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Saturday, 27 December, 2025
होममत-विमतचरण सिंह ने सामूहिक खेती के सोवियत मॉडल की नाकामियों का खुलासा करके भारतीय कृषि को बचाया

चरण सिंह ने सामूहिक खेती के सोवियत मॉडल की नाकामियों का खुलासा करके भारतीय कृषि को बचाया

‘संयुक्त खेती का एक्सरे...’ किताब में चरण सिंह ने ‘एफएओ’, ‘यूएसडीए’ और स्वतंत्र अखबारों से हासिल तथ्यों के साथ सिद्ध किया कि सामूहिक खेती हर जगह विफल रही थी.

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साल 2001 से, देश पूर्व प्रधानमंत्री चरण सिंह के जन्मदिन 23 दिसंबर को किसान दिवस के रूप में मनाता आ रहा है. यह खाद्य सुरक्षा और राष्ट्र-निर्माण में किसानों के योगदान के सम्मान में किया जा रहा है. पिछले साल, उन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान, ‘भारत रत्न’ से मरणोपरांत नवाज़ा गया.

यह भारतीय कृषि की कामयाबी की कहानी पर विचार करने का भी मौका है. भारत जब आज़ाद हुआ था तब 34 करोड़ की आबादी के लिए मात्र 5 करोड़ टन (एमटी) अनाज का उत्पादन हो रहा था, सबसे उर्वर सिंचित जमीन पश्चिमी पंजाब (अब पाकिस्तान में हैं) में रह गए. आज़ादी के ठीक बाद के दो दशकों में देश अनाजों के लिए अमेरिकी पीएल (पब्लिक लॉ) 480 के आयातों पर निर्भर था. ये ‘शिप-टु-माउथ’ (जहाज से मुंह तक) वाले हालात थे.

आज 350 एमटी अन्न का उत्पादन हो रहा है और ऊंची कीमत वाली खेती—बागवानी वाली फसलों, दूध, मुर्गी पालन, पशु प्रोटीन, मछली के उत्पादन में वृद्धि और भी शानदार रही है. आज उत्पादन मुख्य समस्या नहीं है बल्कि सरंजाम, मूल्य वृद्धि, निर्यात बाज़ार असली चुनौतियां हैं.

दूसरे देशों में जो आर्थिक परिवर्तन हुए हैं उन्हीं की राह पर भारत में भी जीडीपी और रोजगार वृद्धि में कृषि की भागीदारी में गिरावट दर्ज की गई है, लेकिन इस क्षेत्र की महत्ता जीडीपी में इसकी भागीदारी के पैमाने से नहीं आंकी जा सकती है. कौटिल्य के ग्रंथ ‘अर्थशास्त्र’ का उद्धरण लें तो कहा जा सकता है की ‘संप्रभु राष्ट्र का प्रथम कर्तव्य यह है कि उसके अन्न भंडार नागरिकों के लिए भरे हुए हों’, लेकिन यह तब तक संभव नहीं है जब तक किसान समृद्ध नहीं होगा.

चरण सिंह और छोटी जोत वाला किसान

खाद्य में आत्मनिर्भरता की ओर भारत का ‘मार्च’ खाद्य सुरक्षा के मसले को सुलझाने की छोटी जोत वाले किसानों की क्षमता में चरण सिंह की प्रबल आस्था से सीधा जुड़ा है, लेकिन नागपुर में 1959 में हुए कांग्रेस अधिवेशन में सामूहिक खेती से संबंधित प्रस्ताव का चरण सिंह ने जो कड़ा विरोध किया था उसके बारे में हमें बहुत कुछ नहीं मालूम है. उस अधिवेशन में उन्होंने सहकारी खेती के नाम पर ‘सामूहिक खेती’ के मुद्दे पर और किसी से नहीं बल्कि अपनी पार्टी की नौका के खेवैया तथा प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से ही टक्कर ले ली थी. नेहरू और योजना आयोग सोवियत संघ और चीन की कम्युनिस्ट पार्टियों के सामूहिकीकरण वाले मॉडल को लागू करने का पूरी तरह से मन बना चुके थे.

इस कार्यवाही के चश्मदीद गवाह पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने लिखा है: “पंडितजी ने सामूहिक खेती का जो प्रस्ताव पेश किया था उसकी उन्होंने (चरण सिंह) ने जोरदार मुखालफत की. चौधरी साहब ने एक घंटे तक जो धाराप्रवाह भाषण दिया उससे मैं मंत्रमुग्ध हो गया. पंडितजी चौधरी साहब के जोरदार भाषण को ध्यान से सुनते रहे और मुस्कराते भी रहे. पंडितजी ने जब प्रस्ताव पेश किया था तब उसका चौतरफा तालियों से स्वागत किया गया था, लेकिन चौधरी साहब के भाषण ने मानो फिज़ा ही उलट दी. पंडितजी ने चौधरी साहब को जवाब दिया और पंडितजी से सहमत न होते हुए भी हमें उनका ही समर्थन करना था क्योंकि तब उनकी शख्सियत में ऐसी ताकत थी, लेकिन मुझे पक्का भरोसा है कि अगर मैं पंडितजी की जगह पर होता तो चौधरी साहब के तर्कों का जवाब नहीं दे सकता था.“ (‘द ग्रेट कॉन्सिलिएटर’, 2025).

नेहरू का प्रस्ताव मंजूर किए जाने के बाद सी. राजगोपालाचारी, मीनू मसानी, एन.जी. रंगा, के.एम. मुंशी और होमी मोदी जैसे नेताओं ने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया और स्वतंत्र पार्टी बना ली. चरण सिंह उसमें शामिल नहीं हुए, लेकिन उन्होंने सैद्धांतिक फैसला करते हुए उत्तर प्रदेश मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया, जिसमें वे राजस्व तथा सिंचाई विभाग के महत्वपूर्ण मंत्रालयों को संभाल रहे थे.

किसानों के दूसरे बड़े नेता, पंजाब के मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों ने ज्यादा व्यावहारिक फैसला किया. नेहरू के प्रस्ताव को जबानी समर्थन देते हुए उन्होंने पंजाब में मझोले किसानों के हाथ मजबूत करने का काम जारी रखा. 1962 में उन्होंने लुधियाना में पंजाब कृषि विश्वविद्यालय (पीएयू) की स्थापना की. उत्तर प्रदेश के पंतनगर विश्वविद्यालय (अब उत्तराखंड में) के साथ ‘पीएयू’ अमेरिका में जमीन अनुदान के साथ स्थापित विश्वविद्यालयों की तर्ज पर भारत में स्थापित प्रथम विश्वविद्यालयों में शुमार थे. कैरों बर्कले के कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के और मिशिगन विश्वविद्यालय में राजनीतिशास्त्र के छात्र के रूप में अपना खर्च निकालने के लिए अमेरिकी कृषि फार्मों पर रहे थे और वहां मजदूरी भी की थी.

संयुक्त खेती का विश्लेषण

सनद रहे कि चरण सिंह ने स्वतंत्र पार्टी के (जिसमें पटियाला और जयपुर के महाराजाओं समेत कई महाराजा शामिल हो गए थे) जमींदारी, निजी क्षेत्र और मुक्त उद्यम समर्थक विचारों का भी उतना ही विरोध किया था. गौरतलब है कि जब तक इन राजाओं के ‘प्रिवी पर्स’ को खत्म नहीं किया गया था तब तक ऐसी रियासतों के राजाओं की पदवियां और विशेषाधिकार कायम थे और वे काफी राजनीतिक प्रभाव भी रखते थे, खासकर अपनी पुरानी रियासतों में.

चरण सिंह ने इस्तीफा देने के बाद 336 पेज की एक किताब ‘संयुक्त खेती का एक्सरे: समस्या और समाधान’ लिखी जिसमें उन्होंने अपने विचार दर्ज किए. उसके पाठ के प्रमुख मुद्दों पर चर्चा करने से पहले संदर्भ को समझना ज़रूरी है. 1950 का दशक सामूहिक खेती के समर्थक सोवियत पक्ष और निजी खेती के पैरोकार अमेरिकी पक्ष के बीच गहन वैचारिक बहस का दौर था.

नेहरू सोवियत मॉडल के प्रति आकर्षित थे और भारत की खाद्य समस्या के लिए सहकारी खेती को रामबाण समाधान मानते थे. अमेरिका जबकि जमीन-अनुदान वाले विश्वविद्यालयों को बढ़ावा दे रहा था, सोवियत संघ विशाल फार्मों की स्थापना कर रहा था और उसका मानना था कि विशाल फार्मों से जिस पैमाने पर उत्पादन हो सकता है उसकी बराबरी करना छोटे किसानों के लिए असंभव है. तत्कालीन खाद्य व कृषि मंत्री सी. सुब्रह्मण्यम को एक सोवियत प्रतिनिधि ने एक पत्र में यह लिखा था: “क्या आप सोचते हैं कि आप ऐसे छोटे खेतों वाले किसानों से आप इस तरह के परिणाम हासिल कर सकते हैं? आपके बड़े-से-बड़े खेत 6 से 8 या अधिकतम 12 हेक्टेयर के हैं और इनके ज़्यादातर किसान अनपढ़ हैं. इन किसानों को आप नई तकनीक अपनाने के लिए कैसे राज़ी कर सकते हैं? अगर आप नई तकनीक अपनाने को लेकर सचमुच गंभीर हैं तो इन फार्मों की ज़मीन को सामूहिक खेती में बदलने और उनके लिए उपयुक्त मैनेजरों को नियुक्त करने का यही मौका है. उच्च स्तर के 2-25 कृषि मैनेजरों को इन सामूहिक फार्मों की ज़िम्मेदारी लेने के लिए प्रशिक्षित करना आपके लिए आसान होगा और इन किसानों का इस्तेमाल इन फार्मों के लिए मजदूर जुटाने के लिए किया जा सकता है. आप चाहें तो उनका जो भी हिस्सा हो, उन्हें दे सकते हैं, लेकिन नई तकनीक लागू करने के लिए सामूहिकता ही एकमात्र उपाय है, वरना आप उसके नतीजे नहीं हासिल कर सकते हैं.” (‘द ग्रेट कॉन्सिलिएटर’, 2025)

‘संयुक्त खेती का एक्सरे…’ किताब में चरण सिंह ने ऐसे दावों का ‘एफएओ’, ‘यूएसडीए’, और स्वतंत्र अखबारों से हासिल तथ्यों के साथ खंडन किया है. उन्होंने सिद्ध किया है कि सामूहिक खेती इज़रायल में किब्बुज को छोड़ हर जगह विफल रही है. इजरायल में भी शुरू के कुछ किब्बुज (सामूहिक फार्म जिनमें व्यक्ति को कोई निजी अधिकार नहीं था) के बाद किसानों ने खुद को मोशावों में संगठित करना पसंद किया जिनमें हर किसान का अपने खेत पर अधिकार था, लेकिन खेती के लिए ज़रूरी संसाधनों और पैदावारों की मार्केटिंग में साझीदारी की जाती थी.

चरण सिंह ने बताया कि सोवियत संघ में कृषि उत्पादन तो वास्तव में घट गया है. हालांकि, स्टालिन की सरकार ने वहां अकाल जैसी स्थितियों को छिपाने की पूरी कोशिश की. संयोग से यह सब तब हो रहा था जब चीन में माओ के ‘ग्रेट लीप फॉरवर्ड’ अभियान के तहत खेतों का समूहीकरण किया जा रहा था और गोरैयों को मारा जा रहा था, जिसके कारण देश का ‘फूड चेन’ टूट गया था और अकाल पड़ गया था जिसमें 1958 से 1962 के बीच 3.6 करोड़ लोग मारे गए थे.

ज़ाहिर है, चरण सिंह ने भारत को सोवियत, चीनी, हंगेरियन और रोमानियाई मॉडल की आंख मूंदकर नकल करने के खतरनाक नतीजों से बचा लिया था.

(यह छोटे किसानों की खेती पर आधारित तीन लेखों की श्रृंखला का पहला लेख है.)

(संजीव चोपड़ा एक पूर्व आईएएस अधिकारी हैं और वैली ऑफ वर्ड्स साहित्य महोत्सव के निदेशक हैं. हाल तक वे LBSNAA के निदेशक रहे हैं और लाल बहादुर शास्त्री मेमोरियल (एलबीएस म्यूज़ियम) के ट्रस्टी भी हैं. वे सेंटर फॉर कंटेम्पररी स्टडीज़, पीएमएमएल के सीनियर फेलो हैं. उनका एक्स हैंडल @ChopraSanjeev है. यह लेख लेखक के निजी विचार हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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