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Wednesday, 20 November, 2024
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जाति प्रधान देश में बॉलीवुड जाति पर बात करने से शर्माता है

अमेरिका ने इस बात को समस्या के रूप में स्वीकार किया है कि वहां की फिल्मों में परदे पर और परदे के पीछे अश्वेत और हिस्पैनिक्स लोगों का प्रतिनिधित्व कम है. भारत में ये बहस अभी मुमकिन ही नहीं है.

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अमेरिकी फिल्म इंडस्ट्री में देश के वंचित समूहों और महिलाओं का हाल सचमुच कितना बुरा है! क्या
आप ऐसा ही कुछ सोच रहे हैं? ये सारे आंकड़े हॉलीवुड डायवर्सिटी पर प्रकाशित पांचवी रिपोर्ट से लिए गए
हैं. हॉलीवुड डायवर्सिटी की छठी रिपोर्ट अब किसी भी दिन आ सकती है.

  • हॉलीवुड की फिल्मों में 14 फीसदी लीड रोल में माइनॉरिटी यानी ब्लैक, हिस्पैनिक, एशियन या नैटिव
    अमेरिकन होते हैं.
  • हॉलीवुड की फिल्मों में 12.6 फीसदी डायरेक्टर माइनॉरिटी हैं, जबकि सिर्फ 8.3 फीसदी फिल्म राइटर
    इन समुदायों से हैं.
  • लेकिन इस साल नए लॉन्च हुए टीवी सीरियल और स्क्रिप्टिड शोज में 28 फीसदी कलाकार अश्वेत हैं.
  • टीवी पर आने वाले रिएलिटी शोज में 26 फीसदी से ज्यादा लीड करेक्टर माइनॉरिटी ग्रुप्स से आते हैं.
  • हॉलीवुड में 7 फीसदी से भी कम फिल्म डायरेक्टर महिलाएं हैं.

इस रिपोर्ट की शुरुआत 2011-12 में हुई. पहली बार ये रिपोर्ट यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, लॉस
एंजिलिस की राल्फ जे बंचेन अफ्रिकन अमेरिकन सेंटर ने प्रकाशित की. इसकी अब तक की सबसे ताजा
रिपोर्ट पिछले साल फरवरी में आई. लेकिन अब इसे तैयार करने और छापने का जिम्मा इसी यूनिवर्सिटी
के सोशल साइंस सेंटर ने ले लिया है.

1969 में वहां पर इक्वल इंप्लाएमेंट ऑपुर्चुनिटी कमीशन – ई.ई.ओ.सी. ने लॉसएंजिल्स या हॉलीवुड में इस
बात की स्टडी की कि कितने ब्लैक्स और माइनॉरिटीज फिल्म इंडस्ट्री में हैं. ये पता चलता है कि वंचित
समुदाय के सिर्फ 3 फीसदी लोग वहां पर फिल्म इंडस्ट्री में हैं. उसके बाद से फेडरल गवर्नमेंट कोशिश
करती है कि फिल्म इंडस्ट्री में विभिन्न समुदाय के लोग आयें. और आप देखेंगे कि 2015 आते-आते वहां की दुनिया बदल चुकी होती है.अमेरिका स्लेवरी को लेकर शर्मिंदा देश है. लेकिन भारत जाति को लेकर शर्मिंदा देश नहीं है.

क्या हम भारत में ऐसी ही किसी रिपोर्ट की कल्पना कर सकते हैं जो बताए कि बॉलीवुड में भारतीय
टीवी इंडस्ट्री में कितने दलित हैं. कितने आदिवासी हैं, कितने ओबीसी हैं, और वे क्या क्या काम कर रहे
हैं. कितनी फिल्मों और टीवी शोज में लीड रोल में कोई दलित या आदिवासी है? ओबीसी के लोग फिल्म
निर्देशक हैं या नहीं? क्या कोई रिपोर्ट बताएगी कि भारत में बनने वाली फिल्मों में से कितनी फिल्मों की
डायरेक्टर महिलाएं हैं.


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भारत इसके लिए तैयार नहीं है. ऐसी किसी भी बहस की शुरुआत में ही ये कहा जाएगा कि तो क्या
फिल्मों में भी आरक्षण चाहिए. या कि जिसमें टैलेंट होगा, वो फिल्मों में आएगा. इसमें क्या दलित और
क्या ब्राह्मण. लेकिन ये तो श्वेत, अश्वेत, हिस्पैनिक, नैटिव अमेरिकन के लिए भी सच है. जिसमें टैलेंट
होगा, वो आएगा. इसका आंकड़ा क्यों जुटाना?

लेकिन दुनिया के विकसित देश और पुराने स्थापित लोकतंत्र इस तरह से नहीं सोचते. अमेरिका,
ऑस्ट्रेलिया और ज्यादातर यूरोपीय देशों में डायवर्सिटी और अफर्मेटिव एक्शन एक बड़ा मुद्दा है. इसलिए
वहां ऐसे आंकड़े जुटाए जाते हैं और नीतियां बनाने से लेकर रिक्रूटमेंट और काम देने में इस बात का
ध्यान रखा जाता है (रखा जाना चाहिए) कि उसमें देश की विविधता नजर आए. ये विविधता सिर्फ संसद
या राजकाज और नौकरियों में ही नहीं, फिल्मों, टेलीविजन और न्यूज मीडिया तक में बरतने की कोशिश
की जाती है. अमेरिका में 1978 से मीडिया डायवर्सिटी रिपोर्ट जारी हो रही है और मीडिया संगठन इस
कोशिश में हैं कि समाज की पूरी विविधता न्यूजरूम मे भी दिखे.

लेकिन भारत में और खासकर हिंदी फिल्म और टीवी इंडस्ट्री में विविधता के नाम पर क्या हो रहा है?
दरअसल कुछ भी नहीं. विविधता लाने की कोशिश तो दूर की बात अभी देश इतना वयस्क भी नहीं हुआ
है कि इन क्षेत्रों में विविधता न होने को समस्या के रूप में स्वीकार भी कर सके. भारतीय फिल्म, टीवी
और मीडिया इंडस्ट्री अभी डायवर्सिटी का अध्ययन करने के लिए तैयार नहीं है. अभी उसका वही पुराना
राग चल रहा है कि जिसमें टैलेंट होगा वो सामने आएगा. या फिर कि हम तो जाति देखकर कलाकार या
डायरेक्टर या राइटर नहीं चुनते. या फिर सबसे ज्यादा दोहराया गया जुमला- बॉलीवुड के दरवाजे हर
किसी के लिए खुले हैं.

जबकि वास्तविकता में ऐसा कुछ नहीं है. दरअसल बॉलीवुड इस शुतुरमुर्ग की तरह है, जो तूफान देखकर
अपना सिर रेत में गाड़ लेता है. अभी तक की जानकारी के मुताबिक बॉलीवुड में कोई आदिवासी या
दलित डायरेक्टर नहीं हुआ. इसमें एकमात्र अपवाद के तौर पर मसान के निर्देशक नीरज घेवण हैं, लेकिन

वे भी अपनी दलित पहचान को लेकर मुखर नहीं है. अगर बॉलीवुड में कोई दलित या आदिवासी राइटर है
तो हम नहीं जानते. कोई संगीत निर्देशक दलित या आदिवासी है या नहीं, ये हमारे संज्ञान में नहीं है.
ऐसा नहीं है कि भारत में दलित या आदिवासी विषयों पर कभी कोई फिल्म नहीं बनी. अछूत कन्या,
‘दामुल, ‘अंकुर, ‘लगान, ‘राजनीति’ – ये सारी फिल्में ऐसी हैं जिनमें दलितों का किसी न किसी रूप में चित्रण
आया है. मुझे लगता है कि अछूत कन्या और सुजाता के जो दलित करैक्टर्स हैं, ये गांधी के हरिजन हैं. ये
एमपॉवर्ड शिड्यूल कास्ट नहीं हैं, ये एमपॉवर्ड दलित नहीं हैं. इन फिल्मो में एक स्टीरियोटाइप भी होता है.
लड़की दलित होगी, लड़का जो है, वह ब्राह्मण होगा. मतलब प्रधान लड़का होगा, कस्तूरी दलित होगी,
सुजाता दलित होगी, राम जो है वो ब्राह्मण होगा. दलित लड़की का उद्धार भी कोई सवर्ण ही करेगा.
और नीची जाति से लड़की लाने की तो गुंजाइश है भारतीय विवाह संस्था में. अनुलोम विवाह तो शास्त्र
सम्मत है. यह तो किसी भी स्टीरियो टाइप को नहीं तोड़ रहा है.


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‘दामुल’ का जो दलित करैक्टर है, वह बहुत घालमेल वाला है. डॉ. हरीश वानखेड़े ने अपने एक पेपर में
लिखा भी है कि वह बहुत ही कमजोर चरित्र है. फिल्म ‘अंकुर’ का जो मेन दलित करैक्टर है किश्‍टय्या,
उससे उसकी पत्नी को बच्चा पैदा नहीं होता. उसकी पत्नी का अपर कास्ट जमींदार सूर्या से अवैध संबंध
है और इस तरह वह गर्भवती हो जाती है और किश्टय्या उसका जश्न मनाता है. जिस बच्चे के लास्ट
शॉट से फिल्म खत्म होती है, जो पत्थर फेंकता है और स्क्रीन लाल हो जाती है, वह बच्चा उस दलित का
बच्चा ही नहीं है. वह तो उस अपर कास्ट सूर्या का बच्चा है. ये सारी फिल्में दरअसल प्रॉब्लेमेटिक है.
‘लगान’ फिल्म का कचरा जो स्पिन बॉल फेंकता है, उसका नाम देखिए. दलित करैक्टर है इसलिए नाम
रखा गया है – कचरा. उस कचरा की एक मात्र खासीयत क्या है कि वह उसके द्वारा फेंकी गेंद स्पिन
होती है क्योंकि उसका हाथ पोलियाग्रस्त है. अपने आप उसने कोई गुण एक्वायर नहीं किया है. पोलियो
का शिकार होना ही उसकी खासीयत है. यानी दलितों में कोई गुण नहीं हो सकता. उसके गुण को एक
अपर कास्ट आदमी भुवन पहचानता है और अपनी टीम में ले लेता है. ये हैं बॉलीवुड के दलित करैक्टर्स.
राजनीति फिल्म के अजय देवगन को बाद में पता चलता है कि वह किसी अपर कास्ट की नाजायज
औलाद है. उसमें बहुत गुण हैं लेकिन लास्ट में गोबर मिला दिया जाता है उसके सारे अच्छे गुणों में. ये
सारी फिल्में प्रॉब्लमेटिक हैं. इन सारी फिल्मों में प्रॉब्लम हैं. ये दलित करैक्टरों को गलत ढंग से पेश
करती हैं. मसान, मांझी और गुड्डू रंगीला जैसी फिल्मों ने इस पंरपरागत मोल्ड को तोड़ा है, लेकिन ये
फिल्म अपवाद की तरह ही हैं.

तमिल फिल्म इंडस्ट्री इस मामले में अपवाद की तरह है जहां भारद्वाज रंगन जैसे क्रिटीक शिकायत
करते हैं कि विलेन का नाम सुब्रह्मण्यम क्यों रखा गया? तमिल फिल्मों में ब्राह्मण विलेन बनाए जाने

से उन्हें शिकायत है. वहां पा रंजीत जैसे फिल्मकार सफल हैं, जो कबाली, मद्रास और काला जैसी
कामयाब फिल्में बनाते हैं और अपनी दलित पहचान को बताने में भी नहीं हिचकते. मराठी में भी सैराट
फिल्म ने नई जमीन तोड़ी है. दलित फिल्मकार नागराज मंजुले ने लगभi पूरी तरह दलित स्टारकास्ट
और क्र्यू के साथ मराठी फिल्म इंडस्ट्री की सबसे कामयाब फिल्म बनाई है. लेकिन हिंदी फिल्में अभी भी
दलित को कचरा ही मान रही हैं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )

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