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Thursday, 25 April, 2024
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चंडीगढ़ का मूल डिज़ाइनर ली कार्बूजियर नहीं, बल्कि गीता में आस्था रखने वाला पॉलैंड का एक वास्तुकार था

चंडीगढ़ को 1950 में अल्बर्ट मेयर की टीम में शामिल हुए मैथ्यू नोवित्स्की के नगर के रूप में जाना जाता, पर एक हादसे के कारण ऐसा नहीं हो पाया.

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चंडीगढ़ से स्विस-फ्रांसीसी वास्तुकार ली कार्बूजियर का नाम एक दुखद हादसे की वजह से जुड़ गया. वरना चंडीगढ़ को मैथ्यू नोवित्स्की के शहर के रूप में जाना चाहिए था.

पॉलैंड के वास्तुकार 44 वर्षीय ‘मैत्शिए’ नोवित्स्की की अगस्त 1950 में भारत से अमेरिका जाते वक्त मिस्र में काहिरा के पास एक विमान दुर्घटना में मौत हो गई. उस हादसे ने संभावनाओं से पूर्ण एक मेधावी वास्तुकार को दुनिया से छीन लिया.
विमान हादसे से दो सप्ताह पूर्व, उसने अमेरिकी नगर नियोजक एवं वास्तुकार अल्बर्ट मेयर को लिखा था, ‘अंतत: मुझे कृष्ण के कहे हूबहू शब्द मिल गए, ‘सुख और दुःख को, लाभ और हानि को, जय और पराजय को समान समझकर फिर युद्ध में प्रवृत्त हो… जैसे मूर्ख लोग कार्यों से बंधे होते हैं, उसी तरह बुद्धिमानों को भी करना चाहिए, पर बिना लगाव के, और विश्व में व्यवस्था कायम करने के उद्देश्य से.’ भगवतगीता (2:38) के इस आंशिक शब्दश: अनुवाद ने स्पष्टतया युवा नोवित्स्की को सांत्वना देने का काम किया था. जिसने एक भव्य शहर के बजाय एक ‘आनंदित’ शहर के नियोजन में अपना सर्वस्व झोंक रखा था. वह इस काम के लिए सही व्यक्ति था. क्योंकि उसने भी विवेकहीन संघर्ष में ज़िंदगियों को अस्थिर होते देख रखा था.

उम्मीदों के शहर का निर्माण

नोवित्स्की को चंडीगढ़ परियोजना से जिस कदर लगाव हो गया था, उतना जुड़ाव उसने किसी अन्य परियोजना के साथ महसूस नहीं किया था. पॉलैंड के एक गंभीर और संवेदनशील वास्तुकार के रूप में उसके डिज़ाइनों में से कुछेक ही आखिरकार निर्मित हो पाए थे – जिनमें से एक मस्जिद और एक कम लागत वाली आवासीय परियोजना शामिल थी.

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान नोवित्स्की वास्तुकारों के एक भूमिगत समूह का हिस्सा था, जिसने लड़ाई के बाद ध्वस्त शहर की राख पर एक खड़ा किए जाने वाले एक नए वारसॉ का खाका तैयार किया था. युद्धोपरांत वह उस टीम में शामिल था जिसे कि वारसॉ की पुनर्निर्मित करने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी. ठीक उसी प्रकार 1947 के बाद के भारत में चंडीगढ़ को उनलोगों के लिए उम्मीदों के एक शहर के रूप में निर्मित किया जाना था जोकि अपनी पसंदीदा स्थलों को छोड़ने के लिए विवश किए गए थे क्योंकि वो इलाके अब दूसरे देश का हिस्सा थे.

अल्बर्ट मेयर द्वारा 1950 के आरंभ में नोवित्स्की को अपनी टीम में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया जाना एक संयोग था. उनका करिअर 1947 से मुख्यधारा में कहा जा सकता था, जब उन्होंने ली कार्बूजियर के साथ न्यूयॉर्क के संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय की परियोजना पर काम किया था.

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मेयर के समक्ष भी एडविन लुटियंस के समान ही एक दुविधा थी– भारतीय पंजाब की नई राजधानी को एक पारंपरिक गार्डन सिटी के रूप में निर्मित किया जाए, या उसे सादगी वाले समकालीन वास्तुशिल्प में ढाला जाए या फिर उसमें ‘भारतीय’ शैली का समावेश हो? उसने एक ऐसे नगर की परिकल्पना की जो गौरव का प्रतीक हो और जो भारतीय शैलियों से संबद्ध हो और इसी से परस्पर संबद्ध मोहल्लों का विचार सामने आया, जिसमें गांव जैसा भाव हो, न कि ज्यामितीय आकार में व्यवस्थित शहर का. इसमें ऑस्ट्रिया के वास्तुकार कैमिलो सित्त की समरूपता में ‘अनियमितता’ का भाव नज़र आता है.

मोहल्लों के परिवेश का निर्धारण

नोवित्स्की को कैपिटल कॉम्प्लैक्स, केंद्रीय व्यावसायिक इलाके और रेलवे स्टेशन पर ‘वास्तुशिल्पीय नियंत्रण’ रखने की जिम्मेदारी दी गई थी, जबकि हाउसिंग की विशेषताओं का निर्धारण भारतीय वास्तुकारों के हाथों में था. पर, वह हाउसिंग के काम में भी जुड़ गया. भारत के पहली पीढ़ी के नगर नियोजक उसके समान आत्मविश्वास और गति से काम नहीं कर सकते थे, इसलिए नोवित्स्की ने उन्हें खुद को व्यवस्थित करने का मौका देते हुए खुद शिमला में दो महीने व्यतीत करने का फैसला किया. उसने भारत की सांस्कृतिक विशेषताओं को आत्मसात करते हुए कम ऊंचाई के भवनों वाले मोहल्लों (सुपर-ब्लॉक)– जलधाराओं और खुले स्थलों का भी ध्यान रखते हुए– के कई स्केच तैयार किए. इनमें रंग, डिज़ाइन और प्रकार के लिहाज से विविधता रखी गई थी.

इन मोहल्लों को बड़े सरकारी भवनों और पार्कों की धुरी से जोड़ा जाना था जो आगे ऊंचाई वाले इलाकों से मिल जाता. उसके अनुसार ये ‘छुट्टियां बिताने के काम’ आता. इसकी प्रेरणा पेरिस से आई थी जहां नगर की केंद्रीय धुरी आगे बो डे बुलोन्ये के पार्क में जाकर मिल जाती है. चंडीगढ़ के लिए नोवित्स्की की ‘पत्ते’ के आकार वाली योजना में स्थानीय भूस्थिति, प्रचलित हवाओं और प्रस्तावित उपयोग को ध्यान में रखा गया था. इसमें शामिल थे- घूमती गलियां, छोटे मोहल्ले, और दो मौसमी जलधाराओं सुखना चौ और पटियाली के राव के बीच एक पंखानुमा आकार.

आधिकारिक बैठकों और अन्य अवरोधों ने काफी वक्त खराब किया. पर नोवित्स्की निराश होने वाला नहीं था और वह कैपिटल कॉम्पलेक्स या केंद्रीय व्यावसायिक इलाके के बजाय मोहल्लों की विशेषताओं पर काम करता रहा. वारसॉ के पुनर्निर्माण की परियोजना पर 1945 में काम करते हुए नोवित्स्की ने एक ही परिवेश में दो शहरों के निर्माण का सुझाव दिया था, एक वाहनों के हिसाब से और दूसरा पैदल चलने वालों के अनुरूप. उसने इस पहलू को चंडीगढ़ के डिज़ाइन में शामिल किया, और कम लागत वाले भवनों के अपने पूर्व के कार्य से जुड़े अनुभवों को भी.

नोवित्स्की जहां विशालकाय भवनों से बचना चाहता था, वहीं उसे शरणार्थी रिहायशी इकाइयों वाला अनाकर्षक रूप भी नापसंद था. नोर्मा इवेंसन अपनी किताब चंडीगढ़ (1966) में लिखती हैं, ‘मानव के हित स्थान विशेष के भावनात्मक गुणों पर जितना निर्भर करते हैं, उतना ही इसमें रोशनी और हवा की स्वास्थ्यप्रद भूमिका का भी योगदान होता है.’ समानांतर ब्लॉकों से बचते हुए धूप और छाया के उपयोग से जादुई प्रभाव लाना संभव था.

नोवित्स्की की मौत के कुछ ही महीनों के भीतर भारतीय अधिकारियों ने ली कार्बूजियर से संपर्क किया, और साल भर के भीतर एक नई टीम तैयार हो चुकी थी. उन्होंने मेयर-नोवित्स्की की मूल योजना को बरकरार रखा, पर वक्रीय मोहल्लों के उनके डिज़ाइन को नियमित ग्रिड में परिवर्तित कर दिया गया. नोवित्स्की के डिज़ाइन उन्हीं के साथ काल कवलित हो गए.

(यह लेख भारतीय कला, संस्कृति एवं विरासत के मुक्त ऑनलाइन संसाधन www.sahapedia.org के सहयोग से आठ भागों की श्रृंखला ‘रीडिंग ए सिटी’ में अंतिम है.)

(डॉ. नारायणी गुप्ता नगरीय इतिहास पर लिखती हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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