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Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतचीन एलएसी पर जमीन हथियाने के लिए नहीं बल्कि भारत को ये जताने के लिए है कि ‘बिग ब्रदर’ कौन है

चीन एलएसी पर जमीन हथियाने के लिए नहीं बल्कि भारत को ये जताने के लिए है कि ‘बिग ब्रदर’ कौन है

भारत की कूटनीतिक और सैन्य प्रतिक्रियाओं के आधार पर ही पीएलए चीन के सैन्य उद्देश्यों को हासिल करने के तरीके तय करेगा.

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वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर स्थिति रणनीति केंद्रित है, लेकिन दोनों पक्षों के उद्देश्य सामरिक है, जो कि स्वाभाविक है. राष्ट्रों के बीच किसी भी संघर्ष में अंतिम राजनीतिक लक्ष्य होता है अपनी शर्तों पर टिकाऊ शांति स्थापित करना. हालांकि ये मुद्दा सापेक्ष है, क्योंकि राष्ट्रों के बीच प्रतिस्पर्धात्मक संघर्ष में स्थाई शांति एक यूटोपिया मात्र होती है. सेना इस उद्देश्य को हासिल करने का साधन मात्र और हमेशा अंतिम उपाय होती है.

चीन ने पूर्वी लद्दाख की गलवान घाटी, हॉट स्प्रिंग-गोगरा-कोंग्का ला क्षेत्र और पैंगोग त्सो के उत्तर के इलाके में रणनीतिक प्रभाव और सामरिक महत्व वाले इलाकों पर अचानक कब्जा कर या उनके लिए जोखिम पैदा कर एलएसी पर स्थिति को गंभीर बना दिया है. चीन ने अपनी इस पहल पर जवाबी कार्रवाई का भार भारत पर छोड़ दिया है, जो कि इस मामले में चीन की भावी राजनीतिक और सैनिक दिशा का निर्धारण करेगी. चीन अपने सामरिक लक्ष्य को हासिल करने के लिए तनाव बढ़ाने की तैयारी से आया है.

भारत की संप्रभुता और भौगोलिक अखंडता दांव पर है. सैन्य नज़रिए से देखें तो भारत ने चीनी अतिक्रमण को रोक दिया है और किसी भी स्थिति के लिए सेना को चौकस रखा है. उसकी भविष्य की दिशा, ख़ासकर सैन्य साधनों के इस्तेमाल के संबंध में, उसके खुद के निर्धारित राजनीतिक लक्ष्यों पर निर्भर करेगी.

15 और 16 जून की दरम्यानी रात की दुर्भाग्यपूर्ण घटना ने दोनों प्रतिद्वंद्वियों को स्थिति के नए सिरे से आकलन के लिए बाध्य कर दिया है. चीन, जिसने कि इस संघर्ष को शुरू किया है और जिसकी आक्रमणकारी भूमिका रही है, को इस बात का अहसास हो गया है कि जब ‘घूंसों और डंडों की लड़ाई’ इतनी हिंसक और बर्बर हो सकती है, तो फिर आज की भारतीय सेना के साथ सशस्त्र संघर्ष/युद्ध कैसा होगा. प्रतिद्वंद्वी सेनाओं के बीच आमने-सामने की स्थिति खत्म करने के लिए सेनाओं को पीछे हटाने और बड़े सामरिक मुद्दों के समाधान के लिए कूटनीतिक वार्ताओं को आगे बढ़ाने की भूमिका तैयार है. यदि कूटनीति नाकाम साबित होती है, तो दोनों ही पक्षों के लिए राजनीतिक लक्ष्यों को हासिल करने के वास्ते सैन्य साधनों के इस्तेमाल का विकल्प आखिरी होगा.

रणनीतिक सैन्य स्थिति

ऐसा लगता है कि 15-16 जून की घटना के बाद गलवान घाटी में चीनी सेना (पीएलए) की उपस्थिति नहीं है जो कि उत्तर और दक्षिण की चोटियों की तुलना में भिन्न स्थिति है. हमें ठीक से ये पता नहीं है कि 6 जून को कोर कमांडर स्तर पर वार्ताओं के पहले दौर में किन बातों पर सहमति बनी थी या 22 जून को दूसरे दौर की बातचीत के बाद उनमें क्या बदलाव किए गए. ये भी नहीं पता है कि दोनों देशों की सैन्य दस्ते एलएसी से कितना पीछे तैनात रहेंगे. पर्वतीय या पहाड़ी इलाकों में लड़ाई ऊंचे ठिकानों पर नियंत्रण के लिए होती है. घाटियां रसद के भंडारण और वाहनों के आवागमन के काम आती हैं, हालांकि, शेष दस्तों से अलग-थलग कर दिए जाने की आशंका के चलते उनकी सुरक्षा भी सुनिश्चित करनी होती है.

इसलिए अभी तक गलवान घाटी में जो कुछ भी हुआ उसे मात्र साइडशो माना चाहिए. यदि घाटी के उत्तर और दक्षिण के ऊंचे इलाकों पर पीएलए का कब्जा नहीं है तो हमें उऩ पर नियंत्रण करना चाहिए. चोटियों पर नियंत्रण के बिना घाटी की सुरक्षा नहीं की जा सकती है.

हॉट स्प्रिंग-गोगरा-कोंग्का ला क्षेत्र में स्थिति में बदलाव नहीं हुआ है. हम कोंग्का ला तक गश्त नहीं लगा सकते हैं, जबकि कोंग्का ला और गोगरा चौकी के बीच के इलाके पर पीएलए का नियंत्रण मालूम पड़ता है.


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ओपेन सोर्स इंटेलिजेंस प्लेटफॉर्मों पर मौजूद उपग्रह चित्रों के कारण पैंगोंग त्सो से उत्तर के इलाके की स्थिति सबके सामने है. फिंगर 4 और फिंगर 8 के बीच का इलाका (सीधी दूरी 5.6 किलोमीटर जबकि पैंगोंग त्सो के किनारे होकर 8 किलोमीटर) अभी भी पूरी तरह पीएलए के कब्जे में है. फिंगर 4, 5 और 6 के साथ लगे 5 किलोमीटर तक के इलाके में ऊंचाई वाली जगहों पर उसने सैन्य सुविधाओं और संरचनाओं का निर्माण किया है. इस प्रकार, करीब 40 वर्ग किलोमीटर का अपना इलाका अब पीएलए के नियंत्रण में है जहां अप्रैल से पहले हम मुस्तैदी से गश्त लगाया करते थे.

एलएसी के शेष हिस्सों में भी भविष्य में किसी भी तनाव की स्थिति को ध्यान में रखते हुए भारत और चीन ने अपनी सेनाओं को सक्रिय किया है और सैनिकों की ऐहतियाती तैनाती की है.

ये बात मेरे गले नहीं उतर रही कि हम इस स्थिति के बारे में अभी भी इनकार की मुद्रा में क्यों हैं. यदि ओपेन सोर्स इंटेलिजेंस का आकलन गलत है, तो पीएलए के अतिक्रमण के आरोपों को खारिज करने का बेहद सरल उपाय है. प्रेस को हेलीकॉप्टरों से वहां ले जाकर सच्चाई से रूबरू कराया जाए.

चीनी कार्रवाई सामरिक प्रभावों वाली है और उससे रणनीतिक रूप से अंजाम दिया गया. उसका लक्ष्य है भारत के लिए एक अप्रिय स्थिति निर्मित करना और उसे जवाबी कार्रवाई के लिए ललकारना. भारत की कूटनीतिक और सैन्य प्रतिक्रियाओं के आधार पर पीएलए चीन के सैनिक उद्देश्यों को हासिल करने के लिए अपने सैन्य विकल्पों को पुनर्निधारित करेगा.

चीन का राजनीतिक लक्ष्य

चीन, अक्साई चिन, जिस पर उसने 1950 के दशक में क्रमिक रूप से कब्जा किया था और उसके पश्चिम एवं दक्षिण के अन्य इलाकों, जिन पर उसने अपनी सामरिक स्थिति सुदृढ़ करने के लिए भारत से 1962 के युद्ध के दौरान कब्जा किया था, पर किसी भी तरह के ख़तरे को लेकर बेहद संवेदनशील है. पूर्वी लद्दाख में सीमा पर भारत द्वारा आधारभूत ढांचे का तीव्र विकास उसकी इसी आशंका के अऩुरूप है, भले ही वर्तमान में इसकी संभावना कितनी भी कम क्यों ना हो. अतिरिक्त भूभाग पर कब्जा जमाना चीन का असल उद्देश्य नहीं है.

चीन का मानना है कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) और गिलगित-बालटिस्तान पर कब्जा करने की धमकी देकर भारत उसकी प्रतिष्ठित आर्थिक परियोजना चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपेक) के लिए खतरा पैदा कर रहा है. अप्रत्यक्ष रूप से चीन भारत और पाकिस्तान के बीच वैसा ही संबंध देखना चाहता है जैसा कि 1990 के दशक से ही उसके साथ रहा था. यानि, सीमा पर अपेक्षाकृत शांति और आर्थिक रिश्तों पर ध्यान दिया जाना.

भारत का 1959 में दलाई लामा को शरण देना और अमेरिकी सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (सीआईए) के साथ मिलकर उसके द्वारा कथित रूप से तिब्बती विद्रोहियों को ट्रेनिंग दिया जाना 1962 के युद्ध के प्रमुख कारकों में शामिल थे. भारत में दलाई लामा, तिब्बत की निर्वासित सरकार और विशेष बलों के रूप में प्रशिक्षित 10 से 15 हजार तिब्बती सैनिकों की उपल्थिति को चीन अपनी संप्रभुपता पर सबसे गंभीर संभावित खतरे के रूप में देखता है. भारत को स्वतंत्रता के लिए तिब्बती संघर्ष को हवा देने वाले मुख्य किरदार के रूप में देखा जाता है.

चीन यह भी मानता है कि भारत अमेरिका और उसके सहयोगियों के साथ मिलकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर और विशेष रूप से दक्षिण चीन सागर और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में उसके सामरिक हितों को कमजोर कर रहा है.

चीन के राजनीतिक लक्ष्य या आदर्श सामरिक उद्देश्य ये सब हो सकते हैं:

• एलएसी पर आधारभूत ढांचों को लेकर अपनी शर्तों पर ‘यथास्थिति’ कायम रखना– अक्साई चिन और एनएच 219 पर किसी भी खतरे, चाहे वह कितना भी दूरस्थ हो को दूर करना.

• भारत और पाकिस्तान के बीच शांति समझौते के लिए मध्यस्थता कर सीपेक के लिए बन रहे किसी भी खतरे को रोकना.

• भारत को बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव कार्यक्रम से, खासकर सीपेक से जुड़ने के लिए राज़ी करना.

• भारत को मनाना कि चीन के सामरिक हितों को कमज़ोर करने के लिए, खासकर हिंद-प्रशांत और दक्षिण चीन सागर में, वह अमेरिका और उसके सहयोगियों के चक्कर में नहीं पड़े.

संक्षेप में कहें तो चीन चाहता है कि भारत क्षेत्रीय और वैश्विक दोनों ही स्तरों पर उससे सहयोग करने वाले जूनियर साझेदार की भूमिका निभाए, न कि उसके प्रतिद्वंद्वी की. अपने उपरोक्त लक्ष्यों को हासिल करने में वह कितना सफल हो पाता है ये उसकी कूटनीतिक कुशलता तथा अपनी बात थोपने के लिए सेना के इस्तेमाल के उसके तरीके पर निर्भर करेगा. अपने व्यापक राजनीतिक उद्देश्यों को हासिल करने की स्थिति में वह अप्रैल 2020 से पूर्व की स्थिति को कायम कर देगा और एलएसी के सीमांकन पर सहमत हो जाएगा, बशर्ते अंतिम रूप से सीमा समझौता होता हो.

भारत का राजनीतिक लक्ष्य

भारत के राजनीतिक उद्देश्यों का व्यापक दायरा ये होना चाहिए:

• क्षेत्रीय और वैश्विक दोनों स्तरों पर चीन के समकक्ष प्रतिस्पर्धी के रूप में अपनी संप्रमुता, भौगोलिक अखंडता और सामरिक स्वतंत्रता को बरकरार रखना.

• एलएसी के संबंध में अप्रैल 2020 से पूर्व की यथास्थिति को बहाल करना और सीमांकन सुनिश्चित करना.

• अपनी ज़रूरत के मुताबिक सीमा पर आधारभूत ढांचे को विकसित करने की स्वतंत्रता कायम रखना.

• पाकिस्तान के कब्जे वाले पीओके, गिलगित-बाल्टिस्तान तथा 1950 के बाद से चीन द्वारा कब्जा किए गए अक्साई चिन और अन्य क्षेत्रों पर अपना दावा बरकरार रखना.

• सीपेक के अवैध होने की बात को उजागर करते रहना क्योंकि यह उस इलाके से होकर गुजरता है जो कि असल में भारत का है.

आदर्श रूप से, एक सीमित संघर्ष में चीन को सैन्य झटका लगने पर भारत के लिए अपने राजनीतिक लक्ष्यों को पूरी तरह हासिल करना संभव हो जाएगा. लेकिन व्यापक राष्ट्रीय ताक़त के मामले में संतुलन, विशेष रूप से आर्थिक और सैन्य आयामों में, चीन के पक्ष में है. हमारे पास चीन को बराबरी पर रोकने के लिए पर्याप्त सैन्य क्षमता है, लेकिन उससे झटका खाने की स्थिति में हम दशकों पीछे चले जाएंगे.


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नरेंद्र मोदी सरकार के समक्ष चुनौती अपने राजनीतिक उद्देश्यों को हासिल करने के वास्ते अपने कूटनीतिक और सैन्य साधनों के कुशल प्रबंधन की है.

मौजूदा संकट का भारत द्वारा प्रबंधन

भारत एक सामरिक दुविधा का सामना कर रहा है. मुझे इस कथानक पर कोई ऐतराज नहीं है कि ‘एलएसी पर कुछ नहीं हुआ, हमने कोई ज़मीन नहीं गंवाई’, हमारी चिंता केवल इस बात को लेकर है कि कहीं सरकार भी इस कथानक को मानने ना लग जाए क्योंकि ये चीनी कथानक का भी समर्थन करता है.

एक अनुभवी राजनीतिक नेता ने एक बार मुझसे कहा था कि नेताओं की एक बड़ी कमज़ोरी ये होती है कि जनमत को मोड़ने के लिए वे किसी झूठ को इतनी बार दोहराते हैं कि एक समय के बाद वे भी उस झूठ पर यकीन करने लगते हैं.

लोग यही मानना चाहेंगे कि सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमेटी (सीसीएस) और राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद (एनएससी) की औपचारिक बैठकें हो चुकी है और चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ के परामर्श से स्थिति से निपटने के लिए एक राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति बन चुकी है. लेकिन मुझे संदेह होता है जब मैं सुनता हूं कि ‘सशस्त्र सेनाओं को कार्रवाई की खुली छूट दे दी गई है’. सशस्त्र सेनाओं को सीसीएस और एनएससी में लिए गए निर्णयों के आधार पर राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए औपचारिक राजनीतिक निर्देश दिया जाता है, नकि बारंबार दोहराने के लिए कोई जुमला.

(ले. जनरल एच.एस. पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (रिट.) ने भारतीय सेना की 40 साल तक सेवा की. वे उत्तरी कमान और सेंट्रल कमान के जीओसी-इन-सी रहे. सेवानिवृत्ति के बाद वे आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. ये उनके निजी विचार हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )

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