पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री हैरॉल्ड विल्सन ने एक बार कहा था, “एक पक्षी की तरह, उड़ने के लिए लेबर पार्टी को दाएं और बाएं—दोनों पंखों की जरूरत होती है.” अरविंद केजरीवाल ने भी मानो यही सीख ली—या कम से कम ऐसा लगा. उनकी आम आदमी पार्टी एक दशक से अधिक समय तक मुफ़्त योजनाओं और सोफ्ट हिंदुत्व की राजनीति के मिश्रण के सहारे उड़ती रही. लेकिन आख़िरकार, शनिवार को भारतीय जनता पार्टी रूपी शिकारी ने उसे पकड़ ही लिया. केजरीवाल अपने सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी से टकरा चुके हैं.
किसी भी पार्टी का राजनीतिक लेखा-जोखा सिर्फ एक चुनावी नतीजे के आधार पर लिखना जल्दबाज़ी होगी, लेकिन भारतीय राजनीति में तथाकथित तीसरा विकल्प अब अस्तित्व के संकट का सामना कर रहा है. यह केवल समय की बात है कि आम आदमी पार्टी भीतर से बिखरने लगे—चाहे वह दिल्ली हो या पंजाब. केजरीवाल भले ही अब भी यह मानते हों कि पंजाब उनके नियंत्रण में है, लेकिन इसका कोई भरोसा नहीं। मुख्यमंत्री भगवंत मान की सोच कुछ और भी हो सकती है.
दिल्ली चुनाव परिणामों से यही पहला बड़ा निष्कर्ष निकलता है.
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कांग्रेस के लिए संतुष्टि?
दूसरा निष्कर्ष कांग्रेस का आप से बदले के बारे में है. देखने में भले ही कांग्रेस के पास जश्न मनाने के लिए ज्यादा कुछ न हो—न कोई सीट मिली और न ही वोट शेयर में उल्लेखनीय बढ़ोतरी हुई—लेकिन राहुल गांधी अगर इस नतीजे पर खुश होते हैं, तो उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता. आखिरकार, कांग्रेस के उम्मीदवार 11 आप नेताओं की हार में अहम भूमिका निभा चुके हैं, जिनमें अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और सौरभ भारद्वाज शामिल हैं.
पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के बेटे संदीप दीक्षित निश्चित रूप से खुश होंगे. 2013 में केजरीवाल ने नई दिल्ली विधानसभा सीट पर उनकी मां को हराकर उनके राजनीतिक करियर का अंत कर दिया था. संदीप को शनिवार को इसका बदला मिला. अगर उन्होंने केजरीवाल के 4,200 से अधिक वोट नहीं काटे होते, तो आप संयोजक आसानी से जीत सकते थे.
यह कांग्रेस के लिए भी बदले की एक सुखद घड़ी है, जिसने हरियाणा में आप के कारण कम से कम चार सीटें गंवा दी थीं. लेकिन अगर आप नहीं होती, तो भाजपा हरियाणा में अपने दम पर बहुमत हासिल नहीं कर पाती.
2022 के गुजरात विधानसभा चुनाव में भी, अगर आप ने भाजपा विरोधी वोटों को विभाजित नहीं किया होता, तो कांग्रेस को 33 और सीटें मिल सकती थीं और भाजपा का आंकड़ा 156 से घटकर 123 हो सकता था.
तो हां, दिल्ली में कांग्रेस के लिए यह बदला सांत्वना की तरह है.
अब जब केजरीवाल अपने राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई में घिरे हुए हैं, कांग्रेस को उम्मीद हो सकती है कि वह आप से अपना पारंपरिक वोट बैंक वापस हासिल कर सकती है. इसके अलावा, यह संदेश बिहार में तेजस्वी यादव, उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव और तमिलनाडु में एमके स्टालिन जैसे कांग्रेस के सहयोगियों के लिए भी है—चाहे कांग्रेस इन राज्यों में अपने दम पर ज्यादा मायने न रखती हो, लेकिन उसमें नुकसान पहुंचाने की क्षमता जरूर है.
बीजेपी के लिए चीयर्स
दिल्ली चुनाव नतीजों से कई और निष्कर्ष निकलते हैं, जैसे कि क्यों मतदाता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बीजेपी की रेवड़ी पर अधिक विश्वास करते हैं, और कैसे साम-दाम, दंड-भेद जैसी राजनीति अभी भी कारगर होती है. लेकिन दिल्ली के नतीजों से सबसे बड़ा निष्कर्ष बीजेपी के लिए है. यह एक और संकेत है कि केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी मोदी के बाद के युग के लिए तैयार हो रही है. प्रधानमंत्री निश्चित रूप से लोकप्रिय हैं. उनके द्वारा दिए गए वादे और विपक्षी पार्टियों के वादों के मुकाबले अधिक सकारात्मक प्रतिक्रिया प्राप्त करते हैं. बीजेपी नेता जीत का श्रेय मोदी को देते हैं. आखिरकार, ‘मोदी की गारंटी’ फिर से बीजेपी का मुख्य नारा बन चुका था, और पीएम को ही पार्टी का चेहरा बनाया गया था.
लेकिन दिल्ली चुनाव परिणामों को सिर्फ ‘ब्रांड मोदी’ के संदर्भ में देखना बेहद सरलीकरण होगा. वह निश्चित रूप से एक ब्रांड हैं, लेकिन हमें उनके मूल्य का आकलन दिल्ली के चुनाव परिणामों से नहीं करना चाहिए, क्योंकि ये परिणाम ब्रांड केजरीवाल के फीके पड़ने से ज्यादा जुड़े हुए हैं. मोदी पिछली तीन विधानसभा चुनावों में भी बीजेपी का चेहरा थे, 2013 में भी जब वह बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में देशभर में चर्चा का विषय थे. 2013 में हर्षवर्धन बीजेपी के मुख्यमंत्री उम्मीदवार थे और 2015 में किरण बेदी, लेकिन पार्टी मोदी के नाम पर वोट मांग रही थी. बीजेपी ने 2020 में मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित नहीं किया और मोदी को ही अपना चेहरा बनाए रखा. 2019 के लोकसभा चुनाव में विपक्ष को धूल चटाने के बाद मोदी लोकप्रियता की लहर पर सवार थे जब 2020 में दिल्ली विधानसभा चुनाव हुए थे. कोई यह तर्क नहीं कर सकता कि वह आज 2020 से ज्यादा लोकप्रिय हैं, तो दिल्ली के परिणाम को सिर्फ मोदी की लोकप्रियता के संदर्भ में देखना एक महत्वपूर्ण पहलू को नजरअंदाज करना होगा, यानी बीजेपी धीरे-धीरे और लगभग अदृश्य रूप से मोदी के साए से बाहर निकल रही है.
मोदी से परे बीजेपी
यह पहले संकेत हरियाणा और महाराष्ट्र से मिले, जहां पीएम मोदी चेहरा नहीं थे. झारखंड विधानसभा चुनाव में वह बीजेपी के चेहरे थे, लेकिन वहां उनकी जीत नहीं हुई. इसका मतलब यह नहीं कि मोदी अब चुनावों में प्रभावी नहीं हैं. वह निश्चित रूप से हैं, और बीजेपी के लिए एक ताकत का स्त्रोत बने हुए हैं. लेकिन अब वह पार्टी के लिए अकेले स्विंग फैक्टर नहीं हैं.
दिल्ली चुनाव परिणाम यह दिखाने वाला एक और संकेत हैं कि बीजेपी मोदी के बाद के दौर के लिए खुद को तैयार कर रही है. मोदी ने पार्टी को अपने पारंपरिक वोट बैंक के अलावा भी व्यापक सामाजिक आधार बनाने में मदद की है. अब पार्टी उस विस्तारित आधार को मोदी के बिना बनाए रखने की क्षमता दिखा रही है.
लोकसभा चुनाव में, मोदी के चेहरे के साथ, पार्टी ने कई राज्यों में—हरियाणा और महाराष्ट्र समेत—अपने पारंपरिक आधार, विशेष रूप से दलितों और पिछड़े वर्गों को खो दिया था. कुछ महीनों बाद, इन दोनों राज्यों में विधानसभा चुनावों में, मोदी के बिना चेहरे के साथ पार्टी ने फिर से उस आधार को हासिल किया और विस्तारित किया.
वास्तव में, पार्टी ने विधानसभा चुनावों में व्यक्तिगत नेताओं पर निर्भरता कम करने के संकेत पिछले कुछ समय से दिखाए हैं. छत्तीसगढ़ में उसे रमन सिंह की जरूरत नहीं पड़ी, राजस्थान में वसुंधरा राजे की भी नहीं। मध्य प्रदेश में, यह बहस का मुद्दा है कि अगर शिवराज सिंह चौहान के साथ या बिना ‘लाडली बहना’ योजना होती तो क्या बीजेपी सत्ता में आ पाती.
यह सिर्फ ब्रांड मोदी के बारे में नहीं है. बीजेपी एक सोच-विचार वाली राजनीतिक पार्टी है जो अपनी रणनीतियां और तरीकों को आवश्यकताओं के अनुसार बदलती रहती है, जबकि कांग्रेस समय में स्थिर बनी रहती है. देखिए कैसे पार्टी ने रेवड़ी कल्चर पर अपनी आपत्ति छोड़ दी. अगर आक्रामक हिंदुत्व और नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) पर विभाजनकारी अभियान 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में काम नहीं आया, तो बीजेपी ने इसे 2025 में छोड़ दिया. देखिए कैसे बीजेपी ने सटीक रूप से ब्रांड केजरीवाल को खत्म किया—उनकी भ्रष्टाचार-निरोधक छवि, आम आदमी की छवि, और कल्याणकारी राजनीति. दरअसल, इस पर काम करने की शुरुआत दो साल पहले ही हुई थी, जब सबसे पहले सिसोदिया की गिरफ्तारी हुई थी.
दिल्ली चुनाव परिणाम कांग्रेस और अन्य विपक्षी पार्टियों के लिए यह एक अनुस्मारक होना चाहिए कि पीएम मोदी के संन्यास का इंतजार करना एक आत्म-विनाशकारी रणनीति है.
डीके सिंह दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं. उनका ट्विटर हैंडल @dksingh73 है. ये उनके निजी विचार हैं.
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