नई दिल्ली: अगर सब कुछ योजना के तहत चला तो नरेंद्र मोदी सरकार मंगलवार को संसद के सत्र के आखिरी दिन एक बिल- संवैधानिक संशोधन विधेयक लेकर आएगी जिससे जनरल कैटेगरी के आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों को 10 प्रतिशत आरक्षण मुहैया कराया जाएगा.
सोमवार को केंद्रीय कैबिनेट द्वारा क्लियर किये गए इस वोट बटोरने वाले प्रस्ताव को लागू करने के लिए बहुत ही शातिर राजनीतिक चालें चलनी होंगी: इसे संसद के दोनों सदनों से दो तिहाई बहुमत प्राप्त करना होगा और साथ ही साथ कम से कम आधे राज्यों की विधानसभाओं से सहमति भी प्राप्त करनी होगी.
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इस चाल से भाजपा अवश्य ही रूठे हुए सवर्णों को अपने पाले में लाना चाहती है, लेकिन इससे वंचित वर्ग के लोगों का भाजपा से और भी ज़्यादा दूर हो जाने का खतरा है, खासतौर से ओबीसी का. ओबीसी काफी लम्बे समय से शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण की मांग करते रहे हैं. इस चाल से यह भी पता चलता है कि भाजपा को ऐसा नहीं लगता कि वह अनुसूचित जातियों और जनजातियों से वोट प्राप्त कर पाएगी.
अब सवर्णों में कमज़ोर तबके के लोगों को खुश करने के लिए आने वाली अड़चनों को भाजपा कैसे दूर करेगी, यह तो साफ़ नहीं है लेकिन मात्र इस चाल से ही कई सवाल उठ रहे हैं.
क्या यह संवैधानिक रूप से जायज़ है?
नहीं, मौजूदा स्कीमों के तहत नहीं. इस संशोधन को सुप्रीम कोर्ट के नियमों और पुरानी सुनवाइयों से गुज़रना होगा, खासतौर से इंद्रा साहनी मामले में जहां एक संवैधानिक बेंच ने यह फैसला दे दिया था कि 50 प्रतिशत से ज़्यादा आरक्षण नहीं दिया जा सकता.
उन्होंने यह चेताया था कि इस नियम पर तभी ढील बरती जाएगी जब दूर-दराज और दुर्गम इलाकों के लोगों के हितों की बात होगी, वह भी बहुत ही विशेष मामलों में जिसका डेटा मौजूद हो.
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देश के सर्वोच्च न्यायलय ने बार-बार इस बात को जताया है कि आरक्षण सिर्फ ‘आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े’ हुए समाज के वर्गों के उत्थान के लिए ही दिया जाएगा. जहां आर्थिक तंगी आरक्षण देने का एक कारण हो सकती है, लेकिन सम्पूर्ण रूप से आर्थिक हालातों पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता.
और एक महत्त्वपूर्ण बात यह कि इंद्रा साहनी मामले में कोर्ट ने आर्थिक रूप से जनरल कैटेगरी के पिछड़े वर्गों को आरक्षण देना ही ‘असंवैधानिक’ ठहरा दिया था.
सरकार बिल लाई तो फिर उसके आगे क्या?
सरकार मंगलवार को संविधान के आर्टिकल 15 और 16 में संशोधन करने के लिए लोकसभा या राज्यसभा में बिल का प्रस्ताव ला सकती है. इस बिल को प्रत्येक सदन में मौजूद सदस्यों से दो तिहाई समर्थन प्राप्त करना होगा और सदन में कम से कम आधे सदस्य उपस्थित होने चाहिए.
एक बार जो दोनों सदनों ने इसे पास कर दिया, फिर इस बिल को सभी राज्यों में भेजा जाएगा, इनमें से कम से कम आधे राज्यों की विधानसभाओं को इस बिल को दो तिहाई बहुमत से मंज़ूरी देनी होगी. ऐसा करने के लिए राज्यों के पास कोई समय सीमा नहीं है.
क्या इन संशोधनों पर कभी आपत्ति जताई जा सकती है?
हां, सैद्धांतिक रूप से, इन संशोधनों को किसी भी स्टेज पर सुप्रीम कोर्ट में ललकारा जा सकता है. लेकिन कोर्ट आमतौर पर तभी हस्तक्षेप करती हैं जब कार्रवाई का कारण स्पष्ट हो जाए, मतलब यह कि इस मामले में बिल को पहले पास करवाना होगा और राष्ट्रपति से हरी झंडी दिलवानी होगी.
इस संशोधन के दायरे में कौन-कौन आएगा?
लिखित प्रतिलिपि पर ही बहुत कुछ निर्भर करेगा. सरकार में मौजूद सूत्रों ने दिप्रिंट को बताया कि सरकार उन लोगों को आर्थिक रूप से कमज़ोर ठहराएगी जिनकी सालाना आय 8 लाख रुपये से कम है, जो 5 हेक्टेयर से कम कृषि भूमि के मालिक हैं या जिनका घर 1000 वर्ग फ़ीट से कम है या वे अधिसूचित नगर पालिकाओं में 109 गज और गैर नगर पालिकाओं में 209 गज के रिहायशी प्लॉट के मालिक हैं.
क्या नया आरक्षण जातीय आधारित होगा?
नहीं. उच्च जातियों के लोग जो आर्थिक रूप से पिछड़े होने के मापदंडों पर खरे उतरेंगे, उन्हीं को ये आरक्षण प्राप्त होगा. सरकार को इस संशोधन वाले बिल में एक क्लॉज़ भी डालना पड़ेगा, जिसमें आरक्षण की ऊपरी सीमा को 50 प्रतिशत से बढ़ाकर 60 प्रतिशत करना होगा.
क्या इस कदम पर पहली बार विमर्श किया जा रहा है ?
नहीं, पीवी नरसिम्हा राव की सरकार ने 25 सितम्बर 1991 को एक ऑफिस मेमोरेंडम जारी किया था, जिससे गरीब तबके के लोग भी अधिमान्य आधार पर आरक्षण का फ़ायदा उठा सकते थे. इसी मेमोरेंडम में अन्य पिछड़े वर्गों को भी आरक्षण देने की बात की गई थी जिनको मौजूदा आरक्षण नीतियों से कोई फ़ायदा नहीं मिल पा रहा था.
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लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस मेमोरेंडम को ही ‘लागू न करने लायक’ ठहरा दिया. बेंच ने यह भी कहा कि ‘जाति के अलावा किसी भी समूह की शिनाख़्त करना जैसे कि व्यवसाय, सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक जो जाति में पहचानी जा सके, अमान्य न होगी.’
इसी बेंच ने ‘आर्थिक पिछड़ेपन’ के आधार पर आरक्षण देने का प्रावधान भी दिया, यदि राज्य ऐसे किसी तंत्र को अपनाने में सक्षम हो जाता है जिससे ऐसे वर्गों की प्रतिनिधित्व में अपर्याप्तता को जाना जा सके’
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