मीडिया की सुर्खियां या सार्वजनिक बहसों में यह भले जाहिर न हो रहा हो, लेकिन आज और अगले दशक के लिए भारत में स्वास्थ्य ही सबसे बड़ी नीतिगत प्राथमिकता बन चुकी है. तत्काल तो बेशक यही जरूरी है कि कोरोना महामारी पर एक साल के भीतर काबू पाया जाए. दीर्घकालिक चुनौती एक ऐसी स्वास्थ्य सेवा और सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था तैयार करने की है, जो हमारे भावी विकास और आर्थिक वृद्धि का आधार बने.
लोगों की सेहत की बेहतरी के लिए सार्वजनिक नीतियां बनाना तो जरूरी है ही, महामारी के बाद की दुनिया में स्वास्थ्य पर निवेश इसलिए भी जरूरी होगा ताकि भारतीय अर्थव्यवस्था में जान जल्दी वापस लौटे और आर्थिक वृद्धि के लिए एक नया इंजन तैयार हो जिसकी आज देश को बहुत जरूरत है. कोविड-19 के कारण व्यवस्था पर भारी मार पड़ी है. इसके बावजूद भारतीय स्वास्थ्यसेवा सेक्टर में वह क्षमता है और उसे वह अवसर मिल रहा है कि वह दुनिया में उत्तम, सस्ती स्वास्थ्यसेवा का केंद्र बन सके. यह संकट भारत की स्वास्थ्य नीति की विस्तृत समीक्षा करने और पूरी तरह बेहतर व्यवस्था की नींव तैयार करने का अवसर उपलब्ध करा रहा है.
भरोसे का संकट
भारत की स्वास्थ्य नीति पर नई दृष्टि डालने की शुरुआत अगस्त 2019 में फिक्की और अर्न्स्ट ऐंड यंग की विस्तृत रिपोर्ट से की जा सकती है. इसमें, खासकर भारत में स्वास्थ्य नीति के एक सबसे उपेक्षित पहलू की ओर ध्यान आकर्षित किया गया है. यह पहलू है विश्वसनीयता का. वास्तव में, हमारी स्वास्थ्यसेवा व्यवस्था भरोसे के भारी संकट से रू-ब-रू है, जो इसकी क्षमताओं को कमजोर कर रहा है और उसकी उपलब्धियों को भी कुप्रभावित कर रहा है. यह सच है कि दूसरे देशों की तुलना में यहां स्वास्थ्य पर सरकारी और निजी निवेश बहुत कम है (जीडीपी का क्रमशः 1.3 प्रतिशत और 2.3 प्रतिशत), भरोसे की भारी कमी के चलते हमारे निवेश का पूरा लाभ नहीं मिल पाता. मरीजों, डॉक्टरों, अस्पतालों, लैबों, केमिस्टों, बीमा कंपनियों और सरकारी अधिकारियों के बीच संवाद में अविश्वास भरा होता है जिसके चलते कागजी काम ज्यादा होते हैं, समय बरबाद होता है, हताशा-असंतोष-और हिंसा तक होती है.
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निवेश की कमी से बड़ा संकट है भरोसे की कमी का संकट. ज्यादा पैसा खर्च करके आप ज्यादा अस्पताल, क्लीनिक पा सकते हैं लेकिन भरोसा नहीं पैदा कर सकते.
फिक्की-ईवाइ रिपोर्ट में 1000 व्यक्तियों के बीच किया गया एक सर्वे भी शामिल है, जो बताता है कि 2016 से 2019 के बीच विश्वसनीयता में भारी कमी आई. उदाहरण के लिए, यह मानने वालों का प्रतिशत 63 से घटकर 39 हो गया कि अस्पताल मरीजों के हित में काम करते हैं. इसी तरह, अस्पताल का अच्छा अनुभव बताने वालों का प्रतिशत 78 से घटकर 51 हो गया. ये आंकड़े अपने दोस्तों से सुनी उन कहानियों की पुष्टि करते हैं कि डॉक्टर लोग किस तरह अनावश्यक टेस्ट करवाते हैं या अस्पताल मरीजों को जरूरी से ज्यादा समय तक भर्ती किए रखते हैं या अस्पतालों में दाखिला और छुट्टी पाने के लिए कितनी नौकरशाही किस्म की प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है.
लेकिन जरा सोचिए कि 2016 से 2019 के बीच अविश्वास इतना बढ़ कैसे गया? क्या भारत का स्वास्थ्य सेक्टर अचानक पटरी से उतर गया? ऐसा कोई कारण तो नहीं नज़र आता. इस अविश्वास की वजह कुछ और ही है. यह सोशल मीडिया के विस्तार के साथ खड़ी की गई नैतिक दहशत का नतीजा है. प्रक्रिया जानी-पहचानी है— बुरी खबरें और बुरे अनुभव, असली हों या नकली, अच्छी खबरों के मुक़ाबले तेजी से और दूर तक फैलती हैं. किसी डॉक्टर या अस्पताल में जाने और वहां के अच्छे, संतोषजनक अनुभवों के बारे में लोग शायद ही ट्वीट करते हैं. कोई कर भी दे, तो उसे शायद ही कोई रीट्वीट करता है. लेकिन बुरे अनुभव सोशल मीडिया पर पंख लगाकर उड़ने लगते हैं. अध्ययनों से जाहिर होता है कि ‘आम राय यही है कि गलत सूचनाएं सोशल मीडिया पर खूब प्रचारित की जाती हैं और वे सही सूचना के मुक़ाबले ज्यादा लोकप्रिय होती हैं जबकि इनसे संस्थाओं को लेकर दहशत, चिंता और अविश्वास पैदा होता है.‘
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बीमारी की रोकथाम में लगी ‘गो-क्वि’ के 2018 के एक सर्वे में पाया गया था कि शिक्षित, मध्यवर्गीय तबके के 92.3 प्रतिशत लोग भारत की स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था में भरोसा नहीं करते. दिलचस्प बात यह है कि वे योग गुरु तथा ‘एफएमसीजी’ के बड़े कारोबारी बाबा रामदेव और फिल्म स्टार अक्षय कुमार की स्वास्थ्य संबंधी सलाहों पर ज्यादा विश्वास करते हैं (वह सर्वे शायद तब किया गया था जब अक्षय कंपनी के ब्रांड दूत नहीं बने थे).
भरोसा बहाली
कोविड-19 जैसे विशेष मसले पर तो सरकार गलत सूचनाओं से मुक़ाबले के लिए सोशल मीडिया के साथ काम कर सकती है लेकिन स्वास्थ्यसेवा व्यवस्था के प्रति आम अविश्वास के फैलाव से शायद ही मुक़ाबला कर सकती है. अविश्वास जितना गहरा होगा, नीतिगत बदलावों को लागू करना और नतीजों में सुधार लाने के उपायों को लागू करना उतना ही मुश्किल होगा. उदाहरण के लिए, निजी अस्पतालों के प्रति जनता का जो रुख है वह सरकारी अस्पतालों में सुधार तथा विस्तार के लिए जरूरी पब्लिक-प्राइवेट सहयोग में बाधक बनेगा. दवा कंपनियों पर अविश्वास से कीमतों पर रोक के समर्थन को बल मिलेगा. सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर की जाने वाली पहल का विरोध हो सकता है. नैतिकता के जिस उभार से आज डॉक्टरों-नर्सों का महिमागान हो रहा है, कल उन्हें यमराज भी कहा जा सकता है.
दरअसल, हम सार्वजनिक संस्थाओं में भरोसा जगाना और बढ़ाना जानते ही नहीं. इसलिए अकेले स्वास्थ्य सेवाओं के लिए हम ऐसा कर पाएंगे, इसमें शक ही है. लेकिन हम कोशिश तो कर ही सकते हैं. इसका एक तरीका यह हो सकता है कि सरकारी अस्पताल-क्लीनिक सेवा के स्तर और कीमत के मामले में बाज़ार के मानक लागू करें.
इसके लिए केंद्र और राज्य सरकारों को भारी निवेश करना पड़ेगा ताकि सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का स्तर ऐसा बने कि हाशिये पर पड़ा मध्यवर्गीय तबका वहां जाना पसंद करे. आज वे निजी स्वास्थ्य सेवाओं को तरजीह देते हैं, बशर्ते वे उनके बजट में समा सकें, भले ही वे उन पर बहरोसा न करते हों. स्वास्थ्य नीति का लक्ष्य इस स्थिति को उलटना होना चाहिए, सार्वजनिक सुविधाओं को सुधारना हो ताकि वे उनकी पहली पसंद बनें. दूसरा तरीका यह हो सकता है कि सरकार कानून के शासन में भरोसा पैदा करे, बीमा कंपनियां तुरंत भ्ग्तन करें, अस्पताल के बिल मरीज को छुट्टी देने के बाद भी निबटाने की व्यवस्था हो, अपराध और हिंसा को सजा मिले, आदि. अंत में, स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियों का निपटारा करने वाली टेक्नोलॉजी का प्रयोग करने से पहले उस पर सावधानी से विचार किया जाए ताकि यह अविश्वास को और गहरा न करे.
(लेखक लोकनीति पर अनुसंधान और शिक्षा के स्वतंत्र केंद्र तक्षशिला संस्थान के निदेशक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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