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Thursday, 31 October, 2024
होममत-विमतघोड़ी पर चढ़कर शादी: सवर्ण अहंकार को चुनौती या पाखंड की नकल?

घोड़ी पर चढ़कर शादी: सवर्ण अहंकार को चुनौती या पाखंड की नकल?

दबंग जातियां शादी के दौरान घोड़ी पर चढ़ना अपना विशेषाधिकार समझती हैं, इसलिए दलितों द्वारा ऐसा करना उन्हें बगावत या सामाजिक ताने-बाने का टूटना लगता है. लेकिन ऐसी शादी करके दलितों को मिलेगा क्या?

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गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश तीन ऐसे प्रमुख राज्य हैं, जहां दलित दुल्हे को घोड़े पर चढ़ने से रोकने से संबंधित विवाद अक्सर सामने आते है. जो अक्सर दलितों के खिलाफ एकतरफा हिंसा, मार-पीट, आगजनी के रूप में प्रकट होता है. हालांकि, ऐसी घटनाएं कई और राज्यों में भी होती हैं.

सदियों से सवर्ण की एक ख़ास जाति और कुछ कथित पिछड़े घोड़ी पर चढ़कर, लम्बी मूछों और तलवार के साथ शादी करने की प्रथा को अपना एकाधिकार मानती रहीं हैं. ज़ाहिर है दलितों द्वारा इस परंपरा का अनुकरण उन्हें उनके एकाधिकार में सेंधमारी जैसा लगता है.

सनद रहे! वर्ण और जाति व्यवस्था के जनक अर्थात् ब्राह्मणों में अमूमन इस प्रथा का चलन नहीं है, जो अपने आप में एक शोध का विषय है.

गुजरात में दलितों को घोड़ी से उतारने के मामले

पिछले दिनों में मध्यप्रदेश के रतलाम (जहां दूल्हे को सवर्णों की पत्थरबाजी से बचने के लिए हेलमेट लगाना पड़ा), उत्तर प्रदेश के कासगंज, संजरवास गाँव (दादरी जिले), हरियाणा के कुरुक्षेत्र से ऐसी खबरें आईं. लेकिन गुजरात आजकल ऐसी खबरों के लिए छाया हुआ है. पिछले हफ्ते वहां मेहसाणा, सांबरकाठा से ऐसी घटनाएं सामने आईं हैं. इन घटनाओं को अंजाम देने में आम तौर पर सवर्ण या कथित पिछड़े वर्ग के पुरुष शामिल होते हैं.

लेकिन, लैंगिक भेदभाव के नाम पर 33 प्रतिशत आरक्षण की मांग कर रही महिलाएं भी इस जातिवादी कुकर्म में पीछे नहीं रहीं. अरवल्ली जिले के खामबिसार गांव में घोड़ी पर चढ़े दलित दुल्हे को रोकने के लिए महिलाएं सड़क पर बैठ कर कीर्तन करने लगीं– उसी हिन्दू धर्म का कीर्तन, जिस धर्म के कथित रीति-रिवाज़ के अनुसार दलित दूल्हा घोड़ी पर बैठा था और उन्हीं महिलाओं के द्वारा, जिन्हें 33 प्रतिशत आरक्षण चाहिए!

स्मरण रहे, शरीर नर-मादा हो सकता है, लेकिन संस्कार तो जातियों के हिसाब से ही बनते हैं!

ऐसे मौकों पर जब पुलिस आती है और यदि आप पुलिसकर्मी से पूछो की उसका क्या काम है तो वह आपको शायद यह जवाब देगा, ‘शांति बनाए रखना.’ और अमूमन यह काम जाति-व्यवस्था बनाए रखकर किया जाता है. ज्यादातर दबंग जातियों के पक्ष में!

मिसाल के तौर पर, कीर्तन के जरिए बारात रोकने वाले केस में पुलिस का काम था रास्ता रोकने वाले कीर्तनियों को हटाकर सड़क साफ करना. लेकिन उन्हें कीर्तन करने वालों को सुरक्षा दी और बारात को रोक दिया.


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क्या घोड़ी पर चढ़ना सामाजिक क्रांति है?

चूंकि दबंग जातियां शादी के दौरान घोड़ी पर चढ़ना अपना विशेषाधिकार समझती हैं. इसलिए दलितों द्वारा ऐसा करना उन्हें बगावत या सामाजिक ताने-बाने का टूटना लगता है. यह बगावत कई रूपों में व्यक्त हो सकती है. सवर्ण के सामने बीड़ी/सिगरेट पीना, ज़मीन खरीद लेना, आर्थिक रूप से समृद्ध हो जाना, साफ़ सुथरे वस्त्र पहनना, जूते पहनकर चलना, सीधा तनकर स्टाइल में चलना, नोकदार मूंछे रख लेना, बुलेट मोटरसाइकिल या महंगी कार पर चलना इत्यादि. इन सारी घटनाओं ने कई बार सवर्णों में हिंसक प्रतिक्रिया को जन्म दिया है.

यहां डॉ. आंबेडकर को याद करना प्रासंगिक होगा. वे लिखते हैं, ‘यदि किसी हिन्दू से पूछो यदि किसी अस्पृश्य के जीवन में सुधार आता है तो आपको क्या समस्या है, तब वह बोलेगा जिसे आप सुधार कहते हैं, वह सुधार नहीं बल्कि हमारे धर्म के विरुद्ध विद्रोह है, और धर्म की जड़ें हमारे शास्त्रों में है.’

यह अकारण नहीं है कि अरवल्ली ज़िले के पीड़ित परिवार ने बौद्ध धर्म अपनाने की घोषणा की है. यह 21वीं सदी का भारत है और दलितों की आकांक्षाएं बार-बार उन्हें ऐसे ‘विद्रोह’ के लिए प्रेरित करती हैं.

दलित उत्पीड़न का सार्वजनिक प्रदर्शन और उत्सव

घोड़ी-प्रकरण से भी वीभत्स घटनाएं आज भी जारी है. जैसे– किसी स्वाभिमानी दलित की हत्या, आम हत्याओं की तरह नहीं होती, बल्कि आनुष्ठानिक वध होता है, सरेआम ज़िन्दा जलाया जाता है, सड़कों पर घसीटा जाता है, पंचायत सजाई जाती है, पूरे मोहल्ले को इकट्ठा किया जाता है, महिलाओं की हत्या से पहले सामूहिक बलात्कार होते हैं. अंग-भंग किया जाता है और नंगा करके बाज़ारों में घुमाया जाता है.

ऐसा क्यों है कि ऐसी घटनाओं का सार्वजनिक प्रदर्शन किया जाता है – विडियो बनाकर वायरल किया जाता है? इसके मूल में है कुछ घटनाओं के द्वारा बहुसंख्यक जातियों को आतंकित करना, जिससे कि वह अपने अधिकारों (भूमि, सत्ता, विद्या-अर्जन और अवसर) की मांग न करें.

यही है सबसे मारक हिंसा!

ऐसे ज़्यादातर मामलों में अपराधी छूट जाते हैं. बिहार के दलित नरसंहारों में अक्सर अभियुक्त ऊंची अदालतों से बरी होते देखा गया है.

ऐसी स्थिति की व्याख्या करते हुए डॉ. आंबेडकर ने लिखा है, ‘अधिकारी अस्पृश्य विरोधी और हिन्दू समर्थक होता है. जब भी उसे अपने अधिकार या विवेक का प्रयोग करना होता है, तो वह उसका प्रयोग पूर्वाग्रह से अस्पृश्य के विरुद्ध करता है. पुलिस कर्मचारी और मजिस्ट्रेट अक्सर भ्रष्ट होते हैं. यदि केवल भ्रष्ट हों तो स्थिति संभवतः उतनी ख़राब न हो, क्योंकि भ्रष्ट अधिकारियों को तो कोई भी पक्ष खरीद सकता है. लेकिन दुर्भाग्य यह है कि पुलिस कर्मचारी तथा मजिस्ट्रेट भ्रष्ट होने की अपेक्षा अधिक पक्षपातपूर्ण होते हैं. हिन्दुओं के प्रति उनके इस पक्षपातपूर्ण और अस्पृश्यों के प्रति विरोधपूर्ण रवैये के कारण ही अस्पृश्यों को न्याय और सुरक्षा नहीं मिल पाती. एक के प्रति पक्षपात और दूसरे के प्रति विरोध का कोई निदान नहीं है, क्योंकि यह सामाजिक और धार्मिक नफरत की भावना पर आधारित है, जो हर हिन्दू में जन्मजात होती है.’

शादी की हिंदू परंपरा के दीवाने क्यों हैं दलित

कौन कैसे शादी करे, यह उसका व्यक्तिगत मामला है, यह किसी व्यक्ति का वैधानिक और लोकतांत्रिक अधिकार भी है. लेकिन ऐसे मामलों में जब वर पक्ष दलित होते हैं, जो जय फुले जय भीम, जय कांशी राम भी बोलते हैं, तो कुछ सवाल जरूरी हो जाते हैं. क्या फुले, आंबेडकर, कांशीराम की यही शिक्षा थी? क्या सवर्ण दार्शनिक परंपरा में चार्वाक और राहुल सांकृत्यायन की परंपरा से कुछ सीखा जा सकता है?

जब लोग चांद पर बसने की कोशिश कर रहे हैं, तब क्या नक़ल करने के लिए सिर्फ घोड़ी पर बैठकर शादी करना ही बचा है? दिखावा ही करना है तो हेलीकाप्टर, लिमोज़िन, ऑडी, मर्सिडीज़ से क्यों नहीं शादी करने जाते?

पतनशील परंपरा से क्यों सीखें?

अब दूसरे प्रश्न पर आते हैं. घोड़ी पर चढ़ कर शादी करने जाना, सिर्फ घोड़ी पर चढ़ना है या इसमें परंपरा की कोई पैकेज डील भी है? इस परंपरा के साथ दहेज़ लेना और बहु-हत्या और बाद में भ्रूण हत्या भी शामिल है.

इसे पैकेज में लेंगे या नहीं?

अब ‘हिन्दू’ विवाह की शब्दावली को भी समझा जाय! दूल्हा (वर) और दुल्हन (वधु या बहू)! वधु वह धातु से निकला है, जिसका अर्थ है ले जाना, फिर कन्यादान – शब्द-उत्पत्ति की दृष्टि से यदि इन दोनों शब्दों को सम्पूर्णता में देखें तो लगता है बेटी कोई वस्तु है जिसका दान/विदा किया जा रहा है. फिर स्त्रीधन के नाम पर कार, गहने, फर्नीचर, कपड़े और बर्तन. क्या पैकेज डील में इन अवधारणाओं को भी लेंगे? बेटी को सम्पति का अधिकार देंगे या नहीं देंगे?

स्मरण रहे! डॉ. आंबेडकर ने इन्हीं मुद्दों पर देश के कानून मंत्री पद से इस्तीफ़ा दिया था.


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आंबेडकर को मानने वाले अक्सर आंबेडकर की नहीं मानते

परंपरा की नकलबाजी में शाही ख़र्च– क़र्ज़ लेकर, ज़मीन बेचकर या गिरवी रखकर, प्रोविडेंट फंड लेकर – क्या जरूरी है? इन फिज़ूल ख़र्चों को रोक कर उस रकम को दूल्हा-दुल्हन के भावी भविष्य के लिए, उनके बच्चों को विदेश पढ़ाने के लिए नहीं बचाया जा सकता?

वस्तुतः विवाह की परंपरागत प्रथा ही पैकेज डील है, जिसके मूल में है आडम्बर, पाखंड, दमन-शोषण का पोषण! क्या कोई वैकल्पिक व्यवस्था है? बसपा संस्थापक कांशीराम ने राजस्थान की एक मीटिंग में कहा था, ‘घोड़े पर नहीं बैठने देते तो दूल्हे को गधे पर बैठाकर ले जाओ, कोई भी नहीं रोकेगा. जब आज बौद्ध रीति से शादियों की भरमार है तब भी आप घोड़े से चिपके हुए हो.’ एक अन्य विकल्प है अदालती शादियां.

तो सवाल है कि बाबा साहब को मानोगे, पर क्या बाबा साहेब की नहीं मानोगे? विकल्प आपको चुनना है!

(लेखक दिल्ली यूनिवर्सिटी के हिंदू कॉलेज में इतिहास विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर हैं.)

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