बीजेपी और आम आदमी पार्टी इस समय जीवन-मरण के संघर्ष में है. ये कोई आम राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता या होड़ नहीं है. आम आदमी पार्टी की लगभग पूरी टॉप लीडरशिप इस समय जेल में है. इनमें मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, उनके दो वरिष्ठ मंत्री और राज्य सभा के एक सांसद शामिल हैं. कई और नेता भी जांच के दायरे में हैं.
मैं इस लेख में ये समझने की कोशिश कर रहा हूं कि आम आदमी पार्टी के प्रति बीजेपी इतनी आक्रामक क्यों है, जबकि दोनों दलों की राम मंदिर, राजनीति में हिंदू प्रतीकों के इस्तेमाल, अनुच्छेद 370 के अंत, जम्मू-कश्मीर के विभाजन, ईडब्ल्यूएस आरक्षण, यहां तक कि कोरोना काल में तबलीगी जमात को निशाना बनाने को लेकर आम राय रही है.
दूसरा दिलचस्प सवाल है कि बीजेपी में यही आक्रामकता अपने वैचारिक विरोधियों जैसे असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया एमआईएम, द्रविड़ पार्टी डीएमके, सीपीएम जैसे वामपंथी दलों और सामाजिक न्याय की सेक्युलर ताकत जैसे आरजेडी और उसके नेताओं को लेकर क्यों नहीं है.
सबसे पहले तो ये समझ लेना जरूरी है कि भ्रष्टाचार के केस में नेताओं को जेल में डालने का क्या मतलब होता है और किसी भी दौर में ये क्या सिर्फ कानूनी मसला होता है. भारतीय लोकतंत्र में नेता जेल भेजे जाते रहे हैं. जय प्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, चरण सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी, प्रकाश सिंह बादल, शरद यादव, नीतीश कुमार, लालकृष्ण आडवाणी, इंदिरा गांधी, जयललिता, करुणानिधि, लालू प्रसाद, शिबू सोरेन, अमित शाह उन नेताओं में हैं, जो जेल गए हैं. नेताओं को जेल भेजे जाने के लिए मुख्य रूप से भ्रष्टाचार, आपराधिक षड्यंत्र और राष्ट्र द्रोह जैसे केस लगाए जाते हैं. मेरा मानना है कि ये तमाम गिरफ्तारियां राजनीतिक थीं. केजरीवाल की गिरफ्तारी भी राजनीतिक है. इन सारे मामलों में जांच और अदालती प्रक्रिया चलाना एक व्यवस्थागत मामला है.
आम आदमी पार्टी के मामले में भी हवाला और शराब घोटाले के आरोप लगाए गए हैं. इस मामले में तथ्य के आधार पर सत्य तक पहुंचना जांच एजेंसियों और कोर्ट का काम है. लेकिन ये बात समझनी होगी कि भारत में, और शायद ये बात ज्यादातर देशों के लिए सही है कि, राजनीति एक खर्चीला काम है. खासकर चुनाव लड़ना तो बेहद महंगा प्रोजेक्ट होता है. कानूनी तरीके से किसी भी पार्टी के लिए ये मुमकिन नहीं है कि इतना फंड इकट्ठा करे. इसलिए पार्टियां और नेता तमाम संदिग्ध और कई बार गैर कानूनी रास्ते से फंड जमा करते हैं. हर शासन में सरकार सिर्फ ये तय करती है कि इनमें से किन नेताओं और दलों पर कार्रवाई की जाए. ये हमेशा राजनीतिक फैसला होता है.
तो देखना सिर्फ ये होगा कि बीजेपी की प्राथमिकता में आप नेताओं के खिलाफ केस करना और उनको जेल में डालना क्यों है? बीजेपी आम आदमी पार्टी को खत्म क्यों करना चाहती है?
मेरा मानना है कि बीजेपी आम आदमी पार्टी को इसलिए नहीं खत्म करना चाहती है कि वह विरोधी विचार की पार्टी है. बल्कि वह आम आदमी पार्टी को इसलिए खत्म करना चाहती है क्योंकि दोनों बेहद मिलती-जुलती पार्टियां हैं. इस वजह से इन दो पार्टियों का एक साथ काम करना कठिन हो रहा है. दोनों के वोटर समान विचारों और अभिरुचि वाले है. ये वोटर बीजेपी और आम आदमी पार्टी के बीच आसानी से आना जाना कर सकते हैं. इनमें बारीक-सा अंतर मुसलमानों को लेकर है. बीजेपी सिद्धांत रूप में सावरकर की विचारधारा के साथ है, जिसमें मुसलमान और हिंदू का द्वैत राजनीति का मूल आधार बन जाता है. आम आदमी पार्टी धार्मिकता में बीजेपी से कम नहीं है, पर वह सिद्धांत रूप में मुसलमान विरोधी नहीं है. आम आदमी पार्टी को आप ऐसी बीजेपी कह सकते हैं जिसे मुसलमान वोट भी मिलता है. इसलिए नहीं कि वह मुसलमान समर्थक है. इसलिए क्योंकि वह बीजेपी जितना मुसलमान विरोधी नहीं है.
दिल्ली के वोटर इन दो दलों को बहुत अच्छे से जानते हैं. मिसाल के तौर पर 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में दिल्ली के वोटरों ने बीजेपी को एकमुश्त सातों सीटों पर जिता दिया. वहीं, इन दोनों चुनावों के फौरन बाद हुए विधानसभा चुनावों में यानी 2015 और 2020 में आम आदमी पार्टी को कुल 70 में 67 और 62 सीटों पर जीत मिली. यानी दिल्ली के वोटर ने ऊपर मोदी और नीचे केजरीवाल को चुना.
यही दोनों पार्टियों की समस्या भी है. इनमें से कोई भी पार्टी दूसरी पार्टी की कीमत पर ही आगे बढ़ती है. यही बात डीएमके, आरजेडी, वाम दल या एआईएमआईएम और बीजेपी के लिए सच नहीं है. एक तो इनके प्रभाव के क्षेत्र वो इलाके हैं, जहां बीजेपी की मुख्य राजनीति नहीं है. दूसरे, इन दलों के पास जो वोट है, वह बीजेपी का संभावित वोट नहीं है. ये वोट बीजेपी के पास आने वाला नहीं है. इसलिए बीजेपी इनसे जीवन-मरण के संघर्ष में जूझ नहीं रही है.
विचारधारा की समानता कई बार दलों को करीब लाती है. लेकिन कई बार उनके बीच प्रतियोगिता भी छिड़ जाती है. मिसाल के तौर, बीजेपी और शिवसेना लंबे समय तक गठबंधन में रह पाई. वामपंथी दलों का मोर्चा बन जाता है. सेक्युलर गठबंधन भी बनता बिगड़ता रहता है. लेकिन ऐसा बीजेपी और आम आदमी पार्टी के साथ नहीं हो पा रहा है.
यही कारण है कि राम मंदिर निर्माण पर कोर्ट के फैसले का स्वागत करने और सरकारी पैसे से दिल्ली के लोगों को अयोध्या तीर्थ यात्रा में भेजने वाली, भजन संध्या और हनुमान चालीसा कराने वाली, अनुच्छेद 370 की समाप्ति के लिए संसद में वोट डालने वाली पार्टी आज बीजेपी की प्रतिद्वंद्वी बनी हुई है.
बीजेपी अभी जो कर रही है, यही काम कांग्रेस ये यूपीए शासन में समान विचार वाले दलों के साथ किया था. उस सरकार में ही लालू प्रसाद के खिलाफ चारा घोटाले में पहली बार फैसला आया और राहुल गांधी ने गारंटी कर दी कि लालू प्रसाद जीवनकाल में फिर कभी चुनाव न लड़ सकें. ऐसा इसलिए क्योंकि कांग्रेस को लगता था कि बिहार उसके हाथ से इसलिए निकल गया है क्योंकि लालू प्रसाद ने उनका वोट ले लिया. इसी तरह कांग्रेस ने डीएमके के नेताओं ए. राजा और कनिमोई को जेल में डाला. इसी दौर में राहुल गांधी ने मायावती सरकार के खिलाफ भट्टा पारसौल में आंदोलन चलाया. ये सब कार्रवाई सेक्युलर दलों के खिलाफ चल रही थी, क्योंकि कांग्रेस इन दलों को प्रतिद्वंद्वी मान रही थी.
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