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Sunday, 17 November, 2024
होममत-विमतबीएन मंडल- वो नेता, जिसने इमरजेंसी का अंदाजा पहले ही लगा लिया था, नेहरू युग को कहा था ठाट-बाट का युग

बीएन मंडल- वो नेता, जिसने इमरजेंसी का अंदाजा पहले ही लगा लिया था, नेहरू युग को कहा था ठाट-बाट का युग

बीएन मंडल ने कहा था- जिस ढंग से इंदिरा गांधी समाजवाद का नारा देकर देश में काम कर रही हैं, ऐसी परिस्थिति बन रही है कि जनतंत्र खत्म होगा और इनकी तानाशाही कायम होगी.

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रोम पोप का और मधेपुरा गोप का- बिहार के मधेपुरा के बारे में यह कहा जाता है. क्योंकि यहां पर गोप यानी यादव समाज का प्रभुत्व रहा है. 20वीं शताब्दी के भारत में 1 फरवरी 1904 को इसी मधेपुरा में भूपेन्द्र नारायण मंडल का जन्म हुआ था, जो आगे चलकर एक बड़े समाजवादी नेता बने पर धीरे-धीरे उनका जिक्र खत्म होने लगा और उन्हें जाति के एक नायक के रूप में सीमित कर वृहद् फलक से विस्मृत कर दिया गया.

बी एन मंडल के पिता और चाचा बिहार में कांग्रेस के संस्थापकों में से एक थे. इस प्रकार उन्हें एक राजनीतिक परिवेश शुरू से ही मिला था. यह वो दौर था जब किशोर क्रांतिकारी खुदीराम बोस की शहादत हुई थी और युवाओं पर इसका जोरदार प्रभाव पड़ा था. साथ ही रूसी क्रांति के बाद देश में सोशलिज्म यानी समाजवाद की धारा चल पड़ी थी. बी एन मंडल पढ़ने लिखने में तो अच्छे थे और मधेपुरा के एक अनुशासित और प्रसिद्ध कॉलेज में पढ़ते थे जिसकी स्थापना एक अंग्रेज अधिकारी ने की थी. लेकिन ये धाराएं ज्यादा रोमांचकारी थीं. 1920 में कलकत्ता के कांग्रेस अधिवेशन में असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव पारित हुआ और उसी वर्ष महात्मा गांधी बिहार आए और उन्होंने स्कूल कॉलेज के बहिष्कार की अपील की. नतीजतन बी एन मंडल ने बहिष्कार कर दिया जो कि उस अनुशासित स्कूल में अनहोनी घटना थी.

महात्मा गांधी और समाजवाद से थे प्रभावित

महात्मा गांधी और सोशलिज्म से प्रभावित होने के बाद बी एन मंडल ने युवावस्था में ही अपनी राजनैतिक और सामाजिक समझ को वृहद् कर लिया था. वो 1905 में मधेपुरा में हुए यादव महासभा सम्मेलन से जुड़े नहीं बल्कि त्रिवेणी संघ यानी कोइरी, कुर्मी और यादव समाज के संघ की सदस्यता ली. फिर ई वी रामास्वामी पेरियार के नेतृत्व वाली जस्टिस पार्टी से जुड़ गये. गौरतलब है कि पेरियार ने जाति व्यवस्था के खिलाफ जोरदार आंदोलन चलाया था जो कि दक्षिण भारत से होते हुए लगभग पूरे देश में फैल गया था. इस बीच बी एन मंडल ने कानून की पढ़ाई भी पढ़ ली थी.

1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में बी एन मंडल के नेतृत्व में कचहरी में ताला डाला गया और मधेपुरा में सरकारी दफ्तरों को बंद कराया गया. इस दौरान कई बार गिरफ्तारी हुई थी, जेल जाना पड़ा था पर उत्साह में कोई कमी नहीं आई थी.

1945 में भागलपुर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का गठन हुआ और बी एन मंडल इसके महासचिव बनाए गये. कांग्रेस में इस धड़े की स्थापना 1934 में नेताजी सुभाषचंद्र बोस और जवाहर लाल नेहरू ने की थी. द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जय प्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, मीनू मसानी, आचार्य नरेंद्र देव जैसे तमाम नेता भारत में समाजवाद का प्रचार कर रहे थे. 1947 में कानपुर में लोहिया की अध्यक्षता में सम्मेलन हुआ और पार्टी के नाम से कांग्रेस हटाया गया. फिर जब 1948 में नासिक में सोशलिस्ट पार्टी का गठन हुआ तो सोशलिस्ट विचारों से ओत प्रोत बी एन मंडल ने कांग्रेस से अलग होने का निर्णय लिया. 1949 में जब इस पार्टी का बिहार में सम्मेलन हुआ तो बी एन मंडल को इसकी जिम्मेदारी दी गई.


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बीपी मंडल से हार गए थे चुनाव

1952 में बिहार में जब पहला विधानसभा चुनाव हुआ तो ये सोशलिस्ट पार्टी की तरफ से लड़े. लेकिन बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल यानी बी पी मंडल के हाथों हार गये. बी पी मंडल भी बाद में बड़े नेता बने एवं कुछ समय के लिए बिहार के मुख्यमंत्री भी रहे थे.

1957 के चुनाव में बी एन मंडल को जीत हासिल हुई. उन्होंने बिहार में लगातार जमींदारी प्रथा का विरोध किया था और समाज को लगातार जागरुक किया था. विधानसभा में अपनी पार्टी की तरफ से एकमात्र विधायक थे लेकिन लगातार कांग्रेस का विरोध करते थे. यह बात इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इन नेताओं के पास कांग्रेस में शामिल होकर सत्ता में आने का पूरा मौका था. साथ ही पार्टी से अकेले विधायक रहते हुए भी विधानसभा में सारी बातों को उठाने की कूवत भी थी.

आजाद भारत में भी गए जेल

पहले सर्किट हाउस और डाकबंगला सिर्फ सरकारी अधिकारियों के लिए सुरक्षित रहते थे. बी एन मंडल ने इसका कड़ा विरोध किया और ऐसा विरोध किया कि इन्हें नौ महीने के लिए जेल जाना पड़ गया. आजाद भारत में. लेकिन अंततः इनकी जीत हुई और जनप्रतिनिधियों के लिए भी भी इसे खोला गया.

1959 में तमिलनाडु के सम्मेलन में बी एन मंडल को सोशलिस्ट पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया. और फिर 1962 में इन्होंने मधेपुरा से सांसदी जीती. लेकिन इस चुनाव को रद्द कराकर दुबारा चुनाव हुए और इसमें वो हार गये. बाद में दो बार बी एन मंडल राज्यसभा पहुंचे.


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नेहरू युग को बताया ठाट-बाट का युग

1969 में राज्यसभा में बी एन मंडल ने कहा था- इस देश ने गांधी जी की बदौलत, गांधी जी की तपस्या की बदौलत आजादी हासिल की है. अगर गांधी की परंपरा देश में चलती रहती, तो हम समझते हैं कि आज इस देश में दलबदल का जो प्रश्न खड़ा हुआ है, वह प्रश्न ही नहीं होता, ऐसा मेरा विश्वास है…. जवाहरलाल नेहरू का युग त्याग और तपस्या का युग नहीं रहा. यह भोग का युग रहा. यह युग पावर और ठाट बाट दिखाने का युग रहा है.

1952 के पहले विधानसभा चुनाव में, जिसमें बी एन मंडल हारे थे, उन्होंने भागलपुर-दरभंगा क्षेत्र से एक ऐसे प्रत्याशी के लिए जोर लगाया जो जाति व्यवस्था में सबसे नीचे तबके से आते थे. नतीजा यह हुआ कि किराय मुसहर को जीत मिली. कल्पना करें कि आजाद भारत के पहले विधानसभा चुनाव में समाज के सबसे निचले तबके का व्यक्ति प्रतिनिधि बनकर विधानसभा पहुंचता है. बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी इसी समुदाय से आते हैं.

पिछड़ी जातियों के लिए खुलवाए संस्कृत विद्यालय

बी एन मंडल ने एक और काम किया था. पिछड़ी जातियों के बच्चों के लिए संस्कृत स्कूल खुलवाये थे. ब्राह्मण पुरोहितों की तर्ज पर यादव पुरोहित तैयार किये जो विवाह, श्राद्ध इत्यादि कर्मकांड कराते थे. हालांकि यह स्थायी परंपरा नहीं बन पाई क्योंकि कर्मकांड खुद ही एक पुरातन परंपरा है.

अपनी बाद की राजनीति में बी एन मंडल ने दलित समाज के मुद्दों को लगातार उठाया था. उन्हें यह समझ थी कि जब तक इस समुदाय का विकास नहीं होगा, भारत का विकास नहीं हो सकता.

1973 में राज्यसभा में उन्होंने कहा था- जिस तरह आज आदमी को मछली खाने में, खस्सी खाने में और मुर्गा खाने में कोई असहजता नहीं होती उसी तरह बड़ी जाति के लोग छोटी जाति के लोगों की तकलीफों को महसूस नहीं कर पाते हैं.

सरल शब्दों में कही यह बात आसानी से समझा देती है कि कथित उच्च जातियों के लोगों को दबे हुए तबके के लोगों की समस्याएं इतनी रुटीन लगती थीं कि समझ ही नहीं आती थीं.

सिविल सेवा परीक्षा में किया अंग्रेजी का विरोध

बी एन मंडल ने सिविल सेवा परीक्षाओं में अंग्रेजी माध्यम के प्रभुत्व और भारतीय भाषाओं के पीछे रहने पर भी सवाल उठाये थे. उस दौर के कई नेताओं ने अंग्रेजी का विरोध किया था. यह इस वजह से नहीं कि इन नेताओं को अंग्रेजी की समझ नहीं थी. बल्कि ये नेता खुद अंग्रेजी में पारंगत थे परंतु यह समझते थे कि भारत की अधिकांश जनता इस भाषा से सामंजस्य नहीं बैठा पाती है तो इस भाषा में सफलता कैसे हासिल करेगी. भारत की अधिकांश जनता के लिए अंग्रेजी वैसी ही भाषा थी जैसे कि भारत के अंग्रेजीदां लोगों के लिए स्वाहिली या कोई और पुरानी भाषा. सोचिए कि अगर स्वाहिली में परीक्षाएं होने लगतीं तो क्या भारत का अंग्रेजीदां समाज क्वालिफाई कर पाता? तो अंग्रेजी के बढ़ते प्रभाव का विरोध बहुत ही संतुलित और नैसर्गिक था.

इमरजेंसी का लगा लिया था पहले से अंदाज़ा

1973 में बी एन मंडल ने राज्यसभा में कहा था- आज जो रवैया इस देश में चल रहा है, इस देश की स्वतंत्रता रह सकेगी या नहीं, यह चिंता का विषय है. जिस ढंग से इंदिरा गांधी समाजवाद का नारा देकर देश में काम कर रही हैं, ऐसी परिस्थिति बन रही है कि जनतंत्र खत्म होगा और इनकी तानाशाही कायम होगी.

1974 में इमरजेंसी की घोषणा हुई और बी एन मंडल का कहा सच हो गया. हालांकि आपातकाल के खात्मे को बी एन मंडल देख नहीं पाए और आजादी के एक समाजवादी नायक को आपातकाल के दौरान दुखी हृदय से ये दुनिया छोड़नी पड़ी. 29 मई 1975 को अपने पैतृक गांव में हार्ट अटैक की वजह से बी एन मंडल की मृत्यु हो गई. यह वक्त अपने नायकों को याद करने का, जिन्होंने अपनी मेहनत और बुद्धिमता से एक समाज को आकार दिया था.

(किताब- समाजवादी चिंतन के अमर साधक भूपेन्द्र नारायण मंडल, लेखक- शरदेन्दु कुमार. और बी एन मंडल के सुपौत्र दीपक प्रसाद से बातचीत)

(ऋषभ प्रतिपक्ष हिंदी के लेखक, ब्लॉगर हैं और साहित्य व सिनेमा में काफी रुचि रखते हैं, व्यक्त विचार निजी हैं)


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