छत्तीसगढ़ में पत्रकारों के भीतर उमड़ते असंतोष के बीच कांग्रेस की भूपेश बघेल सरकार द्वारा पत्रकारों की सुरक्षा के लिए विधानसभा के आगामी शीतकालीन सत्र में एक व्यापक कानून बनाए जाने की संभावना है. ‘छत्तीसगढ़ मीडियाकर्मी सुरक्षा कानून’ देश में इस तरह का दूसरा कानून होगा. इससे पहले नवंबर 2019 में महाराष्ट्र पत्रकारों के लिए ऐसा ही कानून बना चुका है. छत्तीसगढ़ के प्रस्तावित अधिनियम में ऐसे कई विषय शामिल हैं जिन्हें महाराष्ट्र के कानून में जगह नहीं मिली थी.
इस तरह के कानून का बेहतर आंकलन ‘मीडियाकर्मी’ की परिभाषा और उन्हें उपलब्ध विभिन्न अधिकारों से हो सकता. छत्तीसगढ़ के प्रस्तावित कानून में ‘स्ट्रिंगर’ और ‘हॉकर’ भी मीडियाकर्मी माने गए हैं, यहां तक कि वह ‘एजेंट’ भी शामिल है जो ‘नियमित रूप से समाचार संकलन और किसी मीडियाकर्मी या मीडिया संस्थान को प्रेषण का कार्य करता है.’ इसी तरह मीडियाकर्मियों को उत्पीड़न या शारीरिक हिंसा के विरुद्ध ही नहीं, अनुचित अभियोजन से भी संरक्षण उपलब्ध कराने का प्रस्ताव है.
इस कानून के बारे में बताते हुए मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने मुझसे कहा, ‘कई पत्रकारों (छत्तीसगढ़ में) के पास कोई पंजीकरण नहीं है. कई मीडिया हाउस उन्हें पहचान पत्र भी नहीं देते. वे जीवन भर काम करते हैं लेकिन उन्हें कोई पहचान नहीं मिलती है. वे सदैव खतरे का सामना करते हैं. हमें पत्रकारों के संरक्षण के लिए एक कानून बनाने की आवश्यकता है.’
प्रस्तावित कानून में राज्य के मीडियाकर्मियों को पंजीकृत करने का प्रावधान है. ‘सुरक्षा की आवश्यकता वाले व्यक्ति’ की परिभाषा में ‘अपने व्यवसाय के कारण उत्पीड़न, धमकी या हिंसा का सामना कर रहे’ पंजीकृत मीडियाकर्मियों के साथ-साथ ‘तकनीकी सहयोगी स्टाफ़, ड्राइवर, दुभाषिए, ओबी वैन ऑपरेटर तथा अन्य व्यक्ति’ शामिल हैं जो ‘पंजीकृत मीडियाकर्मी नहीं हैं किंतु पंजीकृत मीडियाकर्मी से जुड़े होने के फलस्वरूप धमकी, उत्पीड़न, या हिंसा का सामना कर रहे हैं.’ ‘अन्य व्यक्तियों’ को शामिल करने से प्रस्तावित कानून के सुरक्षात्मक दायरे में मीडियाकर्मी के रिश्तेदार और मित्र भी आ सकेंगे.
ग़ौरतलब है कि प्रस्तावित कानून के तहत गठित विभिन्न समितियों में महिलाओं की भागीदारी की अनिवार्य है. मीडियाकर्मियों के पंजीयन को सुनिश्चित करने वाली तीन-सदस्यीय समिति एक नौकरशाह और दो पत्रकारों से मिलकर बनेगी- जिनमें एक महिला पत्रकार की भागीदारी अनिवार्य है. मीडियाकर्मियों के संरक्षण की जिम्मेदारी वाली केंद्रीय समिति के तीन पत्रकार सदस्यों में भी कम से कम एक महिला पत्रकार को शामिल किया जाएगा.
कानून के मसौदे में मीडियाकर्मियों के लिए चौबीसों घंटे कार्यरत एक हेल्पलाईन की भी व्यवस्था है. महत्वपूर्ण है कि सुरक्षा प्रबंध करने से पहले प्रभावित व्यक्ति से परामर्श आवश्यक है, लेकिन तात्कालिक खतरे की स्थिति में व्यक्तिगत परामर्श की ज़रूरत नहीं होगी.
देश भर के पत्रकार विभिन्न प्रकार के उत्पीड़न और झूठे मुकदमों का सामना कर रहे हैं. इस स्थिति में छत्तीसगढ़ के कानून के कई प्रावधान अन्य राज्यों के लिए मिसाल बन सकते हैं. दरअसल इन प्रावधानों की पहली परीक्षा छत्तीसगढ़ में ही होगी. पिछले हफ्ते का एक उदाहरण लें. अंबिकापुर के पत्रकार मनीष सोनी की एक वीडियो रिपोर्ट से कुछ स्थानीय कांग्रेसी नेता नाराज़ हो गए थे. सोनी का कहना है कि कुछ अज्ञात व्यक्तियों ने बाद में वीडियो से छेड़छाड़ कर इसमें आपत्तिजनक शब्द जोड़ दिए, लेकिन नाराज़ कांग्रेसी नेताओं ने इसमें अवसर खोज लिया और सोनी के खिलाफ एफआईआर करवा दी. राज्य के कई कांग्रेसी नेता सोनी के बचाव में आगे आए, लेकिन अंबिकापुर के नेता पीछे हटने को तैयार नहीं हुए.
नए कानून की पृष्ठभूमि
कांग्रेस सरकार ने 2018 के विधानसभा चुनाव के पार्टी घोषणापत्र में किए गए वादे के अनुरूप पत्रकारों के संरक्षण के लिए मार्च 2019 में सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत जज आफ़ताब आलम के नेतृत्व में एक 11-सदस्यीय कमेटी का गठन किया था. सदस्यों में हाईकोर्ट की सेनानिवृत जज अंजना प्रकाश, छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक डीएम अवस्थी और बघेल के मीडिया सलाहकार रुचिर गर्ग शामिल थे. गर्ग 2018 में कांग्रेस में शामिल होने से पहले करीब तीन दशकों तक पत्रकारिता कर चुके हैं.
विधेयक का मसौदा तैयार करने के बाद कमेटी सदस्यों ने नवंबर 2019 में छत्तीसगढ़ के विभिन्न शहरों का दौरा कर जनसभाएं की, पत्रकारों और जनता से मुलाकात कर सुझाव मांगे. उसके बाद विधेयक का द्वितीय मसौदा तैयार किया गया जिसे पिछले सितंबर महीने में ऑनलाइन किया गया और उस पर सुझाव मांगे गए. मसौदे को अब अंतिम रूप दिया जा चुका है और उसे विधानसभा के शीतकालीन सत्र में पारित कराए जाने की संभावना है.
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जनता और पत्रकारों के जिन सुझावों को मसौदा विधेयक में शामिल किया गया है उनमें प्रमुख हैं: हॉकरों को मीडियाकर्मी का दर्जा दिया जाना, पत्रकारों की सुरक्षा की जिम्मेदारी वाली समिति के प्रमुख का पद हाईकोर्ट जज रह चुके व्यक्ति को सौंपा जाना, और प्रस्तावित कानून के तहत अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में विफल रहे नौकरशाहों पर जुर्माना लगाया जाना.
प्रमुख प्रावधान
महाराष्ट्र के कानून ‘महाराष्ट्र मीडियाकर्मी एवं मीडिया संस्थान (हिंसा और संपत्ति को नुकसान या क्षति रोकथाम) अधिनियम’ में मीडियाकर्मी को ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया गया है ‘जिसका प्रमुख व्यवसाय पत्रकार का है और जो नियमित या संविदा आधार पर एक या अधिक मीडिया संस्थानों में, या उसके संबंध में, पत्रकार के रूप में नियुक्त है और जिनमें संपादक, उपसंपादक, समाचार संपादक, रिपोर्टर, संवाददाता, कार्टूनिस्ट, समाचार-छायाकार, टेलीविजन कैमरामैन, संपादकीय-लेखक, फीचर-लेखक, कॉपी-टेस्टर और प्रूफ-रीडर शामिल हैं.’ उल्लेखनीय है कि ‘प्रमुख व्यवसाय’ और ‘नियुक्त’ इस कानून का दायरा सीमित कर देते हैं.
लेकिन छत्तीसगढ़ के कानून का मसौदा ‘मीडियाकर्मी’ की परिभाषा को अधिक व्यापक बनाता है और उसके अधीन तमाम लोगों को ले आता है. इसके खंड 4(जे) के अनुसार मीडियाकर्मी का ‘अर्थ ऐसा व्यक्ति जो कर्मचारी, स्वतंत्र संविदा अथवा प्रतिनिधि के तौर पर किसी मीडिया संस्थान से जुड़ा हो जो व्यावसायिक तौर पर जनसामान्य को किसी भी जनसंचार माध्यम से जानकारी पहुँचाने का कार्य करती है। इसमें शामिल है संपादक, संपादकीय-लेखक, समाचार संपादक, उपसंपादक, फीचर-लेखक, कॉपी एडिटर, रिपोर्टर, संवाददाता, कार्टूनिस्ट, समाचार-छायाकार, वीडियो पत्रकार, अनुवादक, इंटर्न/ट्रेनी मीडियाकर्मी, समाचार संकलनकर्ता, और सभी अन्य व्यक्ति शामिल हैं जो समाचार, विचार या मत के संकलन और प्रसारण में नियमित रूप से संलग्न हैं.’
खंड 4(के) में ‘समाचार संकलनकर्ता’ की परिभाषा दी गई है जिसमें ‘हॉकर, स्ट्रिंगर, एजेंट समेत हर व्यक्ति’ को रखा गया है ‘जो नियमित रूप से समाचार या सूचनाओं के संकलन और मीडियाकर्मियों या मीडिया संस्थान को प्रेषण का कार्य करता’ है.
प्रस्तावित कानून की बुनियाद है मीडियाकर्मियों के संरक्षण के लिए एक समिति जिसका अध्यक्ष हाईकोर्ट का जज रह चुका व्यक्ति होगा, जबकि तीन पत्रकार और एक पुलिस अधिकारी उसके सदस्य होंगे. पुलिस अधिकारी अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक के पद से नीचे के स्तर का नहीं होगा. इसमें हर जिले में जोखिम प्रबंधन इकाई स्थापित किए जाने की भी व्यवस्था है. इस इकाई में जिलाधिकारी, जिला पुलिस अधीक्षक और कम से कम सात वर्षों से कार्यरत दो मीडियाकर्मी सदस्य होंगे, जिनमें से एक महिला मीडियाकर्मी होगी. ये इकाइयां किसी मीडियाकर्मी के खिलाफ खतरे या धमकी या हिंसा की शिकायत या सूचना मिलने पर तुरंत कार्रवाई करेंगी, और तात्कालिक मामलों में ‘आपातकालीन सुरक्षा उपाय’ सुनिश्चित करेंगी.
जिलास्तरीय इकाई के आवश्यक कार्रवाई करने में विफल रहने पर केंद्रीय समिति हस्तक्षेप कर सकेगी.
अनुचित अभियोजन के विरुद्ध संरक्षण
प्रस्तावित कानून का संभवत: सबसे महत्वपूर्ण प्रावधान अनुचित मुकदमों, जिसका देशभर में अनेक पत्रकार सामना कर रहे हैं, के विरुद्ध संरक्षण का है. इसके अनुसार अगर कोई मीडियाकर्मी ‘अन्वेषण, जांच या मुकदमे’ का सामना कर रहा है, और कमेटी इसे अन्यायपूर्ण कार्रवाई मानती है, तो वह ‘जांच करेगी’ कि क्या यह मामला आपराधिक दंड प्रक्रिया की धारा 321 के तहत अभियोजन वापस लिए जाने के काबिल है और यदि कमेटी इस निष्कर्ष पर पहुंचती है, तो वह इस संबंध में लोक अभियोजक को अपनी रिपोर्ट सौंपेगी.
कमेटी इस मामले की तहकीकात और मीडियाकर्मी की मदद के लिए पुलिस महानिरीक्षक और पुलिस अधीक्षक की सदस्यता वाली पर्यवेक्षी टीम का भी गठन कर सकती है.
इस प्रस्तावित कानून के तहत अपने कर्तव्यों की जानबूझकर उपेक्षा करने वाले लोकसेवक को दंड देने का भी प्रावधान है, जिसके लिए उसे एक साल तक की कैद या/और 10 हज़ार रुपये का जुर्माना, या दोनों दंड भुगतने पड़ सकते हैं.
हालांकि, महाराष्ट्र के कानून में एक अतिरिक्त प्रावधान भी है. उसके अनुसार किसी मीडियाकर्मी के खिलाफ हिंसा या उसकी संपत्ति की क्षति के दोषी व्यक्ति को तीन साल तक की कैद की सजा हो सकती है. छत्तीसगढ़ का प्रस्तावित कानून इस विषय पर मौन है.
मसौदा तैयार करने वाली कमेटी के एक सदस्य ने कहा: ‘आईपीसी में पहले से ही ऐसी हिंसा के खिलाफ प्रावधान है. हमने इसे शामिल किया होता तो शायद आईपीसी के प्रावधान के साथ टकराहट होती, और राष्ट्रपति की स्वीकृति की ज़रूरत पड़ती जिसकी वजह से विधेयक देर से पारित हो पाता.’
ग़ौरतलब है कि महाराष्ट्र का विधेयक विधानसभा ने 2017 में ही पारित कर दिया था, लेकिन राष्ट्रपति की स्वीकृति दो वर्ष बाद जाकर मिली.
छत्तीसगढ़ का प्रस्तावित कानून प्रशंसनीय है, इसे अन्य राज्य भी अपना सकते हैं. लेकिन अपनी पार्टी के सदस्यों से पत्रकारों के संरक्षण के लिए कांग्रेस सरकार को शायद किसी विशेष कानून का इंतजार करने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए.
(लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनकी हालिया किताब ‘द डेथ स्क्रिप्ट’ नक्सल आंदोलन का इतिहास खंगालती है. ये लेखक के निजी विचार है.)
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