बिहार की राजनीति में जाति अब भी सबसे बड़ा मुद्दा है. चुनावी समीकरण से लेकर नेतृत्व तक, इसका असर हर जगह दिखता है. डिजिटल युग में भी सोशल मीडिया अभियानों और माइक्रो-टार्गेटेड संदेशों के ज़रिये जाति ने अपना दबदबा बनाए रखा है.
डिजिटल युग में नए तरीके के जातीय उपकरण अपना लिए हैं. सोशल मीडिया अभियानों से लेकर माइक्रो-टार्गेटेड चुनावी संदेश तक जाति एक अहम मुद्दा है. राजनीतिक दल विकास के एजेंडे को चाहे जितना भी जोर देकर प्रचार-प्रसार करें, अंततः उन्हें जातिगत पहचान की ही गणित पर लौटना पड़ता है. यही कारण है कि जाति का असर पहले से कहीं अधिक मजबूत और निर्णायक दिखाई देता है.
राजद और जद(यू) जैसी पुरानी पार्टियों से लेकर जन सुराज जैसे नए राजनीतिक दलों तक, किसी भी दल की राजनीति जातीय समीकरण से अलग नहीं हो सकती. 2023 के जातिगत सर्वेक्षण ने यह ज़रूर साफ किया कि किस जाति की संख्या कितनी है, लेकिन इससे जातिगत प्रतिनिधित्व का संतुलन खास नहीं बदला. बड़ी जातियों के परे छोटी और बिखरी जातियों की हिस्सेदारी का सवाल अब भी अधूरा है, कई जातीय समुदाय आज भी राजनीतिक हाशिए पर खड़े हैं. यही वजह है कि 2025 का विधानसभा चुनाव, जो इन सर्वेक्षणों के बाद पहली बार हो रहा है, जिसमें जातिगत समीकरणों की परीक्षा के साथ-साथ नए सवाल भी खड़ा कर रहा है.
दलों के बीच प्रतिस्पर्धा चाहे विकास के नाम पर भले दिख रही हो, पर असल टकराव जाति और उसके साथ जुड़े सम्मान व हिस्सेदारी को लेकर ही है. छोटी और बिखरी जातियों ने राजनीतिक चेतना को बढ़ाया है और अपने प्रतिनिधित्व की तलाश में नए व जटिल राजनीतिक समीकरण खोज रही हैं.
डिजिटल युग में भी जाति का दबदबा
इन जटिल जातिगत सच्चाइयों को सबसे अधिक समझदारी से साधने का प्रयास नीतीश कुमार ने किया है. उन्होंने अपने लंबे कार्यकाल में लगातार ‘इंद्रधनुषी गठबंधन’ का सिद्धांत अपनाया.
नीतीश कुमार ने कुर्मी, कोइरी, अति पिछड़े समूह, महादलित, उच्च जातियां और सबसे बढ़कर महिला मतदाता, सभी को एक साझा मंच पर लाने की कोशिश की और उन्हें लाभार्थी वर्ग के रूप में सशक्त किया और वोटर के रूप में सफलता भी पाई. यही दृष्टि उन्हें बाकी नेताओं से अलग करती है. नीतीश कुमार ने यह स्वीकार किया कि बिहार में महिलाएं राजनीतिक रूप से सचेत हैं और परिवारों में निर्णयकारी प्रभाव रखती हैं, जबकि अन्य नेताओं ने इन वर्गों को वोटर के रूप में नहीं पहचान पाए. इसी समझ से निकलकर आईं उनकी लक्षित योजनाएं जैसे साइकिल योजना, कन्या उत्थान योजना, स्वास्थ्य व शिक्षा में विशेष पहुंच और सबसे विवादास्पद पर सबसे प्रभावकारी शराबबंदी नीति.
हाल ही में विधानसभा चुनाव 2025 से पहले सरकार ने महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए एक नई योजना की शुरुआत की है जिसका नाम ‘मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना’ है, को मंजूरी दी, जो महिलाओं को कारोबार शुरू करने के लिए आर्थिक मदद देगी. इस योजना के तहत राज्य के हर परिवार की एक महिला को पहली किस्त के तौर पर 10,000 रुपए दिए जाएंगे. इन कार्यक्रमों ने न केवल महिलाओं के जीवन में ठोस सुधार करने का काम किया है बल्कि उन्हें एक सशक्त राजनीतिक वर्ग के रूप में खड़ा करने का काम किया है. इससे उनमें आर्थिक स्वालंबन आया है. यही वर्ग नीतीश कुमार का मौन वोटर बना हुआ है, जो लंबे समय से नीतीश कुमार पर अपना भरोसा जता रहा है.
महिला मतदाताओं पर यह विशेष ध्यान नीतीश की राजनीति का सबसे बड़ा प्रयोग साबित हुआ है. पंचायती राज संस्थाओं में 50 प्रतिशत महिला आरक्षण, लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा देने वाले कदम और शराबबंदी ने घरेलू हिंसा और आर्थिक बोझ को कम किया. इन योजनाओं का परिणाम यह हुआ कि गरीब और पिछड़े परिवारों की महिलाएं सीधे राज्य की नीतियों से जुड़ गईं. कई बार उन्होंने अपने घरों के पुरुष सदस्यों से अलग जाकर मतदान किया और नीतीश को उस नेतृत्व के रूप में चुना जो उन्हें गरिमा और सुरक्षा का अहसास दिलाता था. इस तरह धीरे-धीरे ‘महिला-अति पिछड़ा वर्ग’ गठबंधन नीतीश कुमार का स्थायी वोट बैंक बन गया है. जो आज भी नीतीश कुमार की नीतियों का बड़ा लाभार्थी और समर्थक बना हुआ है.
दूसरी ओर, भाजपा ने भी अपनी रणनीति इसी वास्तविकता को ध्यान में रखकर गढ़ी है. उसका फोकस पिछड़े और अति पिछड़े वर्गों को नए विकासवादी आख्यान से जोड़ने पर है. बुनियादी ढांचे की परियोजनाएं, डिजिटल योजनाएँ और केंद्र की कल्याणकारी योजनाएं जातिगत आकांक्षाओं के साथ पेश की जाती हैं, मानो यह साबित करने के लिए कि जाति और विकास एक-दूसरे के पूरक हो सकते हैं. भाजपा की संगठित चुनावी मशीनरी और उसका ऊपरी ढांचा उसे पारंपरिक उच्च जातियों से बाहर भी प्रभाव दिलाता है. हालांकि, महिलाओं को एक सुसंगत जाति–जेंडर रणनीति के रूप में शामिल करने की दृष्टि नीतीश की तुलना में अभी भाजपा में कमज़ोर दिखती है. यह अवश्य है कि भाजपा ने विश्वकर्मा योजना के सहारे अतिपिछड़े समूहों को देश व्यापी स्तर पर लाभार्थी रूप में बनाने का प्रयोग किया है, लेकिन अभी भी यह योजना उतनी सक्षम नहीं है कि अति पिछड़े समूह भाजपा के लंबे समय तक वोटर बन पाएं और उस पर भरोसा कर सकें. अति पिछड़े समूहों की समस्याएं इन नीतियों के इतर हैं जिन्हें अभी भी भाजपा एड्रेस करने में विफल दिखाई प्रतीत होती है.
महिला मतदाता बनीं नीतीश की राजनीति का स्तंभ
मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में नीतीश कुमार की बढ़त इसी संयोजन से आती है. एक ओर जातिगत गठबंधन का संतुलन और दूसरी ओर महिला मतदाताओं को निर्णायक राजनीतिक वर्ग के रूप में साधना. ईमानदारी और प्रशासनिक स्थिरता की उनकी सार्वजनिक छवि विशेष रूप से महिलाओं के बीच गूंजती है, जिससे उनके समर्थन की एक परत और मजबूत हो जाती है. दूसरे दल यहीं कमजोर दिखाई पड़ते हैं, जैसे-जैसे बिहार 2025 के चुनावों की ओर बढ़ रहा है, एक बात साफ है कि सत्ता की चाबी उन्हीं के पास है जो जाति और जेंडर दोनों को समान रूप से समझकर उन्हें अपने साथ जोड़ पाएंगे. जाति अब भी प्रतिनिधित्व और सत्ता तक पहुंच का बड़ा सवाल है, लेकिन महिला मतदाता उस ढांचे के भीतर एक नई ऊर्जा और संतुलन का काम करने लगी हैं. नीतीश के प्रयोगों ने दिखाया है कि महिलाएं जातिगत विभाजनों से ऊपर उठकर मतदान कर सकती हैं और सशक्त लोकतांत्रिक शक्ति बन सकती हैं.
अंततः, बिहार की राजनीति में जाति अब भी निर्णायक है, लेकिन महिला मतदाता ने इस गणित को बदलना शुरू कर दिया है. नीतीश कुमार ने इसे समय रहते समझा और ‘महिला–अति पिछड़ा गठबंधन’ के ज़रिये राजनीति को नई दिशा दी. आने वाले चुनाव इस बात पर तय होंगे कि कौन-सा दल इस नई ताकत को साध पाता है.
नीतीश कुमार ने इस परिवर्तन को समय रहते भांपकर “महिला और अति पिछड़ा” गठबंधन के ज़रिये राजनीतिक समीकरण को नई दिशा दी है. आने वाले वर्षों में राजनीतिक सफलता केवल जातिगत गणित से तय नहीं होगी, बल्कि इस पर निर्भर करेगी कि दल किन हद तक महिलाओं और अति पिछड़े वर्गों की आकांक्षाओं को साध पाते हैं. यही गठबंधन चुनावी नतीजों को पलटेगा और दीर्घकालीन स्थिरता व सामाजिक परिवर्तन का आधार बनेगा.
नीतीश की राजनीति की सबसे बड़ी उपलब्धि यही कही जाएगी कि उन्होंने मंडल-युगीन जातिगत गठबंधनों से आगे जाकर महिलाओं को बिहार की निर्णायक लोकतांत्रिक शक्ति बना दिया. अब क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर के नेताओं की असली परीक्षा यह होगी कि वे इस नई वास्तविकता को स्वीकार कर सकें और उसे अपनी नीतियों व रणनीतियों में जगह दें. जो नेतृत्व इस महिला और अतिपिछड़े समूहों को साधने में सफल होगा, वही आने वाले समय में बिहार की राजनीति की दिशा तय करेगा.
पंकज कुमार जामिया मिल्लिया इस्लामिया, के सोशियोलॉजी डिपार्टमेंट में डॉक्टरेट कर रहे हैं. उनके रिसर्च का टॉपिक है – ग्लोबलाइजेशन और बैकवर्ड क्लास: ईस्टर्न उत्तर प्रदेश में बदलाव. उनकी एकेडमिक इंटरेस्ट रिसर्च मेथडोलॉजी, यूपी-बिहार की सोशल-पॉलिटिकल स्ट्रक्चर, चुनावी और पार्टी पॉलिटिक्स, और सोशल जस्टिस में है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.
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