ब्रिटेन के अखबार ‘फाइनेंशियल टाइम्स’ में 30 जनवरी को छपी एक रिपोर्ट बताती है कि चीन बीजिंग में दुनिया का सबसे बड़ा मिलिट्री कमांड सेंटर बना रहा है. अमेरिकी रक्षा मंत्रालय के मुख्यालय ‘पेंटागन’ से 10 गुना बड़े आकार में 1,500 एकड़ में फैले इस भूमिगत चीनी कमांड सेंटर को इस तरह से डिजाइन किया गया है कि परमाणु युद्ध समेत किसी भी युद्ध के दौरान चीन के पूरे सैन्य नेतृत्व सहित राष्ट्रपति शी जिनपिंग, जो सेंट्रल मिलिटरी कमीशन के अध्यक्ष भी हैं, वहां सुरक्षित रह सकें.
इस कमांड सेंटर को भूमिगत युद्ध के मामले में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के सिद्धांत के अनुरूप बनाया जा रहा है. इस तरह के युद्ध में प्रमुख कमांड, ऑपरेशन, और साजोसामान के लिए भूमिगत सुरक्षा की व्यवस्था को प्राथमिकता दी जाती है. यहां यह कहने की जरूरत नहीं है कि इन सबकी सुरक्षा के लिए विमान-रोधी मिसाइलों, ड्रोन, इलेक्ट्रोनिक तथा साइबर युद्ध में काम आने वाले कवचों आदि का भी इस्तेमाल किया जाएगा.
इजरायल और हमास के बीच 15 जनवरी को हुए युद्धविराम के बाद बंधकों-कैदियों की अदला-बदली ने तकनीकी रूप से श्रेष्ठ प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ भूमिगत युद्ध के फ़ायदों को एक बार फिर रेखांकित कर दिया. इजरायल के पास असीमित संख्या में ‘प्रिसीजन गाइडेड म्यूनीशन’ (पीजीएम) और विमान द्वारा दागी जाने वाली पारंपरिक युद्ध सामग्री, मिसाइल, ड्रोन, जमीनी कार्रवाई के हथियारों की कोई कमी नहीं है. इसके बावजूद वह अपनी भूमिगत सुरंगों के नेटवर्क से लड़ रहे हमास को परास्त या नष्ट नहीं कर पाया. कैदियों की अदलाबदली की फुटेज में हमास के कई लड़ाके बाकायदा सैन्य लिबास में दिखे और वे छोटे-छोटे समूहों में बंधकों को इंटरनेशनल रेड क्रॉस को सौंपे जाने की नकल कर रहे थे (प्रचार की खातिर).
रक्षा विशेषज्ञों का आकलन है कि अक्टूबर 2023 से अक्तूबर 2024 के बीच इजरायल ने गाज़ा पर 85,000 टन बम गिराए. यह हिरोशिमा और नागासाकी पर गिराए गए 35 किलो टन के दो परमाणु बमों, और द्वितीय विश्वयुद्ध में ड्रेस्डेन पर की गई भयानक बमबारी से भी बड़ी थी. लेकिन वीडियो से स्पष्ट है कि बड़ी संख्या में हमास लड़ाके न केवल हमले से बच गए बल्कि अधिकतर बंधकों को भी गाज़ा में सुरंगों के विशाल जाल के बूते बचा पाए. मैंने इसकी भविष्यवाणी 2 नवंबर 2023 के अपने लेख में ही कर दी थी.
भारतीय सेना को पहाड़ी और ऊंचाई वाले क्षेत्रों में भूमिगत युद्ध की रणनीति अपनानी चाहिए ताकि विमानों, मिसाइलों, और ड्रोन से गिराए जाने वाले पीजीएम के मामले में चीन की बढ़त का जवाब दिया जा सके.
खुले युद्धक्षेत्र में पीजीएम का वर्चस्व
पिछले 25 वर्षों में युद्धक्षेत्र ज्यादा पारदर्शी हो गया है. उपग्रह, विमान, ड्रोन, रेडार आधारित निगरानी तथा टोही व्यवस्था के साथ इलेक्ट्रोनिक तथा साइबर खुफिया सिस्टम युद्धक्षेत्र में सभी ठिकानों का सटीक पता दे सकती है. इसके बाद इन ठिकानों को हवा में या जमीन से मार करने वाले पीजीएम के इस्तेमाल से 90 फीसदी सफलता के साथ ध्वस्त किया जाता है. इसके अलावा, इलेक्ट्रोनिक तथा साइबर जैमिंग कमांड तथा कंट्रोल सिस्टम, फायर कंट्रोल साधनों, गाइडेड म्यूनीशनों को निष्क्रिय कर देती है. अमेरिका ने पाकिस्तान, यमन, इराक़, अफगानिस्तान, सोमालिया, और सीरिया में शत्रुओं और आतंकवादियों के अड्डों का पता लगाने और उन्हें निशाना बनाने के लिए ड्रोन का सफल सामरिक इस्तेमाल किया है.
रूस-यूक्रेन युद्ध और इजरायल-हमास/हिज्बुल्लाह/ईरान युद्ध आधुनिक तकनीकी युद्धक्षेत्र के अच्छे उदाहरण हैं. वैसे, मामला तुलनात्मक क्षमता का है क्योंकि विभिन्न खतरों का मुक़ाबला करने के सक्रिय एवं परोक्ष उपाय उपलब्ध हैं.
अमेरिका और इजरायल की सेना की तरह दूसरी आधुनिक सेनाएं सुरक्षा के लिए मुख्यतः विमान-रोधी तोप, मिसाइल और ड्रोन और इलेक्ट्रोनिक तथा साइबर कवचों के साथ-साथ परोक्ष उपायों का सहारा लेती हैं. इस तरह के उपायों का इस्तेमाल करने के मामले में यूक्रेन एक अच्छा उदाहरण है, जबकि हमास भूमिगत व्यवस्थाओं पर पूर्ण निर्भरता का सबसे अच्छा उदाहरण है.
चीन अमेरिका का मुकाबला करने के लिए अपने सक्रिय जवाबी उपायों को तेजी से आधुनिक बना रहा है, इसके बावजूद वह ‘फोर्स मल्टीप्लायर’ के रूप में सुरक्षा के भूमिगत उपायों का इस्तेमाल कमजोर सेनाओं की तरह जारी रखे हुए है, मगर उनसे कहीं ज्यादा बड़े पैमाने पर.
भूमिगत युद्धकला को अपनाने की वकालत
सैन्य मामले में भारत और चीन के बीच अंतर मुख्यतः इलेक्ट्रोनिक तथा साइबर युद्ध के क्षेत्र में, और विमानों तथा जमीन से दागे जाने वाले पीजीएम की क्षमता और संख्या के मामले में है. परमाणु हथियार भारत को निर्णायक हार या अपनी जमीन के बड़े नुकसान से तो बचा सकते हैं लेकिन सीमित युद्ध या इससे निचले स्तर के ऑपरेशनों के मामले में यह अंतर निर्णायक साबित हो सकता है.
दुश्मन सीधा हमला न करके भी हमारी सुरक्षा व्यवस्था को और कमांड एवं कंट्रोल सिस्टम को तथा साजोसामान को भी तैनात विमानों या जमीन से मार करने वाले पीजीएम और ड्रोन के साथ-साथ इलेक्ट्रोनिक तथा साइबर आक्रमणों के जरिए नष्ट कर सकता है. फिलहाल, परिमाण और गुणवत्ता के लिहाज से ‘स्टैंडऑफ’ हमलों का जवाब विमान-रोधी तोपों/मिसाइलों, ड्रोनों और इलेक्ट्रोनिक/साइबर युद्ध के जरिए देने की भारत की क्षमता चीन की इस क्षमता के मामले में करीब एक दशक पीछे है.
हमारे पहाड़ी तथा ऊंचाई वाले क्षेत्रों की प्रतिरक्षा व्यवस्था छोटे हथियारों, गैर-पीजीएम तोपों तथा विमानों से होने वाले हमलों से बचाव के लिहाज से तैयार की गई है. अनिर्देशित तोपों, मिसाइलों आदि की प्रभावशीलता उलटी ढलान, पहाड़ी चोटियों, और बदलते मौसम के कारण घटती है. सेना की एक कंपनी की सुरक्षा में स्थित क्षेत्र में करीब 50 बंकर होते हैं. करगिल युद्ध में एक कंपनी की सुरक्षा में स्थित क्षेत्र के लिए तोपों के 5,000 से लेकर 10,000 गोले तक दागे गए और इनके साथ ‘फर्स्ट जेनरेशन’ वाले विमानों से पीजीएम दागे गए. लेकिन हरेक मामले में दुश्मन करीबी लड़ाई लड़ने के लिए जीवित बचे रहे. पहाड़ी तथा ऊंचाई वाले क्षेत्रों की प्रतिरक्षा व्यवस्था पारंपरिक गोलाबारी का मुक़ाबला कर सकती है और बचाव में लगा पक्ष हमलावर पक्ष से बढ़त ले लेता है, क्योंकि हमलावर पक्ष खुले में होता है और वह खुले में ऊपर की ओर हमला करने को मजबूर होता है.
हरेक बंकर या पिलबॉक्स चार-पांच फुट गहरा होता है, जिसकी दीवारें आरसीसी की होती हैं जिनके साथ स्टील की चादर मढ़ी होती है, और उनमें जमीन से करीब एक फुट ऊपर लूपहोल बने होते हैं फायरिंग करने के लिए. ढलवां छत आरसीसी या स्टील की चादर की होती है जो लोहे के गर्डर या लकड़ी के खंभों पर टिकी होती है. उसके ऊपर तीन फुट ऊंची मिट्टी जमा होती है ताकि विस्फोटों को बेअसर किया जा सके. बांकरों की ये छतें पेड़ या हरियाली के बिना नंगी पहाड़ी चोटियों पर अँगूठों की तरह करीब सौ साल से लगभग जस की तस खड़ी हैं.
ऊंचाई वाले क्षेत्रों में ‘बचाव पक्ष के वर्चस्व’ को बेअसर करने और प्रतिकूलताओं से बचने के लिए पीएलए ‘करीबी लड़ाई’ में नहीं उलझना चाहेगी. पुरानी करीबी लड़ाई बीती बात हो गई. वह पीजीएम, ड्रोन, और साइबर/इलेक्ट्रोनिक साधनों के इस्तेमाल से हमला करेगी. बचाव पक्ष को ध्वस्त करने के बाद करीबी लड़ाई बाकी बचे हुए को पोछ डालने भर के लिए होगी. प्रत्यक्ष हमला न करते हुए सजा देने की कार्रवाई के रूप में चौकियों और साजोसामान के अड्डों को नष्ट किया जाएगा. खुले में स्थापित मुख्यालय और साजोसामान के अड्डे आसान निशाने जैसे होते हैं.
प्रतिरक्षा के स्थायी ठिकानों और अड्डों को बचाने का एकमात्र उपाय भूमिगत या सुरंगों वाली युद्धकला को अपनाना है.
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क्या किया जाना चाहिए
भारतीय सेना के पास भूमिगत युद्ध लड़ने का कोई औपचारिक सिद्धांत या अनुभव नहीं है. लेकिन अमेरिकी सेना के पास इसका एक सिद्धांत है. लेकिन पुराने युद्धक्षेत्रों में अनुभव से मिलने वाला बहुत सारा ज्ञान भरा पड़ा है. वियतनाम, दक्षिण कोरिया, और जापान जैसे मित्र देशों को भूमिगत सुरंगों वाली लड़ाई का काफी अनुभव है. गाज़ा में जो सुरंगें हैं उनका ब्योरा अच्छी तरह से रखा गया है, और यूक्रेन को पीजीएम/ड्रोन से बचाव का व्यापक अनुभव हासिल है. भारत के सीमा सड़क संगठन (बीआरओ) को सुरंगों का निर्माण करने का गहरा अनुभव हासिल है. पहाड़ी तथा ऊंचाई वाले क्षेत्र सुरंगों वाली लड़ाई के लिए बिलकुल उपयुक्त होते हैं क्योंकि वे प्रवेश करने के लिए ऊर्ध्वाधार (वर्टिकल) और क्षैतिज (लेटरल), दोनों तरह के द्वार उपलब्ध कराते हैं.
भारतीय सेना को भूमिगत युद्धकला का लाभ उठाने के बारे में विस्तृत अध्ययन करना चाहिए. एक अध्ययन दल एक ऐसा मैनुअल तैयार करे जिसमें यह बताया जाए कि भूमिगत युद्ध में प्रतिरक्षा का निर्माण कैसे करें और उसका डिजाइन क्या हो, और इस युद्ध को ‘कैसे लड़ें’. इसके लिए सैनिक स्कूलों में वास्तविक मॉडलों के साथ गहन प्रशिक्षण दिया जाए. भारतीय सेन के इंजीनियर कोर और बीआरओ को वास्तविक निर्माणों की ज़िम्मेदारी सौंपी जाए. इंडो-टिबटन बॉर्डर पुलिस (आइटीबीपी) की चौकियों को भी भूमिगत युद्ध में प्रतिरक्षा के लिहाज से स्थापित किया जाए. युद्ध के दौरान आगे बढ़ रही सेना इन चौकियों का लाभ उठा सकती है.
गाज़ा में सुरंगों की अनुमानित लागत 1 अरब डॉलर यानी 8,700 करोड़ रुपये है. मेरे विचार से इस बजट के तहत पूर्वी लद्दाख में हमारी प्रतिरक्षा के सभी साधन, और ऑपरेशन तथा साजोसामान से संबंधित सभी ठिकानों को भूमिगत किया जा सकता है. उत्तर-पूर्व के लिए भी ऐसी ही परियोजना की लागत इससे दोगुना ज्यादा होगी. पीजीएम बहुत महंगे होते हैं और विमान-रोधी/ मिसाइल/ड्रोन पर आधारित कवच बनाने की लागत और बड़ी होगी. अगर यह मान कर चलें कि विमान-रोधी एस-400/ मिसाइल/ड्रोन सिस्टम पर आधारित पांच रेजीमेंट (40 लाउंचरों) के लिए 5.5 अरब डॉलर खर्च किए गए, तो उत्तरी सीमा के लिए भूमिगत प्रतिरक्षा व्यवस्था का निर्माण लागत-लाभ के अनुपात के लिहाज से काफी लाभकारी होगा. उपयुक्त समय के अंदर इस परियोजना को नियंत्रण रेखा की प्रतिरक्षा और मैदानी इलाकों में स्थायी प्रतिरक्षा व्यवस्था के लिए भी लागू किया जा सकता है.
युद्धों का इतिहास बताता है कि संसाधनों तथा टेक्नोलॉजी के मामलों में असमानता को बेअसर करने के लिए भूमिगत युद्ध का इस्तेमाल में किया जाता रहा है. भारतीय सेना इस तथ्य की अनदेखी करेगी तो अपना ही नुकसान करेगी.
लेफ्टिनेंट जनरल एच. एस. पनाग (सेवानिवृत्त), पीवीएसएम, एवीएसएम, ने 40 साल तक भारतीय सेना में सेवा की. वे उत्तरी कमान और केंद्रीय कमान के कमांडर रहे. रिटायरमेंट के बाद, उन्होंने सशस्त्र बल न्यायाधिकरण में सदस्य के रूप में काम किया. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.
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