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Saturday, 16 November, 2024
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विचारों की स्वतंत्रता का दुश्मन है चीन, दूसरे देशों से भी वो यही अपेक्षा रखता है

दुनियाभर में जो लोग और जो सरकारें विचार की स्वतंत्रता को मूल्यवान मानती हैं उन्हें यह समझ लेना होगा कि चीनी ‘नियंत्रणवाद’ से लड़ना बेहद जरूरी है.

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चीन जिस तरह की चुनौतियां पेश कर रहा है उनसे निपटने के लिए तमाम देश क्या करें, इस मसले पर आज दुनियाभर में विश्लेषणों और टिप्पणियों की कोई कमी नहीं है. पूर्वी एशियाई देश दक्षिण चीन सागर में ताइवान जलडमरूमध्य से लेकर जापान सागर तक चीन की आक्रामक सैन्य गतिविधियों को लेकर चिंतित हैं. भारत हिमालय की सीमा पर और हिंद महासागर में चीन की कार्रवाइयों से परेशान है. पश्चिमी यूरोप चीन-समर्थित मध्य व पूर्वी यूरोप के कारण मुश्किल हालात झेल रहा है.

अमेरिका समझ गया है कि चीन वैश्विक महाशक्ति की उसकी हैसियत— जो कि उसके वैश्विक व्यापार, टेक्नोलॉजी, साइबर और भूगोल में प्रकट होती है— के लिए बहुआयामी रणनीतिक चुनौती बन चुका है, चीन की तरफ से उभर रही चुनौतियों के स्वरूप को लेकर इन सभी मान्यताओं में समान तत्व यह है कि वे प्रतिस्पर्द्धी हितों से ताल्लुक रखती हैं. भौगोलिक महत्वाकांक्षा, आर्थिक वर्चस्व और आधिपत्य की इच्छा, ये सब जमीनी सियासत के ठेठ प्रदर्शन हैं— ज्यादा ताकतवर बनने के झगड़े से उभरे टकराव हैं.

चीन के उत्कर्ष को केवल हितों के टकराव की व्याख्या तक सीमित करना ऐतिहासिक किस्म की रणनीतिक भूल होगी. यह उससे कहीं ज्यादा बड़ा मामला है. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीसी) इस विचार को सबसे गंभीर चुनौती देती है कि व्यक्तियों को अपना विचार रखने की स्वतंत्रता है और अगर अंतरराष्ट्रीय समुदाय नहीं, तो सभी देशों की सरकारों को इस स्वतंत्रता की रक्षा करनी ही चाहिए. यह न केवल अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के लिए बल्कि देशों की सरकारों, बाज़ारों, नागरिक समाजों और वास्तव में इस धरती के हर व्यक्ति के लिए एक खतरा है. क्यों? क्योंकि विचार की स्वतंत्रता पर नियंत्रण ही वह औज़ार है जिसके बूते सीपीसी सत्ता में बनी है और इसका अंतिम परिणाम है हिंसा.


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चीन के अधिनायकवादी मॉडल का आकर्षण

यह तर्क जाना-पहचाना है कि सीपीसी राजनीतिक स्थिरता और आर्थिक विकास के मामलों में अपनी सफलता को सत्ता में बने रहने की वैधता के प्रमाणपत्र के रूप में पेश करती है. वैधता के इस तर्क में सच्चाई हो सकती है मगर यह आधा सच है. अस्पष्ट मगर महसूस किया जाने वाला सच यह है कि सत्ता पर सीपीसी की पकड़ का आधार चीनी लोगों के बोलने, करने और सबसे ऊपर सोचने-विचारने पर नियंत्रण करने की उसकी क्षमता है. यही वजह है कि नियंत्रण के सारे औज़ार 1978 में तंग श्याओ पिंग के सुधारों के बाद भी जस के तस कायम रहे. आखिर, चीन में इंटरनेट की सुविधा मिलने के बावजूद सेंसरशिप की मजबूत दीवार क्यों खड़ी है? पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान को शिंजियांग में ऊइगर मुसलमानों के दमन के बारे में सूचनाएं क्यों नहीं मिलतीं? चीन में विश्वविद्यालयों को अपने मिशन के बारे में बयान क्यों बदलने पड़े? और अपवाद के रूप में मौजूद हांगकांग को ‘सामान्य स्थिति’ में क्यों लाना पड़ा?

लेकिन दुनिया को इस सबकी फिक्र क्यों करनी चाहिए? क्योंकि सीपीसी चाहती है कि जिन देशों पर उसका दबदबा है वे भी ऐसे ही बनें. ऑस्ट्रेलिया वाले बताएंगे कि चीन ने विचार, अभिव्यक्ति और कार्य के उसके अनुसार मान्य मानकों के पालन के लिए कितने अंकुश बना रखे हैं. दुनियाभर में शिक्षा जगत में जब भी चीन के आधुनिक इतिहास पर कोई खुली चर्चा होती है तब चीनी छात्र समूह, स्थानीय अमीर चीनी डोनर और स्थानीय चीनी दूतावास विरोध पर उतारू हो जाता है. कई दक्षिण एशियाई देशों के मीडिया पर उसके अपने देश की सरकार अक्सर दबाव डालती है कि वह चीन को नाराज करने से परहेज करे.

अगर चीन साइबरस्पेस में अपना ‘चीनोस्फेयर’ बना लेता है और उसमें नागारिकों पर निगरानी और सेंसरशिप के तौर-तरीके लागू कर देता है तो वह पूरी दुनिया में कई देशों को अपने औजारों समेत अपने तौर-तरीकों का निर्यात कर डालेगा. दुनियाभर में सत्ता के भूखे तानाशाह प्रवृत्ति के नेताओं और व्यवसाय जगत के सामंतों को यह चीनी मॉडल बेहद भाएगा. और इस सबका सबसे बड़ा खामियाजा व्यक्तिगत स्वतंत्रता को भुगतना पड़ेगा.


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चीन से दुश्मनी मोल मत लीजिए

अंतरराष्ट्रीय संबंधों के बारे में यथार्थपरक ढंग से विचार करने वाले हान्स मोरगेनथौ सरीखे विचारकों का मानना है कि विचारधाराएं अक्सर ‘सभी तरह की राजनीति के मूल में निहित सत्ता की चाहत को ढकने के बहाने और छद्म आवरण’ होती हैं. ‘फॉरेन अफेयर्स’ पत्रिका में हाल में प्रकाशित लेख में एलब्रिज कोलबी और रॉबर्ट कपलन ने लिखा है कि ‘अमेरिका और चीन के बीच असली मुद्दा विचारधारा नहीं है, भले ही चीन मार्क्सवादी-लेनिनवादी इलीट ऐसा मानता हो’ बल्कि ‘सच्चाई यह है कि अमेरिका को सीपीसी के शासन के अधीन चीन से तब तक कोई परेशानी नहीं है जब तक वह अमेरिका और उसके साथियों तथा सहयोगियों के हितों का सम्मान करता है.’

यह भले कहा जाए कि चीन की ‘विचारधारा’ और सोवियत शैली का साम्यवाद या अल-कायदा मार्का इस्लामवाद एक ही खांचे में फिट नहीं होते लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि ऐसा कोई खांचा नहीं है. प्रत्यक्ष रूप से चीन हमेशा ‘चीनी विशेषताओं से लैस समाजवाद’ और शी जिंपिंग के सर्वश्रेष्ठतावादी ‘चीनी सपने’ की वकालत और पालन करता रहा है. लेकिन परोक्ष रूप से वह, जैसा कि स्टीन रिनजेन कहते हैं, ‘नियंत्रणवाद’ चलाता रहा है जिसका दुनियाभर में विरोध हो रहा है.

इसलिए, चीन के साथ आपके देश का कोई सीमा या व्यापार संबंधी विवाद भले न हो, आपको तिब्बत के धार्मिक नेताओं को निमंत्रित करने की इजाजत नहीं है, आपके सिनेमाघर कुछ फिल्में नहीं दिखा सकते, आपके अधिकारियों को ताइवान की यात्रा करने पर दंडित किया जा सकता है, आपके पत्रकारों को हांगकांग के बारे में लिखने पर धमकी दी जा सकती है या गिरफ्तार किया जा सकता है. आपको उस तरीके से सोचने को कहा जा सकता है जो तरीके बीजिंग में बैठे आका आपको सुझाएंगे. वे आका जितने ताकतवर होते जाएंगे उनकी पसंद की बातों की सूची उतनी लंबी होती जाएगी. और आपके देश की सरकार को उनके इशारे पर आपकी स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने को मजबूर किया जाएगा.

इसलिए, चीन को केवल सीमा, अर्थव्यवस्था और तकनीक से जुड़े हितों पर चुनौती देना काफी नहीं है. दुनियाभर में जो लोग और जो सरकारें विचार की स्वतंत्रता को मूल्यवान मानती हैं उन्हें यह समझ लेना होगा कि चीनी ‘नियंत्रणवाद’ से भी लड़ना बेहद जरूरी है.

(लेखक लोकनीति पर अनुसंधान और शिक्षा के स्वतंत्र केंद्र तक्षशिला संस्थान के निदेशक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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