यह कहा जाता है कि उन भयावह महीनों में भूत भी बगावत करने लगे थे. यांगून के उत्तर-पूर्वी उपनगर तामवे के कब्रिस्तान में फेंक दिए गए. जहां उन्हें सम्मानजनक अंतिम संस्कार और बौद्ध रीति-रिवाजों से वंचित रखा गया. सेना द्वारा मारे गए युवा लोकतंत्र समर्थक प्रदर्शनकारियों की आत्माएं उस क्षेत्र में भटकती थीं. जब भी सेना समर्थकों के शव गेट से लाए जाते, वे प्रदर्शन करतीं. कुछ समय के लिए, भूतों ने उन लोगों के साथ शासन किया जिन्होंने बर्मा सोशलिस्ट प्रोग्राम पार्टी की एकदलीय सत्ता को गिरा दिया था. फिर, सेना ने हत्याओं का दूसरा दौर शुरू किया. प्रदर्शनकारियों और भूतों दोनों का सफाया कर दिया.
इस महीने, म्यांमार की सैन्य जुंटा ने नए चुनावों की तैयारी शुरू की है. जो दिसंबर तक कराए जाएंगे. इसने लंबे समय से चल रहे आपातकाल को समाप्त कर दिया है और भारत में बने इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों को मंगवाया है.
लेकिन यह जानने के लिए अधिक कल्पना की ज़रूरत नहीं है कि ये वोटिंग मशीनें किस तरह की सरकार पैदा करेंगी. नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) और उसकी नेता आंग सान सू ची. जिनकी 2020 में बड़ी जीत ने अगले साल तख्तापलट को जन्म दिया था. उन्हें चुनाव लड़ने से रोक दिया गया है. एक नया आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली लागू की गई है. ताकि कोई भी पार्टी स्पष्ट बहुमत हासिल न कर सके.
भारत के लिए, ये चुनाव एक जटिल चुनौती पेश करते हैं. जातीय विद्रोहियों के बढ़ते अभियान के सामने जुंटा की सत्ता के ढहने से भारत के उत्तर-पूर्व के उग्रवादियों को अपनी मौजूदगी और ढांचा बढ़ाने का मौका मिला है. वहीं, चीन उत्तरी म्यांमार में विद्रोहियों पर अपना गहरा असर डाल रहा है. ताकि नए सरकार पर उसका नियंत्रण बना रहे.
म्यांमार में प्रभाव बनाए रखने के लिए भारत को नए शासन और जातीय विद्रोहियों. दोनों से संबंध बनाए रखने होंगे. जिनके पास उसकी सीमाओं के साथ लगी जमीन है. यह कोई आसान काम नहीं होगा.
1988 के भूत
कई दशकों से, म्यांमार पर भारत की नीति 1988 के लोकतांत्रिक विद्रोह के भूतों से प्रभावित रही है. नरसंहारों के बाद, प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार ने आंग सान सू ची और लोकतंत्र समर्थक आंदोलन का समर्थन किया. 1990 के चुनावों में एनएलडी ने भारी जीत हासिल की. लेकिन जनरलों ने नतीजों को मानने से इनकार कर दिया और सत्ता पर काबिज रहे. सैन्य विद्वान डॉनल्ड सीकिंस ने कहा कि सेना ने जातीय सरदारों और आपराधिक गिरोहों से सौदे करके खुद को मजबूत किया.
इस सैन्य एकीकरण के भारत पर गंभीर नतीजे होने थे. 1992 में सत्ता में आए जनरल थान श्वे के शासन ने मणिपुर के जातीय-मैतेई विद्रोही समूहों को सीमा पार तामू कस्बे में ठिकाना बनाने की अनुमति दी. नगालिम के नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल (एनएससीएन) के गुटों ने भी सगाइंग में शरण पाई, जहां उन्हें असम के यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट (यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम – उल्फा) के साथ जगह मिली.
1991 में सत्ता संभालने के तुरंत बाद प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव की सरकार ने जनरलों के साथ रिश्ते सुधारने की कोशिश की. हालांकि नतीजे धीरे-धीरे आए. अप्रैल-मई 1995 में, भारतीय सेना ने उल्फा, मणिपुर की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी और ऑल त्रिपुरा टाइगर फोर्स के करीब 200 विद्रोहियों के खिलाफ अभियान चलाया.
भारत-म्यांमार संबंध इतने बेहतर हो गए थे कि अभियानों में मौजूद रुमेल दहिया ने अपने प्रत्यक्ष अनुभव में लिखा कि म्यांमार की सेना ने कभी-कभी विद्रोही टुकड़ी पर बल का इस्तेमाल किया. हालांकि, चार बार भारतीय सैनिक सीमा पार करने की स्थिति में होने के बावजूद म्यांमार के सैनिकों ने उन्हें रोक दिया. आंग सान सू ची को पुरस्कार दिए जाने से थोड़े बहुत सहयोग का भी अंत हो गया. हालात को और बिगाड़ते हुए, दहिया ने लिखा कि भारतीय सैनिक जंगल युद्ध के लिए तैयार नहीं थे और उन्हें सेरेब्रल मलेरिया हो गया.
जुंटा के साथ संबंध बहाल करने की कोशिशें अभियानों के बाद भी जारी रहीं. भारत ने विद्रोही संगठनों से जुड़े हथियार तस्करों को सौंपा, जिनके रिश्ते म्यांमार की सेना से भी थे. म्यांमार की सेना ने जवाब में पूर्वोत्तर विद्रोही समूहों के अभियानों को धीमा किया. हालांकि उनका पूरी तरह अंत नहीं हुआ. पिछले महीने खबर आई कि भारतीय बलों ने सगाइंग में उल्फा और मणिपुर की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी द्वारा चलाए जा रहे कैंपों को निशाना बनाने के लिए ड्रोन का इस्तेमाल किया.
चीनी शतरंज की बिसात
विद्रोही ठिकानों से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है वह प्रभाव, जो चीन यांगून की नई सरकार पर डालेगा. चीन से गहराई से जुड़े जातीय सेनाएं—जिनमें सबसे अहम कोकांग क्षेत्र में म्यांमार नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस आर्मी (एमएनडीएए)—उत्तरी शान राज्य के बड़े हिस्से पर नियंत्रण रखती हैं. ता’आंग नेशनल लिबरेशन आर्मी, काचिन इंडिपेंडेंस ऑर्गनाइजेशन और शान स्टेट प्रोग्रेस पार्टी के साथ मिलकर विद्रोही मंडले से लेकर लाशियो और म्यूज तक जाने वाले अहम व्यापारिक राजमार्ग के लगभग पूरे हिस्से पर कब्जा रखते हैं.
2021 के तख्तापलट से ही चीन ने जनरलों को अपनी नाखुशी जता दी थी, क्योंकि उनकी कार्रवाई अस्थिरता फैलाने वाली और उसके निवेश और हितों के लिए खतरा थी. इसी वजह से बीजिंग ने दिसंबर 2023 में म्यांमार पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का पहला प्रस्ताव पारित होने से रोकने का फैसला नहीं किया. उसी साल जुंटा प्रमुख जनरल मिन आंग हलैंग को बीजिंग नहीं बुलाया गया.
जनरल मिन के शासन से नाराजगी जल्द ही बढ़ गई, क्योंकि वह चीन की सीमा पर साइबर-धोखाधड़ी करने वालों से जुड़ गया. 2023 में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने जनरलों को सबक सिखाने का फैसला किया और तथाकथित थ्री ब्रदरहुड अलायंस विद्रोही समूहों को सरकार के खिलाफ उतार दिया. क्षेत्र का सबसे बड़ा कस्बा और आर्थिक केंद्र लाशियो पिछले साल अलायंस के हाथों गिर गया.
तेजी से शासन ढहने के डर से—अपने असली उद्देश्य यानी कमजोर आश्रित राज्य के बजाय—बीजिंग ने हालात शांत करने के लिए हस्तक्षेप किया. लाशियो को सरकार को लौटा दिया गया, लेकिन इसके बदले विद्रोही एमएनडीएए ने उत्तरी शान में अपने कब्जे वाले क्षेत्रों पर मजबूत पकड़ बना ली. म्यांमार के लिए विशेष दूत देंग शीजुन के नेतृत्व में चीन अब मंडले-लाशियो-म्यूज राजमार्ग पर बैठे अन्य विद्रोहियों के साथ भी इसी तरह के समझौते कराने की प्रक्रिया में है.
अंतिम उद्देश्य चीन के विशाल चीन-म्यांमार इकोनॉमिक कॉरिडोर परियोजना को फिर से शुरू करना है, जिसका मकसद दक्षिण-पश्चिमी चीन को सड़कों और हाई-स्पीड रेलवे नेटवर्क के जरिए हिंद महासागर से जोड़ना है. इसके लिए केंद्रीय ड्राई ज़ोन और युद्धग्रस्त रखाइन राज्य से गुजरना होगा. अभी भी काफी सौदेबाजी बाकी है.
चुनावी अंतिम खेल
भारत के लिए सबसे खराब स्थिति यह हो सकती है कि उसके पास चुनावों के बाद शासन को सहारा देने वाली जनरलों और प्रॉक्सी पार्टियों के साथ-साथ अपनी सीमाओं पर विद्रोहियों के बीच भी कोई प्रभाव न रहे. भले ही चीन ने, पाकिस्तान के विपरीत, भारत को निशाना बनाने वाले बड़े विद्रोह को बढ़ावा देने में कोई रणनीतिक रुचि नहीं दिखाई है, लेकिन यह बदल सकता है. पत्रकार राजीव भट्टाचार्य ने रिपोर्ट किया है कि चीनी खुफिया अधिकारी म्यांमार के टागा स्थित शिविरों में गए हैं और देश ने पूर्वोत्तर के सभी समूहों से एकजुट होने की अपील की है.
एथेना ऑव्न नॉ के अनुसार, चीन एक नया व्यवस्था बनाना चाहता है, जो तीन स्तंभों पर टिकी हो—जातीय विद्रोही, सिविल सोसाइटी और सेना—लेकिन सभी बीजिंग पर अपनी निर्भरता के जरिए नियंत्रित हों. चीनी सरकार अपने हितों की रक्षा के लिए सेना से आए निजी सैन्य ठेकेदारों का उपयोग करते हुए बढ़ते स्तर पर सैन्य बल भी तैनात कर रही है.
तो भारत कहां खड़ा है? देश के पास बहुत कम विकल्प हैं. लंबे समय से अटकी कालादान परिवहन परियोजना, जिसका उद्देश्य पूर्वोत्तर को सित्तवे बंदरगाह से जोड़ना है, 2027 तक पूरी होने की योजना है. रखाइन प्रांत का लगभग पूरा हिस्सा सैन्य संघर्षग्रस्त है, जहां अराकान आर्मी (एए) विद्रोही समूह ने सित्तवे, क्याउकफ्यू और मनाउंग कस्बों को छोड़कर बाकी पूरे प्रांत पर नियंत्रण कर रखा है. इसलिए इस परियोजना का भविष्य अनिश्चित है.
फिर भी भारत को कुछ कदम उठाने चाहिए. अकाल अब रखाइन में जीवन की एक दुखद सच्चाई बन गया है और स्थानीय निवासी सैन्य नाकेबंदी के कारण प्रचुर मात्रा में उपलब्ध मछली और भोजन भी खरीदने में सक्षम नहीं हैं. बड़ी संख्या में स्थानीय निवासियों को कथित तौर पर जबरन सेक्स वर्क में धकेला गया है, ताकि वे सित्तवे में फंसी सेना की टुकड़ी के पुरुषों की सेवा कर सकें. फ्रांस, स्विट्जरलैंड और यहां तक कि तुर्की की एनजीओ इस क्षेत्र में समुदायों का समर्थन कर रही हैं—लेकिन भारत कहीं दिखाई नहीं देता.
भारत को एए के साथ अपने संबंध गहराने की भी जरूरत है, जैसा कि टिन शाइन आंग जैसे विशेषज्ञों का कहना है. मिजोरम के राजनेता इस समूह से मिल चुके हैं, लेकिन भारत सरकार को बांग्लादेश में रोहिंग्या शरणार्थियों पर बहस में अधिक सक्रिय होना चाहिए. एए बांग्लादेश में रोहिंग्या के पुनर्वास का समर्थन करता है, लेकिन उन्हें उनके वतन लौटाने का नहीं—जो विद्रोहियों और बांग्लादेश के बीच कटु विवाद का कारण है.
दशकों से भारत की म्यांमार नीति जनरलों से निपटने और देश के विद्रोही समूहों व राजनीतिक संघर्षों से दूरी बनाए रखने की रही है. यह नीति नई दिल्ली को खेल से बाहर कर सकती है—क्षेत्र में एक और हार, जिसके लंबे और गहरे परिणाम होंगे.
प्रवीण स्वामी दिप्रिंट में कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.
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