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Sunday, 17 November, 2024
होममत-विमतसीएए में अछूतों को प्राथमिकता से पनाह मिले, पड़ोसी देशों में धार्मिक उत्पीड़न की बात क्यों गलत है

सीएए में अछूतों को प्राथमिकता से पनाह मिले, पड़ोसी देशों में धार्मिक उत्पीड़न की बात क्यों गलत है

कानून में ये स्पष्ट किया जाना चाहिए कि जाति व्यवस्था से उत्पीड़ितों को भारत में विशेष नागरिकता के प्रावधान होंगे. उन्हें भारत के एससी-एसटी एक्ट से लेकर आरक्षण समेत सभी नागरिक सुविधाएं दी जाएंगी.

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नागरिकता संशोधन कानून और नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस (एनआरसी) पर विरोध और समर्थन की दलीलों के बीच उपमहाद्वीप की ‘आम सामाजिक बीमारी’ को भी संबोधित किया जाना चाहिए, अन्यथा ये बेमानी साबित होंगे और उत्पीड़ित समुदाय के प्रति भारत की संवेदनशीलता महज दिखावा हो जाएगी. ये बीमारी है, पूरे उपमहाद्वीप में घृणित जाति व्यवस्था.

भारत, पाकिस्तान, बंग्लादेश और नेपाल इस मामले में एक ही जैसे कलंक को ढो रहे हैं और भारत इस ‘कलंक’ का केंद्र है. इस रोशनी में परखा जाए तो जिन देशों का उल्लेख सीएए में किया गया है, वहां गैर मुस्लिम समुदायों का धार्मिक उत्पीड़न अफगानिस्तान में ही माना जा सकता है, बाकी दोनों देशों में धार्मिक नहीं, बल्कि जातिवादी उत्पीड़न है.

पहले बात करते हैं सीएए यानी सिटिजनशिप अमेंडमेंट एक्ट की. अफगानिस्तान फिलहाल इसमें बड़ा मुद्दा ही नहीं बनता है. अफगानिस्तान में हिंदू, सिख, बौद्ध आबादी पिछले तीन दशकों में 99 प्रतिशत तक दूसरे देशों में पलायन कर चुकी है. ऐसा तालिबान शासन की वजह से हुआ, जो पुरातनपंथी या कहें ‘जंगली किस्म’ के विचारों से ग्रसित रहे हैं. जिन्होंने कट्टर इस्लामिक धर्मांधता के चलते न सिर्फ आठ में से सात गुरुद्वारों को नष्ट कर दिया, बल्कि ऐतिहासिक बौद्ध प्रतिमाओं को राकेट लांचरों से ध्वस्त कर दिया.

हिंदू समुदाय भी इस आतंक का शिकार हुआ और सवा दो लाख की उनकी आबादी आज दो हजार भी नहीं बची है. इन पीड़ितों के लिए भारत आने के लिए किसी नए नियम-कानून की जरूरत भी नहीं है. हकीकत ये है, यहां की प्रमुख प्रताड़ित जाति ‘हाजरा’ है, जिसकी आबादी नौ फीसद है और शिया मुस्लिम हैं.

बिल्कुल यही स्थिति पाकिस्तान और बंग्लादेश की नहीं है. यहां जिनको धार्मिक अल्पसंख्यक कहा जाता है, उनमें प्रमुख तौर पर दलित हैं. वे दलित, जो धार्मिक उत्पीड़न के कारण जितना उत्पीड़ित हैं, उससे कहीं ज्यादा दलित होने से पीड़ित हैं. उन पर वहां मौजूद ‘ऊंची जाति’ के समृद्ध हिंदुओं का बर्ताव भी उतना ही क्रूर है, जितना कि पाकिस्तानी मुस्लिम जमींदारों और रईसों का.

असल में ऊंची जाति के हिंदुओं के कारण या फिर उनके सहयोग से इन अछूत दलितों को वहां सम्मान मिलने में बाधाएं बहुत ज्यादा हैं. यही हाल दलितों का बंग्लादेश में है. ऐसे में उनका धार्मिक उत्पीड़न होने का हवाला देना काफी नहीं है. इससे पहले भी पाकिस्तान और बंग्लादेश से जिन उत्पीड़ित कथित हिंदुओं ने भारत में पनाह ली, उनमें ऊंची जातियों के लिए ये मुफीद रहा, लेकिन वही सम्मान दलितों को नहीं मिला. मिलता भी कैसे? भारत में तो जाति व्यवस्था संस्थाबद्ध है, जिसकी जड़ें यहां के बहुसंख्यक धार्मिक विचारों का मूल हिस्सा हैं.

इस मामले को इंटरनेशनल दलित सॉलिडैरिरी नेटवर्क ने संयुक्त राष्ट्र में भी रखा है. यूएन में इस भेदभाव को बताने वाले पाकिस्तान के प्रभुलाल सत्यानी ने हकीकत को अपनी पुस्तक ‘हमें भी जीने दो: पाकिस्तान में अछूतों का सूरत-ए-हाल’ में उकेरा है. उर्दू में प्रकाशित इस पुस्तक को लाहौर स्थित एएसआर रिसोर्स सेंटर ने 2005 में छापा.


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इस पुस्तक की समीक्षा में योगिंदर सिकंद कहते हैं, ‘हिंदू धर्म का कुचक्र जातिवाद भारतीय समाज में इतनी गहराई तक धंसा है कि समतावादी धर्म के अनुयायी तक इससे नहीं बच सके. पड़ोसी पाकिस्तान, जहां 95 फीसदी से ज्यादा मुसलमान हैं, वहां इसकी कठोरता से मौजूदगी जाति व्यवस्था के कैंसर के दायरे को बताती है’.

पाकिस्तान के हिंदू सामाजिक कार्यकर्ता सत्यानी अपने देश के दलितों के बीच काम करते हैं. वे कहते हैं, ‘पाकिस्तान की 30 लाख हिंदू आबादी में 75 प्रतिशत से ज्यादा दलित हैं, जिनमें मेघवाल, ओध, वाल्मीकि, कोहली, भील वगैरह हैं. ये जातियां आमतौर पर दक्षिणी पंजाब और सिंध में हैं. इनकी हालत भारत के दलितों से बिल्कुल भी अलग नहीं है’.

सत्यानी कहते हैं, ‘पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों में दलित ही सबसे ज्यादा पीड़ित हैं. इसकी वजह ये है कि भारत विभाजन के बाद वहां प्रमुखता से दलित ही रह गए. उच्च जाति के समृद्ध हिंदुओं का भारत आना बाद में भी जारी रहा. 1965 और 71 की भारत-पाक जंग के बाद ज्यादा पलायन हुआ. फिर 1992 में अयोध्या विवाद के बाद भारत में हिंदू चरमपंथियों ने जो भारत में मुसलमानों के साथ किया, उससे पाकिस्तानी हिंदुओं में असुरक्षा की भावना बढ़ गई. उस समय भारत पलायन करने वालों में अधिकांश उच्च जाति के हिंदू थे. पैसे और संसाधनों की कमी और सरकारी सहयोग की पहुंच न होने से दलितों के लिए ये विकल्प नहीं था. भारत-पाकिस्तान विवाद या हिंदू-मुस्लिम संघर्ष उनके लिए उतना अहम नहीं है, वे अपने मानव होने के वजूद को तरस रहे हैं. ये विवाद और संघर्ष उच्च जाति के हिंदुओं के लिए मायने रखते हैं.’

नर्क जैसी जिंदगी जी रहे पाकिस्तान और बंग्लादेश के दलित

सत्यानी की पुस्तक बताती है, ज्यादातर पाकिस्तानी दलित भूमिहीन खेतिहर मजदूर और सफाई कर्मचारी के रूप में काम करते हैं. ग्रामीण क्षेत्रों में उनकी झोपड़ियां गांव के बाहर हैं, जहां बुनियादी सुविधाएं तक नहीं हैं. दलितों की बड़ी संख्या भी खानाबदोश सी हालत में है, जो मैनुअल काम की तलाश में गांव-गांव जाती है. कई दलित जमींदारों की भूमि में बनवाई अस्थायी झुग्गी में रहते हैं, जिनके लिए वे काम करते हैं और कभी भी उन्हें निकाला जा सकता है.

पावरफुल ऊंची जाति के हिंदू और मुस्लिम इस स्थिति का फायदा उठाकर बेगारी कराते हैं, तमाम दलित बंधुआ मजदूरों के रूप में दयनीय हालत को भोग रहे हैं. इसके बावजूद वे सबके कर्जदार हैं. वे विरोध करते हैं तो उनके खिलाफ झूठे मामले दर्ज किए जाते हैं और पुलिस उनकी सुरक्षा के लिए कुछ भी नहीं करती.

स्थानीय प्रशासनिक अधिकारी नियमित रूप से उन्हें परेशान करते हैं और उनके मवेशियों व अन्य सामानों को जबरन छीन लेते हैं. ग्रामीण सिंध में भू-माफिया अक्सर उस ज़मीन को जबरन हड़प लेते हैं जिस पर दलित अपनी झोपड़ियां बनाकर रह रहे हों.

ज्यादातर जगहों पर दलितों का अपना कोई मंदिर नहीं है. उनके पास सिर्फ वे ही सामूहिक जगहें हैं, जहां वे अपने मृतकों को जला सकते हैं, इनमें से कई पर अवैध रूप से कब्जा है. कमोबेश यही हाल बंग्लादेश में भी है. यहां की रिपोर्ट भी संयुक्त राष्ट्र में वहां की एक संस्था ने पेश की है.

नागरिकता संशोधन एक्ट में संशोधन की जरूरत

इस ग्राउंड रिपोर्ट के आधार पर भारत सरकार को अगर नागरिकता संशोधन अधिनियम लागू करना है तो पाकिस्तान के अछूतों को प्राथमिकता से पनाह मिलनी चाहिए. ये स्पष्ट किया जाना चाहिए कि जाति व्यवस्था से उत्पीड़ितों को भारत में विशेष नागरिकता के प्रावधान किए जाएंगे. उन्हें भारत के एससी-एसटी एक्ट से लेकर आरक्षण समेत सभी नागरिक सुविधाएं दी जाएंगी. ये भारत में पैदा हुई वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था का पश्चाताप भी होगा.

पड़ोसी देश में दलित उत्पीड़न पर यूएन में हो पैरवी

भारत सरकार को पाकिस्तान और बंग्लादेश में हिंदू धर्म का हिस्सा माने जाने वाले अछूत दलित जातियों की मुक्ति के लिए संयुक्त राष्ट्र में भी पैरवी करनी चाहिए. लेकिन ये नैतिक बल भारत सरकार के पास तभी हो सकेगा, जब भारत में भी दलित समुदाय के साथ मानवीय व्यवहार और नागरिकता के मायने पर खरा उतरे. इसको लेकर भारत सरकार की नाकाम कोशिशें एनसीआरबी के आंकड़ों से पता चलती हैं. बीते वर्षों में दलित उत्पीड़न की कई क्रूर वारदातों से देश दुनिया के सामने शर्मसार हुआ.

सवाल एनआरसी का

अब बात आती है एनआरसी की जिसको लेकर गृहमंत्री अपने बयानों में कह चुके हैं. हालांकि प्रधानमंत्री ने इस विषय पर रामलीला मैदान की रैली में ‘अफवाह’ जैसी बात कही. वैसे तो प्रधानमंत्री के बयान को सच मानने पर बात खत्म हो जाती है, लेकिन गुंजाइश बतौर सच्चाई को समझा ही जाना चाहिए.

सरकार 14 करोड़ से ज्यादा भूमिहीनों, खानाबदोश जिंदगी गुजार रहे करोड़ों लोगों के बारे में सोचकर ही ये कदम उठाए, तो शायद एक हद तक अवैध प्रवासियों की निशानदेही कर सकती है. इस आबादी में भी सबसे ज्यादा भारत के एससी-एसटी समुदाय ही हैं. जिनकी देश की नागरिकता तो दूर, देश के अंदर दूसरे राज्यों तक में अनागरिकों जैसा व्यवहार होता है.


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एक तरीका ये भी है कि सभी ग्राम पंचायतों, वार्ड कमेटियों से हलफनामा ले, कि उनके यहां कोई अवैध प्रवासी नहीं है. कागजात बनवाने, दुरुस्त कराने के लिए ग्राम या वार्ड स्तर पर काम करने वाले शिक्षकों, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, एएनएम, लेखपाल की कमेटी बनाई जाए, जो घर-घर जाकर पड़ताल करे.

कागज न होने पर भी स्थानीय लोगों से जानकारी के आधार पर ये कमेटी तय करे कि कौन नागरिक है या नहीं. हर नागरिक के मामले में कमेटी के सभी सदस्यों की पूर्ण सहमति होने तक किसी को अवैध प्रवासी न माना जाए. पुलिस से एनओसी या विधायक का दखल प्रतिबंधित किया जाना चाहिए. ग्राम पंचायत या वार्ड कमेटी अंतिम मुहर लगाने को अधिकृत हो. इस प्रक्रिया में आमजन को कतारें लगाकर नागरिक होने का सबूत देने का दबाव बेतुका और नागरिकों का अपमान है.

(लेखकस्वतंत्र पत्रकार हैं. यह उनका निजी विचार है.)

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