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Sunday, 22 December, 2024
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क्या नया नाम प्रासंगिकता खो रहे BRICS में फिर से जान डाल सकता है

खतरा यह है कि ‘ब्रिक्स’ चीनी कूटनीति का वाहक न बन जाए. चीन के साथ तनातनी के मद्देनजर भारत के लिए यह पेचीदा मसला हो सकता है

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किसी अस्पष्ट विचार को एक अच्छे सूत्र में बदल देने से अच्छी बात कुछ हो नहीं सकती. ऐसा ही कुछ ‘ब्रिक्स’ के साथ हुआ है. यह नाम गोल्डमैन सैक्स के अर्थशास्त्रियों ने इस सदी के अंत में दिया था. मूल प्रस्ताव यह था कि ब्राज़ील, रूस, भारत, और चीन अपने संयुक्त आकार के बूते इस सदी के मध्य तक जी-6 वाले विकसित देशों की अर्थव्यवस्था से आगे निकल जाएंगे.

एक दशक तो यह विचार अपने बूते टिका रहा, लेकिन इसके बाद बिखर गया. 2001 में चीन दुनिया की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था थी, तब भारत ‘टॉप 10’ में भी नहीं पहुंचा था लेकिन दोनों आज ‘टॉप 5’ में हैं. लेकिन ब्राज़ील और रूस पिछड़ गए; रूस तो अब 10 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की सूची में भी नहीं है. भारत प्रति व्यक्ति आय के आंकड़े के मामले में इन तीनों से काफी नीचे रहने के कारण अलग-थलग है.

सतही तौर पर दूसरी समानताएं थीं.

2001 में चुनिंदा चार देश दुनिया के सबसे ज्यादा आबादी वाले छह देशों में और भौगोलिक आकार में सबसे बड़े सात देशों में शामिल थे. इसलिए, भूगोल और आबादी के तर्कों ने उक्त सूत्र को पूरक वैधता प्रदान की.

लेकिन इसके बाद से पाकिस्तान और नाइजीरिया ने आबादी के आकार के लिहाज से रूस और ब्राज़ील को पीछे छोड़ दिया है. इसलिए, आर्थिक आधार पर समूह के गठन का तरीका तब खारिज हो गया जब भारतीय अर्थव्यवस्था की आकार के 10वें हिस्से के बराबर के दक्षिण अफ्रीका को ‘ब्रिक्स’ का पांचवां सदस्य बना लिया गया.

लेकिन एक अच्छे सूत्र को मरने नहीं दिया जा सकता इसलिए ‘ब्रिक्स’ की शिखर बैठकें नियमित की जा रही हैं. अगली बैठक अगले सप्ताह ही होने वाली है.

इस तरह की बैठकों के एजेंडे तो होने ही चाहिए, जिससे एक के बाद एक अव्यावहारिक प्रस्ताव सामने आते रहें. कई प्रस्तावों में से केवल ‘ब्रिक्स बैंक’ पर ही अमल हो पाया है. लेकिन यह बैंक अंतरराष्ट्रीय विकास सहायता के मामले में शायद ही कोई फर्क ला पाया है, हालांकि ‘ब्रिक्स’ से बाहर के वेनेजुएला जैसे कुछ देशों को इससे जुड़ने की अनुमति दी गई है.

दशकों पहले समुद्र के नीचे से ‘ब्रिक्स’ केबल बिछाने के प्रस्ताव पर चर्चा हुई थी ताकि अमेरिकी टैपिंग से मुक्त एक डेटा पाइप तैयार हो. इस पर प्रगति धीमी ही है. जो भी हो, ऐसे केबल से चीन बड़ी आसानी से डेटा टैपिंग कर सकता है.
डॉलर का मुक़ाबला करने के लिए नई मुद्रा व्यवस्था बनाने का प्रस्ताव किया गया था लेकिन भारत चीन के आर्थिक मामलों से जुड़ने के किसी प्रस्ताव पर शायद ही खुश होगा. डॉलर को खारिज करके युआन को विस्तार देने से क्या हासिल होने वाला है?

इस बीच यह विचार आगे बढ़ा है कि अब – बिना किसी इंटरनल लॉजिक के – ‘ब्रिक्स’ पश्चिमी देशों के वर्चस्व वाली वैश्विक व्यवस्था के विकल्प के रूप में उभर सकता है. कम-से-कम 40 विकासशील देशों ने इसमें शामिल होने में दिलचस्पी दिखाई है.

लेकिन प्रमुख विकासशील अर्थव्यवस्थाओं वाले जी-15 समूह के मुक़ाबले इस विचार के सफल होने की संभावना कम है. ऐसे ही उद्देश्यों वाला जी-15 करीब 25 साल तक किसी तरह अस्तित्व में रहा और एक दशक पहले निष्क्रिय हो गया.
‘ब्रिक्स’ को अपनी जगह बनाने में मुश्किल होगी क्योंकि चीन और रूस को किसी भी अर्थपूर्ण नजरिए से विकासशील अर्थव्यवस्था नहीं कहा जा सकता. वे बस पश्चिम विरोधी हैं.

इस लिहाज से खतरा यह है कि ‘ब्रिक्स’ चीनी कूटनीति का वाहक न बन जाए. इसके क्षेत्र में चीन के जो साथियों में उत्तरी कोरिया, कंबोडिया और शायद म्यांमार ही हैं, इसलिए उसे अपना कूटनीतिक आधार फैलाने का लाभ मिल सकता है.
जाहिर है, चीन इसीलिए ‘ब्रिक्स’ के सदस्यों की संख्या बढ़ाने के दबाव बना रहा है. रूस के साथ बढ़ती नजदीकी ने उसे अफ्रीका में अपना दबदबा बनाने में मदद की है और खाड़ी में हाल में अपने पैर मजबूती से रखने के बाद वह बड़े आकार वाले ‘ब्रिक्स’ का इस्तेमाल पश्चिम का वर्चस्व तोड़ने के लिए कर सकता है. दरअसल, ‘ब्रिक्स’ ने चीन के वर्चस्व वाले दूसरे गुट ‘शंघाई सहयोग संगठन’ से वार्ता शुरू भी कर दी है.

चीन के साथ तनातनी, चीन से आयात और निवेश पर रोक लगाने और चीनी टेक्नॉलजी के लिए बाजार के दरवाजे बंद करने के भारत के फ़ैसलों के मद्देनजर भारत के लिए यह पेचीदा मसला हो सकता है. इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन समेत विकास से जुड़े कई मसलों पर भारत का रुख विकसित देशों के रुख के विपरीत है लेकिन रक्षा सामान, टेक्नॉलजी के प्रवाह, लोगों की आवाजाही आदि मसलों पर वह यूरोप और अमेरिका से ज्यादा जुड़ रहा है. चीन और रूस के विपरीत भारत ने अधिक खुली राजनीतिक व्यवस्था को चुना है.

फिर भी, चूंकि इंडोनेशिया, सऊदी अरब, यूएई जैसे देश ‘ब्रिक्स’ की सदस्यता लेना चाहते हैं, भारत के लिए उन्हें नाराज किए बिना रोक पाना मुश्किल होगा. इसलिए भारत चाहता है कि नयी सदस्यता की स्पष्ट शर्तें तय की जाएं. लेकिन सवाल यह है कि जो पहले से सदस्य हैं क्या वे किसी सार्थक शर्त को पूरा करते हैं?

(बिज़नेस स्टैंडर्ड से स्पेशल अरेंजमेंट द्वारा)

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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