मैं कई महीनों से लिख रहा हूं कि किस तरह से सरकार के प्रति मिडिल क्लास की नाराज़गी बढ़ती जा रही है. मध्यवर्ग के पास चुनावी दृष्टि से महत्वपूर्ण होने के लिए संख्या नहीं है, यहां तक कि यह निर्णायक भी नहीं है, लेकिन यह नरेंद्र मोदी का मूल मतदाता वर्ग है. जब सरकार ने मिडिल क्लास से किए गए वादों को पूरा नहीं किया, तब भी इस वर्ग ने दो कार्यकालों तक मजबूती से समर्थन बनाए रखा.
मुझे लगता है कि अब यह स्थिति बदल सकती है.
पिछले कुछ हफ्तों में मैंने महसूस किया है कि यह असंतोष महंगाई और टैक्स के बोझ से आगे बढ़कर कहीं गहरे स्तर तक जा रहा है. अब एक वास्तविक चिंता है कि सरकार भारत की वैश्विक संभावनाओं को साकार करने में विफल हो रही है.
जब एक दशक पहले बीजेपी सत्ता में आई थी, तो शिक्षित भारतीयों के बीच आम धारणा थी कि भारत का समय आ गया है. यह भारतीय सदी होगी. हम दुनिया की महान शक्तियों में शामिल होने के लिए तैयार थे.
न सिर्फ हम एक वैश्विक महाशक्ति बनेंगे, बल्कि एक आर्थिक शक्ति भी बनेंगे. दुनिया भारत में निवेश करने के लिए दौड़ पड़ेगी. विदेशी भारतीय बाजार तक पहुंच पाने के लिए कुछ भी करने को तैयार होंगे. रुपए का मूल्य यूपीए-2 के दौरान जो गिरा था, वह वापस पटरी पर आएगा और उसकी कीमत बढ़ेगी. हालांकि, हर कोई श्री श्री रविशंकर जितना आशावादी नहीं था, जिन्होंने भविष्यवाणी की थी कि रुपया 40 प्रति डॉलर तक पहुंच जाएगा (तब यह 59 रुपये प्रति डॉलर था). फिर भी, हम उम्मीद कर रहे थे कि रुपया स्थिर रहेगा और उसकी कीमत गिरना बंद हो जाएगी.
रविशंकर को अक्सर ‘डबल श्री’ कहा जाता है. लेकिन उनकी भविष्यवाणी के बावजूद, रुपये का मूल्य दोगुना होने के बजाय आधा हो गया. उनका अनुमान था कि रुपया 40 प्रति डॉलर होगा, जबकि आज इसकी कीमत 86-87 रुपये प्रति डॉलर हो गई है.
यह उम्मीद भी थी कि भारतीय पासपोर्ट को अधिक सम्मान मिलेगा. पश्चिमी देश भारतीय यात्रियों का मुस्कुराकर स्वागत करेंगे. इमिग्रेशन अधिकारी गर्मजोशी से पेश आएंगे. अमेरिका भारत को नए विश्व व्यवस्था में अपना पूर्ण और समान भागीदार मानेगा.
लेकिन इन लगभग सभी उम्मीदों पर पानी फिर गया. सिर्फ रुपया ही नहीं गिरा, बल्कि भारतीय पासपोर्ट भी—अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग के अनुसार—पहले की तुलना में कमजोर हो गया है. पश्चिमी देश अब भारतीय यात्रियों का वैसा स्वागत नहीं करते, जैसा एक दशक पहले करते थे. वास्तव में, शेंगेन देशों या अमेरिका के वीज़ा प्राप्त करना 2004 की तुलना में अब अधिक कठिन हो गया है.
यह भी पढ़ें: मिडिल क्लास के करदाताओं की अब कोई बात नहीं कर रहा है, रुपया गिर रहा है, बाज़ार डूब रहे हैं
भारत की दुनिया में कम होती साख
अमेरिका हमें बराबरी का साथी मानेगा, इस पर जो भरोसा मोदी समर्थकों ने डॉनल्ड ट्रंप पर जताया था, वह अब गलत साबित होता दिख रहा है. मोदी सरकार के शुरुआती दिनों में हिंदू सेना जैसी संस्थाएं ट्रंप का जन्मदिन मनाती थीं और केक काटती थीं. लेकिन अब भारत का ट्रंप के दिल में कोई खास स्थान नहीं दिखता. इसी हफ्ते उन्होंने भारतीय टैरिफ को लेकर शिकायत की और उनकी सरकार ने भारत के खिलाफ जवाबी शुल्क लगाने की चेतावनी दी है. वहीं, घरेलू स्तर पर सरकार की लोकप्रियता पर भी असर पड़ सकता है, क्योंकि अमेरिका से भारतीय नागरिकों को भरकर लाने वाले विमान एक के बाद एक हमारे हवाई अड्डों पर उतर रहे हैं.
विदेशी निवेशकों के मामले में भी यही स्थिति है. भारत में विदेशी निवेश अब भी जारी है, लेकिन उतनी मात्रा में नहीं जितनी उम्मीद की गई थी. इसका सबसे स्पष्ट संकेत यह है कि विदेशी निवेशक भारतीय शेयर बाजार से पैसा निकाल रहे हैं, जिससे शेयरों की कीमतों में भारी गिरावट आ रही है. अमेरिका की अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही है, जबकि हमारी अर्थव्यवस्था सुस्त पड़ रही है, ऐसे में विदेशी निवेशकों को वापस लाना और मुश्किल होता जा रहा है. सिर्फ जनवरी 2025 में ही विदेशी निवेशकों ने भारतीय बाजार से 8.3 बिलियन डॉलर निकाल लिए हैं.
लेकिन सबसे बड़ा झटका भारत की घटती वैश्विक स्थिति को लेकर है, खासकर चीन के मुकाबले. हमारी सरकार ने अपने शुरुआती दिनों में चीन के साथ दोस्ती करने की पूरी कोशिश की, लेकिन चीन ने हमारे प्रस्तावों को ठुकरा दिया. उल्टा, उनकी सेना हमारी जमीन में घुस आई. सरकार ने सालों तक सख्त रुख अपनाने की बात कही, लेकिन अब उसने चीन की मजबूत स्थिति को स्वीकार कर लिया है और जल्दबाजी में रिश्ते “सामान्य” करने की कोशिश कर रही है. भले ही यह कोशिश सफल हो, लेकिन भारत को चीन का प्रतिद्वंद्वी बनने की पुरानी स्थिति तक पहुंचने में वक्त लगेगा.
पिछले हफ्ते चीन की कंपनी डीपसीक ने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) में अपनी उपलब्धियों से पूरी दुनिया को हिला दिया. एक समय था जब हम तकनीक में दुनिया के नेता बनने का सपना देखते थे. लेकिन अब चीन इतना आगे निकल चुका है कि वह हमें अपना प्रतिद्वंद्वी भी नहीं मानता. अब प्रतिस्पर्धा केवल अमेरिका और चीन के बीच रह गई है.
मिडिल क्लास के लिए यह निराशाएं आयकर को लेकर पहले से मौजूद गुस्से के साथ और बढ़ जाती हैं. यह चौंकाने वाला तथ्य है कि भारत में सिर्फ 2% लोग आयकर भरते हैं, और वे पूरे देश की लाभदायक कंपनियों से ज्यादा टैक्स देते हैं.
कुछ संकेत हैं कि सरकार मिडिल क्लास को भरोसा दिलाने के लिए कदम उठा सकती है लेकिन कई लोग कहते हैं कि सरकार को उनकी परवाह नहीं है क्योंकि हिंदुत्व ही बीजेपी को सत्ता में बनाए रखने के लिए काफी है.
आप तर्क दे सकते हैं कि कुंभ मेले जैसे भव्य आयोजन भारतीयों को व्यस्त रख सकते हैं. लेकिन आखिरकार, किसी न किसी मोड़ पर लोग ध्यान देंगे कि भारत की आईटी क्षेत्र में पकड़ कमजोर हो रही है. हमारे आईआईटी के इंजीनियर जो दुनिया पर राज कर रहे थे, अब उनकी जगह चीन और अमेरिका ले रहे हैं। और ऐसा लगता है कि हमने अपनी दिशा ही खो दी है.
आईआईटी से अब बड़ी खबरें किसी एआई खोज को लेकर नहीं आतीं. बल्कि, आईआईटी मद्रास के निदेशक गाय के मूत्र के गुणों का गुणगान कर रहे हैं. आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस को भूल जाइए, इन दिनों किसी भी तरह की समझदारी खोजना ही मुश्किल हो गया है.
क्या यह बेहतर हो सकता है?
मुझे यह मानने में संदेह है कि हिंदू इतने सांप्रदायिक हो गए हैं कि सिर्फ मुस्लिम विरोध ही उन्हें हमेशा खुश रख सकता है. अगर ऐसा होता, तो बीजेपी बहुत पहले सत्ता में आ गई होती और कभी चुनाव नहीं हारती, क्योंकि भारत में हिंदू आबादी का भारी बहुमत है.
जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहली बार प्रचंड जीत हासिल की थी, तो वह ट्रंप जैसी सोच के साथ था: “हमें सामाजिक मामलों में जो करना है करने दो और हमारे अमीर दोस्तों को और अमीर बनते देखो. बदले में, हम तुम्हें एक भ्रष्टाचार मुक्त, सुशासित और समृद्ध भारत देंगे, जिसे पूरी दुनिया ईर्ष्या की नजर से देखेगी.”
अब वह वादा बिखर चुका है. जब भी बीजेपी चुनाव जीतती है, तो वह किसी निकट भविष्य में भारतीय महानता के वादे पर नहीं जीतती. बल्कि, यह इसलिए जीतती है क्योंकि उसने जातिगत गठबंधन बनाए हैं और कल्याणकारी योजनाओं के तहत गरीब मतदाताओं के लिए अरबों रुपये की सरकारी मदद दी है.
समस्या यह है कि इस कल्याणकारी एजेंडे का बोझ मिडिल क्लास उठाता है. सरकार उन लाखों भारतीयों से कर वसूलने में विफल रही है, जो भारी मुनाफा कमाते हैं लेकिन टैक्स सिस्टम के बाहर रहते हैं. इसके बजाय, उसने मिडिल क्लास करदाताओं पर और ज्यादा बोझ डाल दिया है. इन नीतियों के कारण ही आज अर्थव्यवस्था इस स्थिति में पहुंची है. शेयर बाजार में जो भारी गिरावट आई है, वह कम से कम आंशिक रूप से रोकी जा सकती थी अगर वित्त मंत्री ने पिछले बजट में पूंजीगत लाभ कर (कैपिटल गेंस टैक्स) के नए नियमों पर उठे विरोध को गंभीरता से लिया होता.
क्या हालात बेहतर हो सकते हैं? अल्पकालिक रूप से, हमें कुछ घोषणाएं, दिखावटी योजनाएं और फोटो-ऑप्स देखने को मिलेंगे. प्रधानमंत्री अगले महीने वाशिंगटन जाएंगे, क्योंकि ट्रंप ने बुलाया है, और भारतीय मीडिया इस यात्रा को बड़ी उपलब्धि के रूप में पेश करेगा. भारत में कुछ बड़े विदेशी निवेशों की घोषणा होगी. बजट शेयर बाजार को पुनर्जीवित करने और मिडिल क्लास को कर राहत देने की कोशिश करेगा.
लेकिन क्या यह सब पर्याप्त होगा? क्या हम वास्तव में चीन के विकल्प के रूप में उभर सकते हैं और क्या हम आने वाले सालों में दुनिया की एक बड़ी ताकत बन सकते हैं?
मुमकिन है. लेकिन अगर हम एक ऐसे देश बने रहे जो तकनीक की अनदेखी कर गौमूत्र को प्राथमिकता देता हो, जो अपने ही नागरिकों को निशाना बनाता हो, जो अर्थव्यवस्था को कुशलता से न चला पाए, और जो सत्ता में बने रहने के लिए सिर्फ कल्याणकारी योजनाओं पर निर्भर रहे—तो भारत के लिए बहुत देर हो जाएगी. फिर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में हमें वह स्थान पाना मुश्किल होगा, जिसका हकदार भारत वास्तव में है.
वीर सांघवी एक प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार हैं और टॉक शो होस्ट हैं. उनका एक्स हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: दिल्ली में 5 फरवरी को मतदान, 8 को होगी मतगणना, नतीजे राष्ट्रीय राजनीति को कैसे करेंगे प्रभावित