महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनावों और 15 राज्यों की 51 विधानसभा सीटों के उपचुनावों के नतीजों के बाद कांग्रेस कुछ राहत जरूर महसूस कर रही है. देश भर में फैली इन सीटों पर हुए उपचुनावों के नतीजों से ये साबित हो गया कि बीजेपी अपराजेय नहीं है. महाराष्ट्र और हरियाणा में भी बीजेपी की सीटें घटी हैं जबकि कांग्रेस ने अपनी स्थिति बेहतर की है. इस तरह, कांग्रेस-मुक्त भारत के बीजेपी के अभियान पर रोक लगती दिख रही है, लेकिन कांग्रेस इस बदलती राजनीतिक परिस्थिति का लाभ उठाने के लिए तैयार नजर नहीं आ रही है.
हरियाणा और महाराष्ट्र में कांग्रेस बीजेपी को सत्ता से हटाने में नाकाम रही. इतना जरूर है कि वह अपनी कुछ सीटें बढ़ा ले गई, लेकिन इससे कोई बड़ा फर्क नहीं पड़ने वाला है. हरियाणा में जरूर लगा था कि कांग्रेस शायद जेजेपी और निर्दलीयों को साथ लेकर सरकार बना सकती है, लेकिन वहां बीजेपी ने तेजी दिखाई और निर्दलीयों को भी मिला लिया और जेजेपी को भी. अगर कांग्रेस वहां सरकार बना लेती, तब उसे एक उपलब्धि माना जाता. लेकिन सीटों में बढ़ोतरी का केवल रेकॉर्ड में दर्ज करने का ही महत्व है.
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महाराष्ट्र में भी कांग्रेस कुछ खास नहीं कर सकी. शरद पवार और उनकी पार्टी एनसीपी ने फिर भी काफी दम दिखाया और अपनी सीटें पिछली बार की 41 की तुलना में 54 तक ले गई, लेकिन कांग्रेस 42 सीटों से बढ़कर 44 तक ही आ सकी. इस तरह साबित हुआ कि महाराष्ट्र में विपक्ष का नेतृत्व एनसीपी और शरद पवार कर रहे हैं.
प्रचार से दूर रहा राष्ट्रीय नेतृत्व
चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस का राष्ट्रीय नेतृत्व कम ही नजर आया. महाराष्ट्र में स्थानीय नेता और एनसीपी के नेता ही मोर्चा संभाले रहे और हरियाणा में सब कुछ भूपेंद्र सिंह हुड्डा के हवाले था ही. हरियाणा में जहां कांग्रेस बहुमत से बहुत दूर 31 पर अटक गई, वहीं नई नवेली पार्टी जननायक जनता पार्टी ने 10 सीटें जीतकर उसके भविष्य के लिए खतरा पैदा कर दिया है. मौके का फायदा उठाकर जेजेपी बीजेपी के साथ सरकार में भी शामिल होकर डिप्टी सीएम का पद भी ले गई. अब आगे जाट और किसान वोटों पर जेजेपी भी दावा ठोंकेगी और नुकसान कांग्रेस को होगा.
बीजेपी की नाकामियों का नहीं ले पाई फायदा
इन चुनावों में जिस तरह की चुनौती कांग्रेस को देनी चाहिए थी, इसके लिए कांग्रेस की तैयारी नहीं थी. बीजेपी को जो भी चोट पहुंची है, वह एक तरह से जनता की अपनी पहल और नाराजगी की वजह से पहुंची है. कांग्रेस की यह बड़ी नाकामी इसलिए है क्योंकि इन चुनावों में उसे आर्थिक मंदी, बढ़ती बेरोजगारी, बढ़ते अपराध, सरकारी नौकरियों के खत्म होने, रेलवे के निजीकरण की ओर बढ़ते कदम, महाराष्ट्र में किसानों की बदहाली जैसे कई मुद्दे थे जिन पर बीजेपी बुरी तरह से घिर रही थी, लेकिन कांग्रेस इन सबका फायदा या तो ले नहीं पाई या फिर बहुत सीमित फायदा ले पाई.
छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश की कांग्रेस सरकारें कई मोर्चों पर बेहतर काम कर रही हैं, लेकिन उनकी उपलब्धियों को भी कांग्रेस इन चुनावों में भुनाने की कोशिश ही करती नहीं दिखी. आर्थिक मोर्चे पर देश की गिरती हालत पर कई अर्थशास्त्री और अंतरराष्ट्रीय वित्त संस्थान मुखर होकर चिंता जताने लगे हैं, और वित्तमंत्री कई तरह की कर छूट देकर स्थिति संभालने की कोशिश करती दिखीं, लेकिन इस सबका चुनावों में कांग्रेस कोई फायदा नहीं ले पाई.
आपसी झगड़े सुलझाने की कोशिश ही नहीं की
हरियाणा में भूपेंद्र सिंह हुड्डा और पूर्व प्रदेशाध्यक्ष अशोक तंवर के बीच के झगड़े का कांग्रेस कोई समाधान नहीं निकाल पाई और आखिरकार अशोक तंवर को पार्टी छोड़कर जाना पड़ा. जाहिर है, दोनों साथ रहते तो कांग्रेस और बेहतर कर पाती.
इसी तरह से महाराष्ट्र में कांग्रेस किसी नेता को पेश नहीं कर पाई, और एक तरह से बिना कमांडर की सेना के रूप में ही चुनावी जंग में उतरी. संजय निरुपम, मल्लिकार्जुन खड़गे और मिलिंद देवड़ा का झगड़ा विधानसभा चुनावों के दौरान ही उभर पड़ा और राष्ट्रीय नेतृत्व ने उसे संभालने की कोई कोशिश नहीं की.
ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह, मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस, और शिवसेना के उद्धव ठाकरे की संयुक्त सेना के सामने उसे कमजोर तो पड़ना ही था. जनता की नाराजगी थी तो उसका फायदा एआईएमआईएम, वंचित बहुजन अघाड़ी, और कई छोटे-मोटे दल ले गए, लेकिन कांग्रेस पर भरोसा करने को जनता तैयार नहीं हुई. हालांकि आखिर में ये पार्टियां वोट काटती ही नजर आईं. लेकिन इसका दोष कांग्रेस पर ही है.
सहयोगी दलों की तलाश नहीं की
हरियाणा में कांग्रेस ने आईएनएलडी, जेजेपी या बीएसपी से तालमेल की कोई कोशिश नहीं की, और न ही कांग्रेस छोड़कर गए पुराने नेताओं को वापस लाने की पहल की. इसी तरह से महाराष्ट्र में अन्य प्रभावी दलों से तालमेल करने की इच्छा कांग्रेस में नहीं दिखी. अब वह बेशक इस बात पर चिंतन कर रही है कि प्रकाश आंबेडकर और असदुद्दीन ओवैसी की वजह से उसे कितने सीटों का नुकसान हो गया.
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बीजेपी ने इस मामले में ज्यादा लचीला रुख अपनाया. सारी कड़वाहट भुलाकर बीजेपी ने शिवसेना को साथ लिया, जबकि इसके पहले कई महीनों से शिवसेना लगातार बीजेपी की खिंचाई कर रही थी और विरोधी दल की तरह बर्ताव कर रही थी. नतीजों से पता चलता है कि कम से कम 32 सीटें कांग्रेस-एनसीपी के वंचित बहुजन अघाड़ी के साथ तालमेल न होने के कारण बीजेपी-शिवसेना को मिल गईं. अगर अपनी कमजोरी का सही आकलन करके, कांग्रेस ने अन्य दलों को गठबंधन में समायोजित कर लिया होता, तो जनता तो बीजेपी-शिवसेना को दूसरा मौका देने के मूड में थी ही नहीं.
शीर्ष नेतृत्व पर बना शून्य
कांग्रेस का संकट निचले स्तर पर जितना है, शीर्ष स्तर पर उससे भी ज्यादा है. लोकसभा चुनावों में मिली हार के बाद राहुल गांधी ने राष्ट्रीय अध्यक्ष पद छोड़ा तब से नेतृत्व की शून्यता बनी हुई है. तमाम प्रयासों के बाद भी किसी नए अध्यक्ष का चयन नहीं हो सका तो सोनिया गांधी को ही अंतरिम अध्यक्ष बनना पड़ा, लेकिन ये अंतरिम व्यवस्था सचमुच अंतरिम ही साबित हो रही है.
कांग्रेस को राष्ट्रीय नेतृत्व की दुविधा से जल्द से जल्द निकलना होगा और जनता के बदलते मूड का फायदा उठाने के लिए अपने को तैयार करना होगा. अगर वह ऐसा नहीं कर पाती, तो जनता किसी अन्य विकल्प की ओर भी देख सकती है.
(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं. यह उनका निजी विचार है)