माना जा रहा है कि लद्दाख के गोगरा-हॉट स्प्रिंग्स से भारत और चीन की सेनाओं की वापसी को लेकर गतिरोध की समाप्ति से नरेंद्र मोदी और शी जिनपिंग के बीच बातचीत का रास्ता साफ हो गया है. उम्मीद की जा रही है कि यह बातचीत 15-16 सितंबर को उज्बेकिस्तान में शंघाई सहयोग संगठन के शिखर सम्मेलन के दौरान होगी. 17 जुलाई को दोनों देशों के मिलिटरी कमांडरों के बीच 16वें दौर की वार्ता में गोगरा-हॉट स्प्रिंग्स से सेनाएं वापस बुलाने पर शायद आम राय बनी थी. लेकिन दोनों तरफ से राजनीतिक मंजूरी मिलने में करीब दो महीने लग गए. यह देरी भारत-चीन संबंधों की मौजूदा स्थिति का खुलासा करने से ज्यादा बहुत कुछ छिपा लेती है. इसके अलावा यह सत्ता के बदलते समीकरण के संदर्भ में वैश्विक स्तर पर भू-राजनीतिक होड़ में भारत की उत्तरी सीमा पर सैन्य टकराव की भूमिका को भी उजागर करती है.
महज सीमा विवाद नहीं है यह
किस विशेष क्षेत्र में आक्रामक होना है यह फैसला सामरिक लाभ की दृष्टि से सैन्य तर्कों के आधार पर किया जा सकता है. लेकिन लद्दाख में यथास्थिति को बदलने के लिए चीन द्वारा सैन्यशक्ति के प्रयोग को सिर्फ यह मान लेना अदूरदर्शिता होगी कि ऐसा वह सीमा को लेकर विवादित दावों के आधार पर सिर्फ अपने भौगोलिक क्षेत्र के विस्तार के लिए कर रहा है. बल्कि भारतीय धारणा की रूपरेखा ज्यादा व्यापक क्षेत्रीय तथा वैश्विक भू-राजनीतिक परिदृश्य पर आधारित होनी चाहिए, जो सैन्य तंत्र को शासन-व्यवस्था में अपनी भूमिका निभाने का मंच मुहैया करे.
वैश्विक भू-राजनीतिक संघर्ष में भारत के राजनीतिक रुख को प्रभावित करने के लिए चीन सीमा विवाद को जिस तरह रणनीतिक दबाव बनाने का मुद्दा बनाता है वही वह प्रकट सूत्र है जो चीन की सैनिक कार्रवाइयों को उसके राजनीतिक लक्ष्यों से जोड़ता है. इसलिए यह समझ लेना चाहिए कि सीमा विवाद का इस्तेमाल भारत को अपने उप-महादेश के अंदर ही सीमित रखने के लिए किया जा रहा है. रणनीतिक अर्थों में, चीन मानता है कि सीमा विवाद से भारत पर सबसे बड़ा दबाव पैदा होता है और यह उसे अपने दायरे में सीमित करने में मददगार होता है. भारत को घेरने की दूसरी कोशिशें पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, म्यांमार, बांग्लादेश, श्रीलंका और मालदीव के जरिए लंबे समय से की जाती रही हैं. लेकिन घेरने के इस खेल में, हिमालय क्षेत्र में भारत को छोटे-मोटे सैन्य झटके देने से ज्यादा बड़ी चाल दूसरी कोई नहीं हो सकती. ऐसी चाल भारत की घरेलू राजनीति को भी प्रभावित करती है.
यह भी पढ़ें-कांग्रेस हो या भाजपा, हरेक पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र कायम होगा लेकिन वह समय कब आएगा?
जैसे को तैसा जवाब देना खर्चीला
जाहिर है, भाजपा की हो या किसी की सरकार हो, वह देश पर हमले में अपनी जमीन गंवाती है तो उस पर खतरा मंडरा सकता है. खास तौर से चीन ने नुकसान पहुंचाने की क्षमता हासिल कर ली है और ऐसा वह बिना लड़ाई लड़े भी कर सकता है. इसकी वजह यह है कि उत्तरी सीमा क्षेत्र बहुत विशाल है और उसने वहां इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास करने के साथ-साथ सैन्य ताकत भी बढ़ा ली है. इस तरह के आक्रामक कदम को रोकने के लिए भारत को ‘जैसे को तैसा’ जवाब देने की कार्रवाई करनी होगी. यह वैसी ही कार्रवाई हो सकती है जैसी 2020 में लद्दाख संकट के दौरान रेज़ांग्ला हाइट्स में की गई थी जब भारत ने उस क्षेत्र पर कब्जा किया था जिस पर उसने पहले कभी कब्जा नहीं किया था. इस कार्रवाई के बाद चीन को बातचीत की पहल करने पद गई थी. गौरतलब है कि भारत ने अब तक शायद इतनी क्षमता बढ़ा ली है कि चीन अब भारत की जमीन के टुकड़े को काट कर अलग करने जैसी सैन्य कार्रवाई की कोशिश नहीं कर सकता.
भारत में विपक्षी दल भारतीय क्षेत्र पर चीनी कब्जे को मुद्दा बनाने की कोशिश तो करते रहे हैं लेकिन इसका घरेलू राजनीति पर खास असर होता नहीं दिखा है. ऐसा लगता है कि चीन ने ऐसा कुछ और भी कर दिया और भारतीय सेना ने मजबूत जवाब दिया तो भी इस सबका कोई खास असर नहीं होगा. लेकिन इतना तय है कि महादेशीय स्तर पर जबरदस्त जवाब देने की तैयारी से भारत की नौसैनिक क्षमता का विकास कुप्रभावित होगा. यह चीन की रणनीतिक लक्ष्य भी हो सकता है. अपनी टिकाऊ नौसैनिक क्षमता के विकास के लिए भारत को बड़े बजटीय समर्थन और अमेरिका तथा उसके सहयोगी देशों से रक्षा मामले में गहरे सहयोग की जरूरत होगी.
इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि रक्षा बजट में वृद्धि भारत की रणनीतिक अनिवार्यता है. संकीर्ण चुनावी लाभों से ज्यादा इसे प्राथमिकता देने की जरूरत है. भाजपा सरकार ने रक्षा बजट में वृद्धि करने और चीन ने भारत पर जो अतिरिक्त बोझ डाला है उसकी भरपाई करने की कोई मंशा अब तक नहीं दिखाई है. आश्चर्य नहीं कि मोदी सरकार सेना के लिए साजोसामान, मसलन तीसरे विमानवाही युद्धपोत की जरूरत, पर बहस को अंतहीन समय तक खींच रही है और उस पर कोई फैसला नहीं कर रही. राजनीतिक नेतृत्व को इस तरह की रणनीतिक जड़ता को तोड़ना होगा.
भू-राजनीति की लहरों में भारत
दूसरी ओर, भारत वैश्विक भू-राजनीति की लहरों में अपनी नाव खे रहा है. वैश्विक भू-राजनीति के दो खेमों में से एक में भारत की मौजूदगी को हिचक के साथ स्वीकार किया जा रहा है. दोनों खेमों की खींचतान राजनीतिक विवेक और कुशल कूटनीति की मांग करती है. जबकि वैश्विक और क्षेत्रीय तनावों की छाया गहरी होती जा रही है, तब भारत अगर दोनों हाथ में लड्डू रखने की कवायद करेगा तो उसे खासकर सैन्य, आर्थिक, तथा तकनीक के क्षेत्रों में टकराव और विरोध का सामना करना पड़ेगा.
चीन ने उत्तरी सीमा को लेकर भारत की संवेदनशीलता का लाभ उठाने के लिए सैन्यबल का जो इस्तेमाल करने की कोशिश की उसका उसे उलटा ही नतीजा मिला. भारत को पश्चिमी खेमे से दूर रखने की जगह उसने उसे अमेरिकी घेरे में और गहरे धकेल दिया. इसके साथ ही, भारत-रूस संबंध ने भी साझेपन को बनाए रखा और दोनों अब यह महसूस कर रहे हैं कि उन्हें अपना रिश्ता मजबूत बनाए रखना है. चीन के साथ भी आर्थिक संबंध का विस्तार ही हुआ है, भले ही राजनीतिक तेवर कुछ भी रहे हों और चीनी ऐप्स पर रोक लगाने जैसे प्रतिबंधात्मक कदम क्यों न उठाए गए हों.
भारत को अमेरिका, पश्चिम और जापान से दूर करने की कोशिशों में चीन भारत के राजनीतिक नेतृत्व की संवेदनशीलताओं का लाभ उठाने के फेर में है. अंतरराष्ट्रीय संबंधों के लिहाज से, जब तक भारत के हितों को गंभीरता से आगे बढ़ाया जाएगा और वैधता के सिद्धांत की रक्षा की जाएगी, तब तक राष्ट्रीय प्रगति और विकास की गुंजाइश बनी रहेगी. यूरोपीय संघ ने हाल में जो फैसले किए हैं उन पर गौर किया जा सकता है.
यूरोपीय संघ और जी-7 देशों ने दिसंबर में तेल और गैस की कीमतों को स्थिर करने का फैसला किया है. यह तभी सफल होगा जब रूस के तेल के दो बड़े खरीदार भारत और चीन भी इसे कबूल करें. इसके लिए यह भी जरूरी होगा कि सऊदी अरब जैसे बड़े तेल उत्पादक अपना तेल उत्पादन बढ़ाएं. आश्चर्य नहीं कि भारत, चीन और तेल उत्पादक देश यूरोपीय संघ से सहयोग न करें. इस मसले पर ये सब भले ही खुद को एक स्थिति में क्यों न पाएं, सामूहिक प्रयास नहीं होते तो ये लक्ष्य पूरे नहीं हो सकते.
रूस की मेजबानी में हुए वोस्तक 2022 बहुद्देश्यीय सैन्य अभ्यास में, जिसमें चीन ने भी भाग लिया, भारत की अनमनी भागीदारी इसी से जाहिर हो गई कि उसने, जाहिर तौर पर जापान को खुश रखने के लिए नौसनिक अभ्यास में भाग नहीं लिया. हितों के ऐसे मेल के उदाहरण समय के साथ सामने आने वाली बड़ी घटनाओं के प्रतिफल माने जा सकते हैं.
बंदूक की भूमिका
चीन के दिग्गज नेता माओ जेदोंग की एक मशहूर उक्ति है— ‘राजनीतिक सत्ता बंदूक की नली से निकलती है’. ऐसा लगता है कि भारत के साथ चीन का रिश्ता कुछ इसी भावना से प्रेरित है. वैसे, राजनीतिक सत्ता मनोवैज्ञानिक संबंधों का प्रतिफल होती है और वह एक दिमागी खेल है. मौजूदा और भावी रणक्षेत्र राजनीतिक वार्ता की मेज पर होने वाले संवादों से तय होते हैं.
अगर आपसी सहमति से सेनाओं की वापसी उज्बेकिस्तान में मोदी-शी मुलाक़ात की पूर्वपीठिका बनी, तो इसके लिए चीनी बंदूकों का मुंह झुकाना शुरुआती कदम के तौर पर जरूरी था. हालांकि शी जिनपिंग के मामले में कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती, लेकिन मुमकिन है कि ये दोनों नेता संबंधों को सामान्य बनाने की, जिसकी संभावना अभी दूर दिखती है, दिशा में बातचीत को आगे बढ़ा ले जाएं. शी को जबकि अपने देश में और बाहर भी उलटी हवाओं का सामना करना पड़ रहा है, तब क्या यह उम्मीद की जा सकती है कि उज्बेकिस्तान में बातचीत चीन-भारत संबंधों के बीच बंदूक की भूमिका को कमजोर करेगी?
(लेफ्टिनेंट जनरल (डॉ.) प्रकाश मेनन (रिटायर) तक्षशिला इंस्टीट्यूशन में स्ट्रैटेजिक स्टडीज के डायरेक्टर हैं; वे नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल सेक्रेटेरिएट के पूर्व सैन्य सलाहकार भी हैं. उनका ट्विटर हैंडल @prakashmenon51 है. व्यक्त विचार निजी है)
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें- नेपाली गोरखा सैनिक बेहतर अग्निपथ योजना के हकदार हैं