किसी भी दृष्टि से आकलन करें, भारत और चीन के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर बना गतिरोध आने वाले कुछ महीनों तक जारी रहने के आसार हैं. यद्यपि दोनों देशों ने शांति और टकराव को लेकर अपनी प्रतिबद्धताएं दोहराई हैं लेकिन ऐसी कोई गुंजाइश नहीं दिखती कि विश्व की दो प्राचीन सभ्यताओं के बीच रिश्ते हाल-फिलहाल में ठीक हो पाएंगे.
2020 में लद्दाख में भारत और चीन के बीच टकराव पूर्व के गतिरोधों देप्सांग (2013), चूमर (2014) या डोकलाम (2017) से एकदम अलग है. गलवान के प्वाइंट 14 पर चीन के एक गश्ती दल ने भारतीय जवानों पर लाठियों और पत्थरों से हमला किया जिसमें 16 बिहार के कमांडिंग अफसर समेत 20 भारतीय सैनिकों की मौत हो गई और कई अन्य घायल हो गए. भारतीय जवानों की जवाबी कार्रवाई में चीन के कई सैनिकों के मारे जाने और घायल होने की भी सूचना है. ऐसा माना जा रहा है कि पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) ने भारत और चीन के बीच 1993, 1996 और 2003 में हुए तीन सीमा समझौतों का उल्लंघन किया है, जो सीमावर्ती क्षेत्रों में गतिरोध सुलझाने और शांति और स्थिरता कायम रखने के उद्देश्य से किए गए थे.
चीन विक्टिम कार्ड खेल रहा
अमूमन सीमा पर झड़पों के मामले में अपनाए जाने वाले रुख के एकदम विपरीत चीन इस बार खुद को पीड़ित की तरह पेश कर रहा है. सोशल मीडिया पोस्ट और रिपोर्टों के मुताबिक, चीन के सरकारी अखबार ग्लोबल टाइम्स इंग्लिश के एडिटर हू शिजिन ने एक ट्वीट किया था, ‘जैसा कि मेरी जानकारी में आया है गलवान घाटी में खूनी संघर्ष में चीन को भी जनहानि हुई है. मैं भारतीय पक्ष को आगाह करना चाहता हूं कि आक्रामकता न अपनाएं और चीन के संयम को उसकी कमजोरी समझने की गलती न करें. चीन भारत के साथ संघर्ष नहीं चाहता है, लेकिन इससे डरता भी नहीं है.’
शिजिन ने एक अन्य ट्वीट में कहा, ‘चीन ने भारतीय जवानों के साथ झड़प में जान गंवाने वाले पीएलए के जवानों के आंकड़े जारी नहीं किए हैं. मुझे लगता है कि चीन नहीं चाहता कि दोनों देशों के लोग संघर्ष में हुई क्षति के आंकड़ों की तुलना करें जिससे जनभावनाएं भड़कें. यह बीजिंग की सद्भावना ही है.’
चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता झाओ लिजियन ने दावा किया है कि दोनों पक्ष सीमा पर सामान्य स्थिति के लिए अहम सहमति पर पहुंच गए थे तभी आश्चर्यजनक तरीके से भारतीय पक्ष इसके विरोध पर उतर आया. घटना का ब्योरा देते हुए उन्होंने यह दावा भी किया कि 15 जून को भारतीय सैनिकों ने दो बार सीमा रेखा लांघी और चीनी सैनिकों को उकसाया और हमला किया. बहरहाल, अंतरराष्ट्रीय समुदाय के समक्ष इस दुष्प्रचार की चीन की कोशिशों की कोई विश्वसनीयता नहीं है. सबसे पहले वुहान में शुरू हुई कोरोनावायरस महामारी को लेकर यह आरोप लगने पर कि इससे संबंधित तथ्य छिपाए गए थे, चीन ने ऐसा ही विक्टिम कार्ड खेला था, जिसपर उसे दुनियाभर में कोई सहानुभूति नहीं मिल पाई थी.
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इसमें कोई संदेह नहीं कि कोरोनावायरस संकट से ठीक से निपटने में नाकाम रहने के कारण बीजिंग बैकफुट पर है. इस महामारी के बीच, जो दुनियाभर में एक बड़ी चिंता का कारण बनी हुई है, भारत के साथ सीमा पर संघर्ष चीन के कथित ‘शांतिपूर्ण अभ्युदय’ के लिए ठीक साबित नहीं हुआ है. शायद अपनी इस छवि को पहुंची चोट और गलवान में लगे सैन्य झटके और खासी क्षति के कारण ही चीन ने रणनीतिक तौर पर विक्टिम कार्ड खेलने की राह अपनाई है.
चीन की वापसी के गहरे नतीजे
लेकिन रणनीतिक तौर पर चीन की वापसी को अत्यधिक सावधानी, गंभीरता और सतर्कता के साथ समझा जाना और उसके मुताबिक जवाब देने की जरूरत है. 1962 में चीन ने हमले शुरू होने के बाद अपनी तरफ से शत्रुता को खत्म कर दिया था. लेकिन इसके पीछे आशय संघर्ष का अंत और शांति की शुरुआत नहीं था. चीन ने सीमा विवाद का एक और मोर्चा खोल दिया था.
2009 में भारत ने पीओके में काराकोरम हाईवे (केकेएच) को बढ़ाने और नीलम-झेलम हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट को लेकर चीन और पाकिस्तान की योजना पर कड़ी आपत्ति जताई थी.
दिसंबर 2010 में प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ की भारत यात्रा से ठीक पहले चीन के सरकारी मीडिया शिन्हुआ और ग्लोबल टाइम्स ने पहली बार भारत-चीन सीमा को करीब 2000 किलोमीटर लंबी बताने वाली एक रिपोर्ट छापी थी.
यह पहला मौका था जब भारत और चीन के बीच सक्रिय सीमा 3488 किलोमीटर होने के भारत के आधिकारिक आंकड़े को खारिज किया गया. भारतीय मानचित्र में पूरे अक्साई चीन (37000 वर्ग किलोमीटर) के साथ शक्सगाम घाटी का 5400 वर्ग किलोमीटर इलाका भी शामिल है, जिसे 1962 के युद्ध के मात्र चार महीने बाद ही मार्च 1963 में एक सीमा समझौते के तहत पाकिस्तान ने अवैध रूप से चीन को सौंप दिया था.
यद्यपि नई दिल्ली ने 1963 के समझौते को अवैध बताते हुए खारिज कर दिया था और केकेएच को बढ़ाने तथा बदले मानचित्र पर 2009 और 2010 में बीजिंग के समक्ष औपचारिक आपत्ति दर्ज कराई थी. लेकिन उस समय तक चीन, पहले वित्तीय मदद और फिर सीपीईसी के जरिये पाकिस्तान में अपना दखल बढ़ा चुका था.
अक्साई चीन के 38,000 वर्ग किलोमीटर इलाके, जिसे चीन ने कब्जा रखा है, के अलावा वह अरुणाचल प्रदेश के लगभग 92,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर दक्षिणी तिब्बत के हिस्से के तौर पर दावा करता रहा है. 1975 में सिक्किम के भारत का हिस्सा बनने के तुरंत बाद चीन ने मौका देखकर अरुणाचल प्रदेश-तिब्बत सीमा क्षेत्र में स्थित तुलुंग ला क्षेत्र को लेकर अपनी आपत्ति दर्ज करा दी.
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दोनों देशों की सेनाओं के बीच आखिरी सैन्य झड़प 1967 में सिक्किम-तिब्बत सीमा पर स्थित नाथुला दर्रे में हुई थी. 1986 में चीन ने अरुणाचल प्रदेश-तिब्बत सीमा पर वांगडुंग में घुसपैठ की.
एक रिपोर्ट के मुताबिक, 3400 किलोमीटर लंबी सीमा पर अतिक्रमण की घटनाएं अब बढ़कर प्रतिवर्ष 400 के करीब हो गई हैं, जिसके कारण कई बार एलएसी में भी बदलाव हुआ. लद्दाख में घुसपैठ की ताजा घटना के बीच सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर की सीमाएं भी टकराव की चपेट में आ सकती हैं.
अपनी रणनीति में बड़ा बदलाव करते हुए बीजिंग की तरफ से भारत के खिलाफ अपनी आक्रामकता में पाकिस्तान और नेपाल का इस्तेमाल किया जा सकता है. एक तरफ जहां पाकिस्तान में सक्रिय आतंकी संगठनों को उकसाकर और आर्थिक मदद देकर जम्मू-कश्मीर तथा भारत के अन्य हिस्सों में हमले की साजिश की जा सकती है. वहीं कम्युनिस्ट विधान वाला काठमांडू भारत को चिढ़ाने और उकसाने वाली गतिविधियां बढ़ाता रहेगा. आतंकवाद के साथ जहां सख्ती से निपटने की जरूरत है, वहीं नेपाल को साधने के लिए कूटनीतिक चतुराई वाली रणनीति अपनानी होगी.
भारत और नेपाल के बीच ऐतिहासिक संबंधों और दोनों देशों के लोगों के बीच परस्पर जीवंत रिश्तों पर कोई आंच नहीं आनी चाहिए, भले ही बीजिंग के इशारे पर चलने वाली भारत विरोधी गतिविधियों की राजनीतिक कीमत क्यों न चुकानी पड़े.
(लेखक भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारी कमेटी के सदस्य और ऑर्गनाइज़र के पूर्व संपादक हैं. ये उनके अपने विचार हैं)
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