विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की सफलता सबसे अधिक वैचारिक मुद्दों को प्रमुखता दिलाने की उसकी क्षमता – या अक्षमता – पर निर्भर करती है. बिहार इसका नवीनतम उदाहरण है.
बिहार में चुनाव के पहले चरण में रोज़ी-रोटी के मुद्दे छाए रहे थे और इस चरण में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को एक तिहाई से भी कम (29.6 प्रतिशत) सीटों पर सफलता मिली, जबकि महागठबंधन के खाते में दो तिहाई से अधिक (67.6 प्रतिशत) सीटें गईं. इस चरण में तेजस्वी यादव का कमाई, पढ़ाई, सिंचाई और महंगाई का एजेंडा सबसे प्रभावी रहा था. महागठबंधन भाजपा के साथ वैचारिक प्रतिस्पर्धा में नहीं पड़ने की अपनी कोशिशों में सफल रहा, और उसे इसका चुनावी फायदा हासिल हुआ.
इसके विपरीत, चुनाव के तीसरे चरण में वैचारिक मुद्दे हावी रहे. इस चरण में सर्वाधिक मुस्लिम आबादी वाले इलाके (सीमांचल, कोसी और मिथिला) शामिल थे. यही वो चरण था जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दावा किया कि ‘भारत माता के विरोधी एकजुट हो रहे हैं’ जो ‘जयश्री राम नहीं सुनना चाहते हैं’. और इसी चरण में, हिंदुस्तान टाइम्स के विश्लेषण के अनुसार, प्रधानमंत्री की रैलियां सर्वाधिक प्रभावी साबित हुईं.
साथ ही, तीसरे चरण में नागरिकता संशोधन कानून और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (सीएए/एनआरसी) और ‘मुस्लिम घुसपैठ’ के खतरे जैसे मुद्दों को उठाने के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को भी लगाया गया था. और इस चरण में सीएए/एनआरसी के खिलाफ संसद के भीतर और बाहर मुखर रही पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) भी चुनाव लड़ रही थी. और शायद उससे भी अहम बात ये है कि इस चरण में आकर भाजपा ने ‘जंगल राज’ और ‘यादव राज’ की बयानबाज़ी को तेज़ कर दिया जो राष्ट्रीय जनता दल (राजद) की जीत की संभावना हकीकत के करीब दिखने के कारण अधिक प्रतिध्वनित हुई. इस चरण में महागठबंधन चारों तरफ से घिर गया था और उसे 27 प्रतिशत से भी कम सीटों पर जीत मिल पाई. कोई आश्चर्य नहीं कि चुनाव के तीसरे चरण में एनडीए सबसे बड़ा विजेता बनकर उभरा. उसने इस चरण में दो तिहाई से अधिक सीटों पर जीत हासिल करते हुए मामूली अंतर से चुनाव जीत लिया.
ये परिणाम एक बड़े पैटर्न के अनुरूप हैं. भाजपा की चुनावी सफलता उसके वैचारिक प्रभुत्व पर आधारित है तथा पिछले छह वर्षों के दौरान उसकी सफलताओं और नाकामियों का आकलन विचारधारा की प्रमुखता के इस सिद्धांत के आधार पर किया जा सकता है.
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चैलेंजर भाजपा बनाम सत्तारूढ़ भाजपा
मोदी काल में राज्य के चुनावों में भाजपा के प्रदर्शनों को दो वर्गों में बांटा जा सकता है: चुनौती देने वाली (चैलेंजर) पार्टी के रूप में प्रदर्शन और सत्तारूढ़ दल के रूप में प्रदर्शन. चैलेंजर के रूप में भाजपा अच्छे से जीत जाती है, और इसके लिए अक्सर वह राज्य के मौजूदा सत्ता समीकरण को निशाना बनाने के लिए वह गैर-प्रभावशाली जातियों के साथ एकजुट हो जाती है. जबकि एक सत्तारूढ़ दल के रूप में भाजपा का प्रदर्शन मामूली ही रहा है. भले ही कई कार्यकालों की सरकार विरोधी भावनाओं को धता बताते हुए भाजपा गुजरात में और अब बिहार में जीत हासिल करने में सफल रही हो, लेकिन उसकी प्रसिद्ध चुनावी सफलताओं की तुलना में इन्हें कमज़ोर प्रदर्शन ही माना जाएगा.
विश्लेषक भाजपा के फीके प्रदर्शन में कई कारकों की भूमिका देखते हैं जिनमें विश्वसनीय चेहरों की कमी, सहयोगियों का साथ छोड़ना, सामाजिक गठबंधनों का दरकना और केंद्रीय नेतृत्व, खासकर प्रधानमंत्री मोदी, पर अतिनिर्भरता शामिल हैं.
वैसे तो हर परिस्थिति अपने आप में अलग होती है, लेकिन हम समझते हैं कि राज्य के चुनावों में भाजपा का प्रदर्शन विचारधारा संबंधी एक व्यापक पर काफी कुछ निर्भर करता है. अन्य कारक अधिकांशत: इसी से जुड़े होते हैं. जब वैचारिक मुद्दों को कम प्रमुखता मिलती है तो इसका केंद्रीय नेतृत्व कम प्रभावी साबित होता है और राज्यस्तरीय नेताओं का अभाव अधिक स्पष्टता से जाहिर होता है. भाजपा की बहुप्रचारित सोशल इंजीनियरिंग भी एकजुटता के लिए काफी हद तक इसी वैचारिक जोड़ पर निर्भर करती है. साथ ही, एक सत्ताधारी दल के लिए (जब विपक्ष और वोटर दोनों का ही ध्यान सरकार के रिकॉर्ड पर अधिक होता है) विचारधारा संबंधी मुद्दों को प्रमुखता दिलाना अधिक कठिन होता है, जबकि एक चैलेंजर के सामने इस तरह की कोई बाधा नहीं होती है.
वैचारिक प्रभुत्व की सीमाएं
विचारधारा केंद्रित इस रणनीति के तीन पहलुओं से भाजपा के भाग्य का निर्धारण होता है. पहला, भाजपा और उसके प्रमुख प्रतिद्वंद्वी के बीच की वैचारिक दूरी यह तय करती है कि चुनाव अभियान के दौरान ऐसे मुद्दों को कितनी प्रमुखता मिलेगी. उत्तर प्रदेश में, भाजपा ने 2017 में विशेषकर जाति और धर्म आधारित ‘तुष्टिकरण’ की नीति के खिलाफ माहौल बनाकर चुनावी जीत हासिल की थी. इसलिए उसका अभियान बहुजन समाज पार्टी (बसपा), समाजवादी पार्टी (सपा) और कांग्रेस से अपनी वैचारिक भिन्नता को उजागर करने पर केंद्रित था. असम में 2016 के चुनाव में उसने एनआरसी को केंद्रीय मुद्दा बनाकर और कांग्रेस को ‘अवैध आप्रवासियों’ के प्रति नरम बताकर हिंदू वोटों का एकजुट किया था. त्रिपुरा में 2018 के चुनावों में, जब भाजपा पहली बार वैचारिक रूप से अपने धुर विरोधी वामदलों के साथ सीधे मुकाबले में थी, उसने अपने वोट शेयर को 1 प्रतिशत से बढ़ाकर 42.5 प्रतिशत करते हुए निर्णायक जीत हासिल की.
लेकिन, दिल्ली का चुनाव इस बात को समझने के लिए एक अच्छा उदाहरण है कि इस रणनीति की क्या सीमाएं हैं. चूंकि आम आदमी पार्टी (आप) और भाजपा दोनों ही राष्ट्रवाद और भ्रष्टाचार के मुद्दों पर समान रूप से ज़ोर दे रहे थे, विचारधारा का मुद्दा प्रभावी नहीं रह गया, और भाजपा को मतदाताओं के रोजी-रोटी के मुद्दे का सामना करने के लिए बाध्य होना पड़ा. मुख्य प्रतिद्वंद्वियों से जितनी अधिक वैचारिक दूरी हो, भाजपा की जीत की संभावना उतनी ही अधिक होती है.
दूसरी बात, वैचारिक भेद पर अतिनिर्भता इसके फायदों को कम कर सकती है. एक परिवर्तनशील, बहुदलीय व्यवस्था में यह तभी तक कारगर है जब तक कि विपक्षी दल सचेत होकर खुद को बदलते नहीं. हाल के वर्षों में राज्यों में हुए चुनावों में विचारधारा का अंतर काफी कम होता दिखा, जो कि भाजपा के असर को कम करने की प्रतिद्वंद्वी पार्टियों की सोची-समझी रणनीति का परिणाम था. पार्टियों को इस अंतर को कम करने में जितनी सफलता मिली, उनका प्रदर्शन उतना ही अच्छा रहा. पार्टियों ने ऐसा या तो भाजपा द्वारा उठाए गए प्रमुख चुनावी मुद्दों के चक्कर में नहीं पड़कर या खुद भी उन मुद्दों को उठाकर किया. जैसे हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड में विपक्षी दलों ने खुद को अनुच्छेद 370, तीन तलाक और राम मंदिर पर भाजपा की चुनावी बयानबाज़ियों में उलझने नहीं दिया, तथा अपने चुनाव अभियानों को बिल्कुल स्थानीय प्रकृति का बनाकर रखा जिनमें फोकस विकास या शासन संबंधी मुद्दों पर था. मध्य प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस ने थोड़ा और आगे बढ़ते हुए अपने सॉफ्ट-हिंदुत्व वाले चेहरे को आगे किया. दिल्ली में, आप ने सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों के संबंध में भाजपा जैसी ही बयानबाज़ी को अपनाया और अपनी हिंदू छवि पेश करने की कोशिश की.
तीसरी बात, एक ‘सर्व-हिंदू’ पहचान निर्मित करने के भाजपा के जातीय-राष्ट्रवाद के एजेंडे की सफलता के कारण उसके राज्यस्तरीय प्रतिद्वंद्वियों के लिए वैचारिक विस्तार की गुंजाइश कम रह गई, और उन्हें अपनी रणनीतियों के पुनर्निर्धारण पर मजबूर होना पड़ा. उन्होंने विकास, अर्थव्यवस्था और रोजी-रोटी के मुद्दों को प्रमुखता से उठाना शुरू किया. बिहार के चुनाव में अपनी पार्टी की पारंपरिक राजनीति से दूर हटने के तेजस्वी यादव के साहसिक निर्णय से इस रणनीति को और बढ़ावा मिलेगा. बिहार में वामपंथी दलों को मिली सफलता से पहचान की राजनीति से इतर कारकों को और अधिक महत्व दिए जाने की संभावनाओं को बल मिलेगा. इसलिए असम, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु जैसे राज्यों के आगामी विधानसभा चुनावों में नए वर्ग आधारित मुद्दों को प्रमुखता मिल सकती है.
कांग्रेस के दौर के मुक़ाबले बदलाव
भाजपा के प्रभुत्व का पैटर्न — राष्ट्रीय स्तर पर मज़बूत और राज्य स्तर पर कमज़ोर — 1967-89 के दौरान कांग्रेस के वर्चस्व की स्थिति की याद दिलाता है. लेकिन उस काल में बाद के दौर में जहां विपक्षी पार्टियां — समाजवादी, साम्यवादी, जातीय और क्षेत्रीय — कांग्रेस को वैचारिक मुद्दों पर चुनौती देकर अपना प्रसार कर रही थीं, वहीं मोदी काल में वह बड़े वैचारिक मुद्दों पर चुप्पी साधकर ऐसा कर रही है. राजद ने सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के कट्टर समर्थक की अपनी छवि को सौम्य बनाने के लिए विशेष प्रयास किए, जिनमें अन्य बातों के अलावा एम-वाय समीकरण को मुस्लिम-यादव के बजाय मज़दूर-युवा पर आधारित बताना भी शामिल था.
इसलिए 1967-89 में कांग्रेस का चुनावी वर्चस्व भले ही वैचारिक प्रभुत्व पर टिका नहीं रहा हो, आज स्पष्ट रूप से ऐसा नहीं है. भाजपा चुनाव जीतती हो या हारती हो, चुनावी विमर्श के निर्धारण में उसकी विचारधारा की केंद्रीय भूमिका को नकारा नहीं जा सकता. वास्तव में, वैचारिक मुद्दों पर चुप रहने की विपक्षी पार्टियों की रणनीति भाजपा की विचारधारा की वर्चस्वकारी प्रकृति का सबसे निश्चित प्रमाण है.
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(आसिम अली और अंकिता बर्थवाल नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में रिसर्च एसोसिएट हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)
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