सेंट्रल आर्म्ड पुलिस फोर्सेज (सीएपीएफ) के काडर के मामले में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के खिलाफ सरकार ने पुनर्विचार याचिका दायर करने का जो फैसला किया है उसने भारत की आंतरिक सुरक्षा के ढांचे की रीढ़ माने जाने वाले 12,000 से ज्यादा काडर अधिकारियों को भीतर से हिलाकर रख दिया है.
जस्टिस अभय एस. ओझा और जस्टिस उज्जल भूयान की पीठ ने सीएपीएफ को एक संगठित सेवा घोषित करते हुए सही निर्देश दिया था कि इस संगठन में महानिरीक्षक (आईजी) तक के सुपरवाइज़री अधिकारियों के पदों पर आईपीएस अधिकारियों की डेपुटेशन पर नियुक्तियों में धीरे-धीरे कमी लाई जाए. यह एक ऐतिहासिक फैसला था. इसने उन अधिकारियों की गरिमा तथा पेशेगत स्वायत्तता बहाल की और केरियर में आगे बढ़ने का चिर-प्रतीक्षित मौका दिया, जो बेहद कठिन परिस्थितियों में काम करते रहे हैं.
जिस सुधार का लंबे समय से इंतजार था उसे लागू करने की जगह सरकार ने बदकिस्मती से उस पर पुनर्विचार करने का फैसला किया. अदालत के फैसले की भावना की उपेक्षा करते हुए बीएसएफ और एसएसबी में आईपीएस अफसरों की नियुक्ति जारी है.
‘पुलिस रिसर्च ऐंड डेवलपमेंट ब्यूरो’ (बीपीआरडी) ने पुलिस संगठनों के बारे में 2022 में जो आंकड़े जारी किए थे उनके अनुसार आइपीएस अफसरों की कुल संख्या 5,055 मंजूर की गई है. राज्यों, केंद्रशासित प्रदेशों (यूटी), सीपीओ और सीएपीएफ में डाइरेक्टर जनरल (डीजी) और स्पेशल डीजी के 151 पद मंजूर किए गए हैं जबकि आईपीएस अफसर मंजूरशुदा संख्या से 34 ज्यादा 165 पदों पर बैठे हैं. एडीशनल डीजी के 352 मंजूरशुदा पदों के बावजूद 454 आईपीएस अफसर इन पदों पर बैठे हैं, 102 ज्यादा पदों पर. आईजी के स्तर पर 816 पद मंजूर किए गए हैं, फिर भी और पदों की मांग जारी है.
आंकड़े तैनाती की विषमता को उजागर करते हैं. सिविल पुलिस और केंद्रीय पुलिस संगठनों में आइपीएस अफसरों को अति प्रतिनिधित्व हासिल है, फिर भी सीएपीएफ में वे शीर्ष पदों पर जमे हुए हैं, जबकि अनुभव, संस्था के बारे में जानकारी और ऑपरेशनों के अनुभव के लिहाज से इस संगठन के काडर अफसर इन पदों के लिए ज्यादा उपयुक्त होते.
वाइसरॉय मॉडल
सीएपीएफ में नेतृत्व के पदों पर आईपीएस अफसरों की तैनाती जारी है, जो औपनिवेशिक क्षेत्रों पर वाइसरॉय के शासन की याद दिलाती है. हालांकि सीएपीएफ एक आधुनिक तथा पेशेवर सुरक्षाबल हैं, लेकिन कुछ नीति निर्माताओं की नजर में ये ऐसे संस्थान हैं जिन्हें शक्तिशाली बनाने की नहीं बल्कि ‘नियंत्रित’ करने की जरूरत है. सीएपीएफ काडर के 12,000 अफसरों में से केवल चार या पांच ऐसे हैं जिन्हें एडीशनल डीजी का पद मिला है, किसी को डीजी या स्पेशल डीजी के पद पर नियुक्त नहीं किया गया है. इसके विपरीत, आइपीएस अफसर राज्यों या यूटी की पुलिस, सीपीओ और सीएपीएफ में डीजी/स्पेशल डीजी के 165 पदों पर विराजमान हैं.
मूलतः सीएपीएफ में एडीशनल डीजी के 66 फीसदी पद आइपीएस अफसरों के लिए तय किए गए थे. इस अनुपात को बार-बार दोहराए जाने वाले मगर इस अविश्वसनीय तर्क के साथ बढ़ाकर 75 फीसदी कर दिया गया कि इससे “बेहतर तालमेल” स्थापित होगा.
आईपीएस अफसरों की तैनाती के लिए सरकार प्रायः “राज्यों के साथ तालमेल” का तर्क देती है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा है कि इस तरह का तालमेल डीआईजी और कमांडेंट के स्तर पर प्रभावी ढंग से स्थापित किया जा सकता है. इसके अलावा, सीएपीएफ अफसर पाकिस्तान, चीन, बांग्लादेश की सीमा के पार के अंतरराष्ट्रीय फोर्सेस से निरंतर और सफलतापूर्वक संबंध बनाते रहे हैं. यह कहना अनुचित होगा कि जो अधिकारी सीमा-पार की कूटनीति संभाल सकते हैं वे देश के अंदर सिविल अफसरों से तालमेल करने में अक्षम होंगे.
अगर समन्वय ही असली चिंता का विषय है, तब पारस्परिक तैनाती का सिद्धांत जरूर लागू किया जाना चाहिए, और सीएपीएफ के अफसरों को भी राज्य पुलिस और सिविल प्रशासन के पदों पर तैनात किया जाना चाहिए. ऐसा न करना भेदभाव माना जाएगा.
सीएपीएफ में नेतृत्व केवल प्रशासनिक कामों तक सीमित नहीं है; रणनीति, ऑपरेशन, और मनोबल निर्माण से संबंधित काम भी होते हैं. यह संस्था के बारे में पुरानी यादों से जुड़ाव, लंबे संबंध, और फील्ड में अपनी विश्वसनीयता बनाने की मांग भी करता है. यह मांग अल्पकालिक तैनाती में पूरी नहीं की जा सकती.
एक और केंद्रीय सुरक्षा संगठन ‘रेलवे प्रोटेक्शन फोर्स’ (आरपीएफ) डीजी स्तर के केवल एक आईपीएस अफसर के साथ कुशलता से काम कर रहा है, जबकि कमांड के दूसरे पदों पर उसके अपने काडर के अफसर बैठे हैं. इसी तरह, इंडियन कोस्ट गार्ड’ अब भारतीय नौसेना से डेपुटेशन पर आए अधिकारी पर निर्भर नहीं है.
जनरल करिअप्पा के समर्थन पर पुनर्विचार
यह स्थिति आजादी के ठीक बाद की उस स्थिति जैसी लगती है जब मेजर जनरल नाथू सिंह राठौड़ ने एक ब्रिटिश अफसर जनरल सर फ्रांसिस राय बुचर को भारतीय सेना का कमांडर-इन-चीफ बनाए रखने के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के फैसले का विरोध किया था. जनरल बुचर 15 जनवरी 1949 तक इस पद पर बने रहे, जब जनरल करिअप्पा ने कमान संभाली. इस तारीख को ‘सेना दिवस’ के रूप में मनाया जाता है क्योंकि इस दिन भारतीय सैन्य नेतृत्व पर विदेशी नियंत्रण समाप्त हुआ था.
आजादी के 78 साल बाद भी सीएपीएफ को उस घड़ी का इंतजार है जब उसे संस्थागत आजादी मिलेगी.
पुनर्विचार याचिका दायर करने का फैसला केवल कानूनी जवाब नहीं है, यह संस्थागत न्याय के साथ धोखा है. इससे सुधारों में बाधा आएगी, व्यवस्थागत पूर्वाग्रह बना रहेगा, और अदालत के निर्देश के पीछे जो भावना है उसका उल्लंघन होगा.
सुप्रीम कोर्ट अब इस स्पष्टीकारण को जोड़ने पर विचार कर सकता है कि उच्च प्रशासनिक ग्रेड (एचएजी) के नीचे के सुपरवाइजरी पदों पर आइपीएस अफसरों की तैनाती को धीरे-धीरे शून्य कर देना चाहिए.
इसके साथ ही सीएपीएफ और सीपीओ में एचएजी और एपेक्स स्केल के पदों पर आईपीएस अफसरों की सरप्लस मौजूदगी की समीक्षा की जाए और उसे तर्कसंगत बनाया जाए.
संगठन के अंदर नेतृत्व का विकास
सीएपीएफ भारत की आंतरिक तथा सीमा सुरक्षा के फौलादी आधार हैं. वे गोलियों, गोलों, बारूदी सुरंगों, और हिंसक भीड़ का सामना करते हैं, सिर्फ कानून-व्यवस्था नहीं संभालते. उन्हें संस्थागत गरिमा और उनमें आंतरिक नेतृत्व के विकास की जरूरत है.
पुनर्विचार याचिका को वापस लिया जाए. सुधारों को शब्दशः और उनकी पूरी भावना के साथ लागू किया जाए. इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि कमान को अपने कब्जे में रखने की औपनिवेशिक मानसिकता को हमेशा के लिए दफन कर दिया जाए.
गजेंद्र सिंह चौधरी 1984 बैच के BSF कैडर ऑफिसर हैं. उन्होंने BSF और ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट (BPR&D) में DIG के तौर पर काम किया है. 2016 में उन्होंने दिल्ली हाई कोर्ट में एक याचिका दाखिल की थी, जिसमें BSF में इंस्पेक्टर जनरल के पद पर IPS अफसरों की नियुक्ति को चुनौती दी गई थी. व्यक्त विचार निजी हैं.
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