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Saturday, 2 November, 2024
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हिंदुत्व ने अल्पसंख्यकों की राजनीति का एक नया मुहावरा गढ़ लिया है

हिंदुओं को शक्तिहीन दिखाने का सचेत प्रयास किया जा रहा है.ऐसा लगता है कि भारतीय जनता पार्टी को ‘अल्पसंख्यक’ शब्द से बेहद लगाव है.

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ऐसा लगता है कि भारतीय जनता पार्टी को ‘अल्पसंख्यक’ शब्द से बेहद लगाव है.

‘सबका साथ सबका विकास’ घोषित मंत्र होने के बावजूद पिछले चार वर्षों में बहुसंख्य-अल्पसंख्यक तंत्र ही समुदायों और समूहों को परखने के एकमात्र पैमाने के रूप में स्थापित किया गया है.

पारसियों को ‘आदर्श अल्पसंख्यक’ बताया गया, महिला वैज्ञानिकों को देश के ‘सबसे बड़े अल्पसंख्यक’ के रूप में चिन्हित किया गया, नागरिकता कानून में बदलाव के लिए कतिपय दक्षिण एशियाई देशों के गैरमुस्लिम धार्मिक समूहों की पहचान ‘शोषित अल्पसंख्यकों’ के रूप में की गई.

दिलचस्प बात यह है कि नए और सुपात्र अल्पसंख्यकों की खोज का यह मुश्किल काम हिंदुत्व की विचारधारा से आया है – जो अल्पसंख्यक की संवैधानिक व्याख्या में खुद को शामिल नहीं कर सकती.

क्या इसका ये मतलब है कि हिंदुत्व ने अल्पसंख्यकों की राजनीति का एक नया मुहावरा गढ़ लिया है?

या, यह हिंदू राष्ट्र की परियोजना के आंतरिक विरोधाभाषों को छुपाने का एक प्रयास है?

हिंदू भी अल्पसंख्यक हैं!

भाजपा नेता और वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय ने 2017 में सुप्रीम कोर्ट दायर एक जनहित याचिका में मांग की थी कि हिंदुओं को लक्षद्वीप, मिज़ोरम, नागालैंड, मेघालय, जम्मू कश्मीर, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और पंजाब में अल्पसंख्यक घोषित किया जाए.

यह दलील दी गई कि हिंदुओं के अल्पसंख्यक अधिकार ‘अवैध और मनमाने तरीके से बहुसंख्यक आबादी को दिए जा रहे हैं’ क्योंकि ना तो केंद्र सरकार ने और ना ही राज्य सरकारों ने इन राज्यों में हिंदुओं को ‘अल्पसंख्यक’ घोषित किया है.

जनहित याचिका में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग कानून (1992) के अनुरूप पांच धार्मिक समुदायों को ‘राष्ट्रीय अल्पसंख्यक’ घोषित करने वाली केंद्र सरकार की अधिसूचना को भी चुनौती दी गई है.


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याचिका में उक्त अधिसूचना को निरस्त करने की मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न फैसलों का उल्लेख किया गया है कि अल्पसंख्यक के तौर पर किसी समुदाय की पहचान राज्य स्तर पर ही की जा सकती है.

अल्पसंख्यक दर्ज़े की परिभाषा संबंधी कानूनी खामियों को ही ‘हिंदुओं को हाशिये पर डाले जाने’ के विचार को सही ठहराने के लिए इस्तेमाल किया गया है.

उदाहरण के लिए, याचिका में हिंदू मानवाधिकार रिपोर्ट 2017 का उल्लेख किया गया कि वोट बैंक की राजनीति के कारण भारत में व्यवस्थित तरीके से हिंदुओं को हाशिये पर डाला जा रहा है.

इस दलील पर ज़ोर देने के लिए याचिका में कहा गया. संख्या बल में बहुसंख्य समुदाय का भी अल्पसंख्यकों वाला हाल हो सकता है जैसा कि दक्षिण अफ़्रीका के रंगभेदी शासन में अश्वेतों का था. किसी राष्ट्र में संपूर्णता में बहुसंख्यक के रूप में मौजूद एक समुदाय उस राष्ट्र के किसी इलाक़े में गैर-प्रभुत्व वाली स्थिति में भी हो सकता है. (पृ. 92)

प्रभावशाली ‘धर्मनिरपेक्ष यथार्थता’ ऐसे विचारों की राजनीतिक गहराई में नहीं जाती. हमें याद रखना होगा कि हिंदुत्व प्रोजेक्ट की दिलचस्पी सिर्फ संख्याओं के खेल में ही नहीं है.

इसके विपरीत, सोची-समझी रणनीति के तहत हिंदुओं की दुर्बलता की परिकल्पना की जा रही है ताकि बहुसंख्यक होने के बावजूद हिंदुओं के निश्चित रूप से हाशिये पर होने का प्रभावपूर्ण दावा किया जा सके.

हिंदुओं के हाशिये पर होने से संबद्ध तीन पहलू

हिंदुओं के हाशिये पर होने का विचार एक बेहद सांप्रदायिक राजनीतिक तंत्र से निकला है, जो कि पिछले कुछ वर्षों, ख़ास कर 1980 के बाद के काल में विकसित हुआ है.

कथित रूप से हाशिये पर होने की इस दलील के तीन पहलू हैं जो कि हिंदुत्व समूहों द्वारा सार्वजनिक विमर्श में स्वीकार्यता के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं.

पहला, भारत के हिंदुओं को एक समरूप समुदाय के तौर पर देखा जाता है, जिनका एक सुपरिभाषित धार्मिक दर्ज़ा और एक अनूठी एवं अलग संस्कृति है.

हिंदुओं की अनेक देवी-देवताओं में आस्था को उन्हें एकमात्र ईश्वर को मानने वालों से अलग दिखाने वाली विशेषता के रूप में पेश की जाती है.


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इसके तहत हिंदुओं के सांस्कृतिक अधिकारों के उल्लंघन का दो स्तरों पर उल्लेख होता है. यह दावा किया जाता है कि हिंदुओं के धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए कोई प्रावधान नहीं है, इसलिए राष्ट्रीय स्तर पर संख्यात्मक रूप से बहुसंख्यक होने के बाद भी सांस्कृतिक रूप से वे अलग-थलग और शक्तिहीन हैं.

दूसरी तरफ, कतिपय धार्मिक समुदायों को राष्ट्रीय अल्पसंख्यक घोषित किया जाना राज्य स्तर पर हिंदू हितों के खिलाफ़ जाता है.

दूसरा पहलू है, हिंदुओं के हाशिये पर होने के पक्ष में मात्रात्मक आंकड़ों और सबूतों को पेश किया जाना.

हिंदू मानवाधिकार रिपोर्ट 2017 को, जिसे अश्विनी उपाध्याय ने अपनी जनहित याचिका में जमकर इस्तेमाल किया है, इस राजनीतिक रणनीति के उदाहरण के तौर पर लिया जा सकता है. अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों द्वारा प्रकाशित दस्तावेज़ों की तर्ज़ पर तैयार इस रिपोर्ट में भारत में हिंदुओं के मानवाधिकारों के उल्लंघन की घटनाओं को भी रिकॉर्ड किया गया है.

उल्लेखनीय है कि इसमें एससी/एसटी समुदायों के खिलाफ़ अत्याचार को भी हिंदुओं के खिलाफ़ अपराध के रूप में दर्ज़ किया गया है!

तीसरा पहलू है, हिंदुत्व समूहों का हिंदुओं को हाशिये पर डाले जाने की दलील को सही ठहराने के लिए, ख़ास कर सरकार की दखल को लेकर, दो काल्पनिक राजनीतिक दायरे निर्मित करना.

आंतरिक दायरे को ‘हिंदू आस्था और संस्कृति’ के क्षेत्र के रूप में परिभाषित किया जाता है, जिसमें दखल देने का सरकार को कोई अधिकार नहीं है. बाबरी मस्जिद और सबरीमाला के मुद्दों पर हिंदुत्व समूहों द्वारा अख़्तियार रुख को इसके प्रासंगिक उदाहरणों के रूप में देखा जा सकता है.

इस बात को ज़ोरदार ढंग से सामने रखा जाता है कि धर्म का आंतरिक पहलू होने के कारण हिंदू आस्था धर्मनिरपेक्ष कानूनों की परिधि से बाहर है. इसके अनुसार, चूंकि सरकार अल्पसंख्यकों के धार्मिक कानूनों में दखल नहीं देती है, इसलिए यह मांग करना वाज़िब है कि हिंदू बहुसंख्यकों की आस्था को भी पर्याप्त सम्मान दिया जाए.

जबकि, बाह्य राजनीतिक दायरे के संबंध में ये बात लागू नहीं होती, जहां हिंदुत्व खुलकर विधिक-संवैधानिक विमर्श की बात करता है.

हिंदुओं को अल्पसंख्यक दर्ज़ा देने की मांग करने वाली जनहित याचिका इस बाह्य-राजनीतिक दायरे को प्रतिबिंबित करती है, जिसमें शासन से निर्णायक कदम उठाने की मांग की जाती है.

विगत में मराठों और जाटों को जाति आधारित आरक्षण दिए जाने की मांग को भाजपा का समर्थन भी हिंदुओं को हाशिये पर डाले जाने के तर्क के तहत ही था.

हिंदुओं को हाशिये पर डाले जाने की दलील के इस तरह रणनीतिक इस्तेमाल से हिंदुत्व समूहों को अपनी राजनीति के इस बुनियादी विरोधाभास से बचने में मदद मिलती है कि काल्पनिक हिंदू गौरव के आक्रामक और हिंसक एजेंडे को छोड़े बिना हाशिये पर पड़े समुदाय का दावा कैसे किया जाए.

विश्व हिंदू परिषद का नारा, गर्व से कहो हम हिंदू हैं, इस दुविधा को भलीभांति दर्शाता है.

(हिलाल अहमद सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज़ में राजनीतिक इस्लाम के विशेषज्ञ और एसोसिएट प्रोफेसर हैं.)

(दिप्रिंट भारत में अल्पसंख्यकों पर हिलाल अहमद के लेखों की तीन सिरीज प्रकाशित कर रहा है. ‘सरकारी मुस्लिम’, ‘माइनॉरिटी रिपोर्ट’ और ‘लाइन ऑफ़ लॉ’ नामक इन श्रृंखलाओं में देश में मुसलमानों की राजनीतिक यात्रा का आकलन किया जाएगा. यह माइनॉरिटी रिपोर्ट सिरीज के तहत पांचवां लेख है.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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