कई बार देश के अलग-अलग विश्वविद्यालयों और संस्थानों में एक आसान सा सर्वे करके इस बात को समझने की कोशिश की है. मैं सेमिनार हॉल या क्लासरूम में मौजूद विद्यार्थियों से पूछता हूं कि उन्हें इस समय जो कुछ ऐसा दिख रहा है, जिसे बनाने में विज्ञान का योगदान है, उसकी लिस्ट बनाएं. फिर मैं उनसे पूछता हूं कि इनमें से किस एक चीज का आविष्कार भारत में हुआ है. हर बार मुझे यही जवाब मिलता है कि उनकी नजर में ऐसी कोई वस्तु या मशीन या टेक्नोलॉजी नहीं है, जिसका आविष्कार भारत में हुआ है.

आप इस लेख को पढ़ते हुए वही प्रयोग दोहरा कर देख सकते हैं. अगर आप किसी शहरी घर में हैं तो बल्व, पंखा, कूलर, एसी, एयर प्यूरीफायर, वाशिंग मशीन, माइक्रोवेव, गैस का चूल्हा, लाइटर, कूकर, ओटीजी, मॉडर्न सीवर सिस्टम, कलम, कंप्यूटर, मोबाइल, टीवी, रेडियो और ऐसी ही सैकड़ों चीजों में शायद ही कोई चीज होगी, जिसका आविष्कार भारत में हुआ है. ये वे चीजें हैं, जिसने मानव जीवन को आसान बनाया है. इससे साबित होता है कि मोबाइल ऐप की बात नहीं है. हम आविष्कार करने वाला देश या समाज नहीं हैं.


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आविष्कार न कर पाने की समस्या क्यों?

भारत की आविष्कार न कर पाने की समस्या काल और स्थान की सीमाओं से परे है, इसलिए इसे सिर्फ आज की या किसी दल या सरकार की समस्या के रूप में देखने से बचना चाहिए. इसे ठीक करने से लिए हर दल को कम या ज्यादा समय मिला है. कांग्रेस को अगर केंद्र में पांच दशक से ज्यादा समय मिला है, तो बीजेपी को भी 12 साल मिल चुके हैं. कई राज्यों में भी उसे लंबा समय मिला है. लेफ्ट ने भी तीन दशक के अपने शासन में पश्चिम बंगाल में टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में कोई चमत्कार नहीं किया है.

अगर हमें अपनी यात्रा इसी तरह नहीं करनी है और ज्ञान-विज्ञान और टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में हम सचमुच सुपरपावर बनना चाहते हैं तो हमें इस बारे में निर्मम होकर विचार करना होगा कि हमारी ये दशा क्यों है और उन कारणों को समझने के बाद उन्हें दूर करना होगा. ये अच्छी बात नहीं है कि दुनिया की इतनी विशाल आबादी वाला भारत टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल तो करेगा, लेकिन नई टेक्नोलॉजी नहीं बनाएगा.

इस बारे में पक्का जवाब किसी के पास नहीं है, वरना इस बारे में लिखा जा चुका होता. लेकिन मैं कुछ स्थापनाएं और संभावनाओं का जिक्र कर रहा हूं, जिसमें शायद इस समस्या को समझने के कुछ सूत्र मिल सकते हैं.

1. ज्ञान और श्रम के बीच दूरी: भारतीय समाज में ये मान्यता हमेशा से हावी रही है कि मानसिक कार्य श्रेष्ठ है और शारीरिक श्रम का दर्जा नीचा है. इसका विस्तार ये है कि जो लोग मानसिक कार्य करते हैं वे ऊंचे हैं और जो मेहनत का काम करते हैं वे निम्न श्रेणी के लोग हैं. समाज का विभाजन भी इसी अनुसार हुआ है, जो जन्मजात रूप से लोगों को विभाजित कर देता है.

चूंकि शारीरिक श्रम करने वाले लोगों की ज्ञान तक कोई पहुंच नहीं है, इसलिए उनके काम को आसान बनाने को महत्व नहीं दिया जाता. जबकि शारीरिक श्रम को आसान बनाने के क्रम में ही दुनिया के ज्यादातर आविष्कार हुए हैं. श्रम से जुड़े लोगों ने ही सबसे महत्वपूर्ण आविष्कार किए हैं. मिसाल के तौर पर वर्कशॉप में काम करते हुए जेम्स वाट ने स्टीम इंजन बनाया. ताला बनाने वाले एक मिस्त्री ने दुनिया की पहली आधुनिक घड़ी बनाई. एक सुनार ने दुनिया का पहला प्रिटिंग प्रेस बनाया. लेकिन भारत में ये काम जातियां करती हैं. एक जाति है जिसका धार्मिक कर्तव्य कपड़े धोना है, जबकि दूसरी जाति है, जिसका काम पालकी ढोना है. इनका काम मुश्किल रहा है. लेकिन इनके काम को आसान बनाने के लिए वाशिंग मशीन और कार का आविष्कार पश्चिमी देशों में हुआ. स्थिति ये थी कि जिनकी समस्या थी, उनके पास ज्ञान तक पहुंच नहीं थी, और जिनके पास ज्ञान था, उन्हें कोई समस्या नहीं थी. ऐसी स्थिति में आविष्कार कैसे संभव हो पाता?

2. ज्ञान को लेकर गलत धारणा: भारत में उत्पादक समूहों के ज्ञान को ज्ञान मानने की परंपरा नहीं है. मिसाल के तौर पर एक पशुपालक को मवेशियों और पशुपालन की विधियों के बारे में बेहतरीन जानकारी हो सकती है. वैसे ही किसी किसी लकड़हारे या बढ़ई को लकड़ियों की प्रकृति और उनके इस्तेमाल के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी हो सकती है. किसानों को फसलों के बारे में ढेर सारी सूचनाएं और ज्ञान हो सकता है. लेकिन न तो इन्हें ज्ञान माना जाता है और न ही इन लोगों को ज्ञानी माना जाता है.

ज्ञान का अर्थ यहां कुछ धर्मग्रंथों को रटकर याद करना और उन्हें सही उच्चारण के साथ बोलना माना गया है. इस काम में महारत रखने वालों का समाज में ज्ञानी के तौर पर आदर रहा है. बावजूद इसके कि उस ज्ञान की मानव जीवन को आसान बनाने में कोई भूमिका नहीं है.

चीन में लिखने की प्राचीन परंपरा रही है. लेकिन भारत में लिखने की परंपरा बौद्ध काल के बाद टूट जाती है. रटकर याद करने और गाकर उसे बोलने यानी श्रुति और स्मृति का चलन सैकड़ों साल तक चलता है और वही ज्ञान का पर्याय बन जाता है. ये सारा ज्ञान संस्कृत में है, जो कभी लोकभाषा नहीं रही. ये ज्ञान भी मुख्य रूप से एक जाति के हाथों में केंद्रित रहा. प्रोफेसर कांचा इलैया शेफर्ड ने अपनी किताब पोस्ट-हिंदू इंडिया में इस बात का वर्णन किया है कि कारीगर, किसान और पशुपालक जातियों और आदिवासियों ने किस तरह ज्ञान का सृजन किया है.

ये ज्ञान लोकोपयोगी है और इसे समझना भी आसान है. समाज इनके ज्ञान का उपयोग करता है, लेकिन इस बात को स्वीकार नहीं करता कि वे ज्ञानी हैं. बल्कि इन कामों को करने वालों को समाज व्यवस्था में नीचे का दर्जा दिया जाता है. शारीरिक श्रम के प्रति अवमानना का भाव आज भी हैं और मानसिक कार्य के मुकाबले उनकी कीमत भी कम लगाई जाती है.

3. हिंदू धर्म का समाजशास्त्र पूंजीवाद के विचार के खिलाफ: हिंदू धर्म का ये बुनियादी विचार है कि मनुष्य ही नहीं, दुनिया का हर जीव जन्म-जन्मांतर के एक अनंत चक्र में बंधा है. पिछले जन्मों के कर्मों से वर्तमान जन्म में उसके स्थान का का निर्धारण होता है और इस जन्म में किए गए कर्मों का फल अगले जन्म में भोगना या भुगतना पड़ता है. कर्मफल सिद्धांत ने भारतीय मानस को जकड़ रखा है और इसकी वजह से वर्तमान जीवन को सुखद बनाने या तकनीकी खोज करने पर जोर नहीं है. वहीं, जाति से तय कर्मों से अलग कर्म करने को अधार्मिक माना गया है और कहा गया है कि ऐसा करने पर अगले जन्म में इसका नतीजा भुगतना पड़ेगा.

समाजशास्त्र के संस्थापक विद्वानों में से एक मैक्स वेबर ने जब ये जानने की कोशिश की कि आधुनिक पूंजीवाद यूरोप के खास समाज में ही क्यों आया तो इस क्रम में उन्होंने एशियाई समाजों का भी अध्ययन किया. भारत के धर्मों का अध्ययन करते हुए वे इस नतीजे पर पहुंचे कि ‘कर्म का सिद्धांत जब तक हावी रहेगा, तब तक भारतीय समाज में किसी क्रांतिकारी या प्रगतिशील विचार का आना संभव नहीं है.’

खासकर नीची जातियों के लोग नई खोज से अपने जीवन को बेहतर बनाने की जगह कर्मकांडों में जुटे रहेंगे, ताकि उनका अगला जीवन बेहतर हो. वेबर आगे कहते हैं कि ‘ये सोच पाना भी कठिन है कि जाति व्यवस्था के आधार पर आधुनिक पूंजीवाद का तंत्र खड़ा हो सकता है.’ वेबर ने अपने ये विचार अपनी पुस्तक इंडियन रिलीजन में व्यक्त किए हैं. ये दिलचस्प है कि भारत में वेबर को समाजशास्त्र के पाठ्यक्रम में विस्तार से पढ़ाया जाता है, लेकिन उनकी किताब इंडियन रिलीजन के बारे में नहीं पढ़ाया जाता.

4. ज्ञान के आधुनिक केंद्रों में सामाजिक विविधता का अभाव: पुराने दौर में उत्पादक जातियों को गुरुकुलों से दूर रखा जाता था और उन्हें न शिक्षा लेने का हक था न शिक्षा देने का. ये स्थिति कुछ बदलाव के साथ अब भी जारी है. भारत में ज्यादातर महत्वपूर्ण विश्वविद्यालयों और तकनीकी संस्थानों के शिक्षक पदों पर सवर्ण जातियों का जबर्दस्त वर्चस्व है. ये वर्चस्व प्रोफेसर पदों पर और बढ़ जाता है.


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इंडियन एक्सप्रेस के श्यामलाल यादव ने आरटीआई से मिली जानकारी के आधार पर बताया कि केंद्रीय विश्वविद्लायों में 95.2 फीसदी प्रोफेसर, 92.9 फीसदी एसोसिएट प्रोफेसर और 66.27 फीसदी एसिस्टेंट प्रोफेसर जनरल यानी अनरिजर्व कटेगरी के हैं. अमेरिकी की हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ा रही अजंता सुब्रह्मण्यन ने अपनी किताब कास्ट ऑफ मेरिट: इंजीनियरिंग एजुकेशन इन इंडिया में बताया है कि आईआईटी मद्रास में किस तरह तमिल ब्राह्मणों का वर्चस्व कायम रहा और इसे अमेरिका गए प्रवासियों ने किस तरह मजबूत किया. शिक्षा के क्षेत्र में सवर्ण वर्चस्व की वजह से ज्ञान का क्षेत्र सीमित हो जाता है और इस तरह एक अप्रतियोगी वातावरण का भी निर्माण करता है.

हमें एक ऐसे समय की कामना करनी चाहिए जब इन कारणों और कई और कारणों की पड़ताल की जाएगी और उन्हें दूर करके भारत में ज्ञान-विज्ञान और टेक्नोलॉजी के अनुकूल वातावरण की स्थापना की जाएगी, ताकि कोई देश हमें ये धमकी दे सके कि अगर आपने हमारी बात नहीं मानी तो हम भारतीय मोबाइल ऐप बैन कर देंगे!

(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. लेख उनके निजी विचार हैं)

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5 टिप्पणी

  1. just curious to know if writer of this article made anything or tried anything to overcome this situation of this country? all articles i read from this writer is vicious towards one caste and religion, until and unless people of this country including this writer will not think beyond identity, nothing will change. as gandhi said, be the change you want to see in this country. unfortunately in india, everyone just giving gyan, not implementing it on their own lyf.

  2. dilip ji ye tech world ki problem hain ,government ki nahi .goverment ne jo gait apps ban karke kari vo hi aap ” app creation” ko sarkar se jode kar kar rahe hain

  3. मण्डलजी आपके विचारधारा अदभुत है । मैन काफी सारे लेख पढ़ें लेकिन उसके अंत तक जाने से पहलेही मै उसे स्केप कर देता था पर आपका लेख पूरा पढ़ा । मैं काफी बार सोचता था भारत मे अविष्कार क्यो नही होते पर आपका लेख पड़ने के बाद उस का उत्तर मिलहि जाता है।
    मंडल जी एक और कारण है जीका जिक्र आपके लेख में नही है वो है बजट में हमारे यहां रिसर्च पर पैसा कम ख़र्चा करना जिसकी वजह से अविष्कार हो नही पाते जिसका एक उधाहरण मिशन मंगल मूवी में भी मिलता है।

  4. हमेशा की तरह आपने बहोत खूब लिखा सर। आपके लेख हमारे लिए मार्गदर्शक है। हम आशा करते हैं की आप अपने अनेकोविध विषयों पर लिखे लेखों को किताब के रुप में छापेंगे।

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