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बुधवार, 23 अप्रैल, 2025
होममत-विमतकोविड संकट और आर्थिक पैकेज दोनों ने दिखा दिया है कि मोदी सरकार का दिल गरीबों के लिए नहींं धड़कता

कोविड संकट और आर्थिक पैकेज दोनों ने दिखा दिया है कि मोदी सरकार का दिल गरीबों के लिए नहींं धड़कता

कुछ घाव इतने गहरे होते हैं कि वो भूले नहीं जाते, और कोरोनावायरस महामारी वही घाव साबित हो सकता है, जो मोदी सरकार के प्रति ग़रीबों का मूड बदल देगा.

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बिहार के एक रेलवे स्टेशन पर बिस्किट्स के लिए लड़ते लोगों की सामने आई वीडियो, या भारत की तपती चिलचिलाती गर्मी में नंगे पांव चलतीं महिलाएं और बच्चे, जो बस घर पहुंचने की कोशिश में थकान से बेदम हो रहे हैं, उन्हें देखकर लगता है कि क्या नरेंद्र मोदी सरकार ने, अपना मानवीय स्पर्श पूरी तरह खो दिया है.

अगर हम ये मान भी लें कि प्रधानमंत्री मोदी के 20 लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज का, भारत की इकॉनमी पर सीधा असर पड़ेगा, तो भी कठोर लॉकडाउन से पैदा हुई मुसीबतों को दूर करना बहुत मुश्किल होगा, जिसे बहुत से लोग सबसे कड़ा बता रहे हैं.

ग़रीबों की तकलीफें दूर करने में मोदी सरकार की नाकामी, और उनके कल्याण का ज़िम्मा राज्य सरकारों के सर डालने की उसकी हरकत, वो भी दो महीने की देरी के बाद, ये सब उसकी इस सियासी सोच को दर्शाता है, कि चुनाव जीतने के लिए भारतीय जनता पार्टी को केवल मध्यम वर्ग की दरकार है.

ग़रीबों के लिए कोई देश नहीं

ये एक कोरी कल्पना नहीं है कि आर्थिक पैकेज में, मिडिल क्लास के प्रति झुकाव है. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने ख़ुद इसकी व्याख़्या की है. उन्होंने हाल ही में ट्वीट किया, “@पीएमओइंडियाज़ विज़न: #आत्मनिर्भर भारत अभियान में हर कोई शामिल होगा- फेरीवाला, व्यवसायी, एमएसएमई इकाई, ईमानदार कर दाता मिडिल क्लास, मैन्युफैक्चरर आदि. ये केवल एक वित्तीय पैकेज नहीं होगा, बल्कि इसमें सुधारों के लिए प्रोत्साहन होगा, मानसिकता की कायापलट होगी, और गवर्नेंस पर ज़ोर होगा.”


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12 मई को बीजेपी के समर्थक तुरंत हरकत में आ गए, और मोदी के 20 लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज की जीनियस को समझाने लगे जो: ‘दिन के 20वें घंटे, और साल 2020 के भाषण में 20 वें मिनट,’ में सामने आया. ऐसा लगता है कि भारत के मिडिल क्लास को ऐसे विचित्र तथ्यों में बहुत मज़ा आता है, जो सोशल मीडिया पर वायरल होकर, व्हाट्सएप के ज़रिए उन तक पहुंचते हैं. वो पहले ही इनके शौक़ीन हो चुके हैं.

लेकिन भारत के ग़रीब न तो किसी को सुनाई देते हैं, न दिखाई देते हैं. मोदी सरकार की ओर से उठाए गए कुछ सीधे-सादे क़दम, इन ग़रीब लोगों को समान नागरिक होने का अहसास करा सकते थे। पैदल घर वापसी करते प्रवासियों के लिए, बहुत पहले ही बसें चलाई जा सकतीं थीं, क्योंकि ज़िंदा रहने की ख़ातिर वो वैसे भी सोशल डिस्टेंसिग नियमों को तोड़ने पर मजबूर हो गए थे. पुलिस थानों को निर्देश दिए जा सकते थे, कि 40 डिग्री से अधिक की गर्मी में सैकड़ों किलोमीटर का पैदल सफर कर रहे, अधमरे लोगों की पिटाई करने की बजाय, उनके लिए सुरक्षित रास्ते का बंदोबस्त करें.

जीवित रहने के लिए ग़रीबों को केवल भोजन ही नहीं चाहिए. उनमें से बहुतों के सामने जीविका का सवाल है: जिन शहरों में वो काम करने गए थे, रोज़गार छूटने के बाद, वो अब वहां अपने घरों के किराए और बिजली के बिल कैसे भरेंगे? क्या कोई ग़रीब इतना भी नहीं चाह सकता, कि ऐसे मुश्किल समय में, जब मध्यम वर्ग का मानसिक स्वास्थ्य भी प्रभावित होने लगा है, वो अपने परिवार के साथ रहे? ज़ाहिर है कि ग़रीबों को ये सुख भोगने की भी अनुमति नहीं है. उन्हें बस भीख की तरह मिले भोजन से गुज़ारा करना है, और शुक्र मनाना है कि वो भूख से मर नहीं रहे.

और जैसे ही कोई कोशिश करता है, कि प्रवासियों से मिलकर उनसे बात करे, और उन्हें समझने की कोशिश करे, कि वो अपनी जगह न रुककर घर क्यों जाना चाहते हैं, तो सत्ताधारी पार्टी की वित्तमंत्री तुरंत उसे ‘ड्रामेबाज़ी’ क़रार दे देती हैं. कुंभ मेले में साफ और नहाए हुए सफाई कर्मियों के पांव धोना प्रतीकात्मक हो सकता है, लेकिन राहुल गांधी का प्रवासी मज़दूरों के साथ फुटपाथ पर बैठना ‘ड्रामेबाज़ी’ है? और अगर ये वाक़ई ड्रामेबाज़ी थी, तो फिर उन प्रवासी मज़दूरों को जो, गांधी द्वारा मंगाए गए वाहनों में बैठकर घर जा रहे थे, रास्ते में पुलिस ने क्यों रोका और इस बात को स्वीकार किया, कि ऐसा करने के लिए उन्हें ‘ऊपर से’ आदेश मिले थे? हम बीजेपी की ड्रामेबाज़ी कब देखेंगे, जब वो ग़रीबों की सहायता के लिए आगे बढ़ेगी?

केंद्र में है मिडिल क्लास

लेकिन मिडिल क्लास को ख़ुश किया जा रहा है. मोदी सरकार द्वारा कई राज्यों से छात्रों को बसों से उनके गृह नगर, और विदेशों से भारतीयों को स्पेशल फ्लाईट्स के ज़रिए भारत वापस लाया जा रहा है, वो सरकार जो विदेशों में “फंसे” अपने नागरिकों की चिंता करती है. बहुत ही साफ दिखाई पड़ता है कि सरकार अपने नागरिकों की प्राथमिकता कैसे तय कर रही है. 7 मई को शुरू हुए सप्ताह में, 13 अलग अलग देशों से 64 फ्लाइट्स के ज़रिए, 14,800 भारतीयों को वापस लाया गया. खाड़ी और दूसरे देशों से भारतीय नागरिकों को लाने के लिए, कुल 14 नौसैनिक युद्धपोत तैयार किए गए हैं.

और अब मोदी सरकार की प्राथमिकता वाले इन नागरिकों के लिए, एक आर्थिक पैकेज तैयार है जिसका वो गुणगान कर सकते हैं. कांग्रेस पार्टी और मोदी आलोचकों ने इसे महज़ एक ‘जुमला‘ बताते हुए, आर्थिक पैकेज की भर्त्सना की है. उनका कहना है कि बीस लाख करोड़ रुपए में से, रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया और वित्त मंत्री 9.75 लाख करोड़ की नक़दी और ट्रांसफर का पहले ही ऐलान कर चुके थे. बाक़ी बचे 10.25 लाख करोड़ ही अस्ली रक़म हैं, जो जीडीपी का केवल 5 प्रतिशत है, दस प्रतिशत नहीं, जैसा कि प्रचारित किया जा रहा है.


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लेकिन अगर ये “जुमला” नहीं है तब भी, क्या हम अपेक्षा कर रहे हैं कि इसका अधिकांश हिस्सा उन लोगों को जाएगा, जो सड़कों और हाईवेज़ पर मर रहे हैं, भुखमरी की कगार पर हैं, या वाहनों के नीचे कुचले जा रहे हैं? इसकी उम्मीद बहुत कम है. इस पैकेज का लक्ष्य भारत के मिडिल क्लास की मदद करना है, जो मोदी के “मूल वोटर्स” समझे जाते हैं.

मिडिल क्लास वोट

नेशनल इलेक्शन स्टडीज़ 2019 के अनुसार, उच्च मध्यम और अमीर वर्ग के के 44 प्रतिशत लोगों ने, 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी को वोट दिया था, जबकि निचले तबक़े और ग़रीब वर्ग के, 36 प्रतिशत लोगों ने इस पार्टी को वोट दिया था. यही वो चीज़ है जो बीजेपी समझ नहीं पा रही है. मिडिल क्लास की परिभाषा न केवल ढीली बल्कि तरल भी है. केवल एक आर्थिक मंदी, निम्न मध्यम वर्ग को ग़रीबी, और मध्यम वर्ग को निम्न मध्यम वर्ग में धकेल सकती है.

इंडिया ह्यूमन डेवलपमेंट सर्वे (2011-12) के अनुसार भारत की 28 प्रतिशत आबादी मध्यम वर्ग है, जिसमें से 14 प्रतिशत निम्न मध्यम वर्ग और क़रीब 3 प्रतिशत उच्च मध्यम वर्ग है. आरबीआई का कहना है कि भारत की 25.7 प्रतिशत आबादी ग़रीबी रेखा से नीचे रहती है.

रोज़ाना की मज़दूरी और काम ग़ायब हो जाने से, आने वाले महीनों में इस संख्या में बढ़ोतरी ही होगी. ग़रीब लोग जो सरकार की दया पर हैं, वो सीधे तौर पर इसकी उपेक्षा को अनुभव कर रहे हैं. और इसकी संभावना बहुत कम है कि वो इस रवैये को भूल जाएंगे.

चुनाव आते जाते रहते हैं. उन्हें जीतने के लिए बीजेपी अपने आज़माए हुए नुस्ख़े इस्तेमाल करेगी. लेकिन कुछ घाव इतने गहरे होते हैं कि उन्हें भुलाया नहीं जा सकता, और कोरोनावायरस वैश्विक महामारी वही घाव साबित हो सकता है, जो उनके प्रति ग़रीबों का मूड बदल देगा.

(लेखक एक राजनीतिक पर्यवेक्षक हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)

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2 टिप्पणी

  1. मोदी सरकार के पास ऐसे अच्छा सुनहरा मौका नही था कि वो अपनी समझदारी से इस आपदा को संभाल लेती और लोगो को महसुस करवाती की वो एक काबिल सरकार है पर वो मौका खो चुकी है। सम्प्रदाय राजनीति करने के अलावा सरकार कुछ नही जानती ये बात अब साफ हो चुकी है बस लोगों को समझने की देर है। जब भी किसी मजदूर की मौत की खबर मिली सरकार ने सिर्फ एक ही जवाब दिया कि मामले की संभाल लिया है। सरकार ने आई टी सेल को सिर्फ गांधी परिवार को बदनाम करने और हिन्दू राष्ट्रीय को बढ़ावा देने में प्रयोग किया है इतना ही अगर वो देश के हित मे काम करती तो शायद इस महामारी को इतना फैलने से रोक सकते थे।

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